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मंगलवार, 21 मार्च 2017

रचनी हैं अब साजिशें

रचनी हैं अब साजिशें
स्वप्न तो बहुत देख दिखा चुके
ये वक्त का बदला लहजा है
जिस पर इंसानियत तलवों का उपालम्भ है
और साजिश एक आदतन शिकारी

चौतरफा बहती बयार में
जरूरी है बह जाना
जिंदा रहना जरूरत जो ठहरी आज की
हकीकतों के चिंघाड़ते जंगल
दे रहे हैं दलीलें
वक्त अपनी नब्ज़ बदल चुका है
तुम कब बदलोगे ?

आदर्शों उसूलों के धराशायी होते महल
कबीलों में बदलते जल जंगल और जमीन
ऊँची दुकान फीके पकवान समान
अब नहीं करते जिरह ...
हकीकतें दुरूह हुआ करती हैं
जानते हैं वो ....

सीख सको तो सीख लेना
स्वप्नों से बगावत करना
और साजिशों से दोस्ती करना
कि
ये समय की सबसे बड़ी साजिश है
कोई अठखेली नहीं ...
बदलाव के कबूतरों ने मुंडेरों पर उतरना छोड़ दिया है

साजिशें स्वप्नों का हिस्सा हों
या स्वप्न साजिश का
हलाक तुम्हें ही होना है अंततः ...
कहो अब किस ओर का साक्षी है तुम्हारा जमीर ?


क्योंकि
हर मुस्कराहट का अर्थ अलग हुआ करता है .........जानते हो न

8 टिप्‍पणियां:

रश्मि प्रभा... ने कहा…

http://bulletinofblog.blogspot.in/2017/03/blog-post_21.html

शुभा ने कहा…

हर मुस्कुराहट का अर्थ अलग हुआ करता है .....वाह !!!!बहुत सुंदर 👍

Sanju ने कहा…

साथॆक प्रस्तुतिकरण......
मेरे ब्लाॅग की नयी पोस्ट पर आपके विचारों की प्रतीक्षा....

Sanju ने कहा…

साथॆक प्रस्तुतिकरण......
मेरे ब्लाॅग की नयी पोस्ट पर आपके विचारों की प्रतीक्षा....

डॉ. दिलबागसिंह विर्क ने कहा…

आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 23-03-2017 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2609 में दिया जाएगा
धन्यवाद

'एकलव्य' ने कहा…

वाह!अतिसुन्दर।

Onkar ने कहा…

सुन्दर प्रस्तुति

Unknown ने कहा…

http://awadheshvermashine.blogspot.com
Bahut khoob