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शुक्रवार, 17 फ़रवरी 2017

जी-मेल एक्सप्रेस मेरी नज़र से

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जी-मेल एक्सप्रेस अलका सिन्हा जी द्वारा लिखित उपन्यास किताबघर प्रकाशन से प्रकाशित है . अलका सिन्हा जी किसी परिचय की मोहताज नहीं इसलिए उनसे परिचित कराने की बजाय सीधे उपन्यास पर ही बात की जाए .
पुरुष विमर्श को केंद्र में रख लिखा गया उपन्यास पाठक को एक अलग ही दुनिया में ले जाता है . उपन्यास की शुरुआत धीमी गति से होती है तक़रीबन आधे से ज्यादा उपन्यास पढने तक पाठक समझ भी नहीं पाता आखिर लेखिका कहाँ ले जाना चाहती हैं या क्या कहना चाहती हैं. जैसे कोई रबड़ को खींच रहा हो बस इसी तरह यात्रा चलती जाती है लेकिन कहानी रफ़्तार तब पकडती है जब कहानी का मुख्य पात्र देवेन त्रिपाठी चेन्नई घूम कर वापस आता है तो सारी दुनिया ही बदल जाती है. अचानक कहानी एकदम ऐसे मोड़ पर मुड़ जाती है जो उसे रोचक बनाती है और फिर अंत तक ले जाकर ही रूकती है यानि यूँ लगा जैसे एक्सप्रेस गाडी में ही पाठक बैठ गया हो.
सबसे जरूरी है जी-मेल की व्याख्या क्योंकि आधा उपन्यास पढने तक यही प्रश्न अन्दर ही अन्दर उठता रहता है आखिर जी मेल से क्या तात्पर्य है लेखिका का ? तो जरूरी है सबसे पहले उसी का अर्थ जो लेखिका ने दिया है – जी मतलब जिगोलो और मेल मतलब मेल यानि पुरुष . तो यहाँ पाठक के प्रश्न को उत्तर मिल जाता है कि इसका किसी जीमेल जैसी ईमेल साईट से सम्बन्ध नहीं है लेकिन वहीँ एक प्रश्न उठता है जब एक तरफ खुद लेखिका लिख रही हैं जिगोलो यानि मेल प्रोसटीटयूट तो फिर अलग से मेल शब्द जोड़ने की जरूरत ही क्या थी? क्योंकि जिगोलो शब्द का प्रयोग ही मेल प्रोसटीटयूट के लिए होता है . शायद पाठक मन में उत्सुकता पैदा करने के लिए इस तरह का नाम दिया गया है यही लगा .
अब बात करते हैं उपन्यास की जहाँ मुख्य पात्र देवेन एक पुरानी डायरी दरियागंज से ले आता है और जब उसे पढना शुरू करता है तो उसमे कोड में लिखे अल्फाबेट को अपनी सोच के अनुसार मेल और फिमेल में ढाल लेता है और उन्हें अपनी सोच के अनुसार ढाल पढने लगता है और उसके साथ अपने ख्यालों की ज़िन्दगी भी जीने लगता है . अपनी ज़िन्दगी की असंतुष्टि के साथ फिर वो ऑफिस की हो या घर की . आधे से ज्यादा उपन्यास इसी उधेड़बुन में गुजर जाता है जहाँ उस डायरी के पात्र एक ज़िन्दगी जी रहे होते हैं तो दूसरी देवेन त्रिपाठी. लेकिन जैसे ही उपन्यास अपने अंत की ओर बढना शुरू करता है घटनाएं तेजी से रंग बदलती हैं तो नया ही संसार खुल जाता है जहाँ लेखिका ने जिगोलो क्यों बनते हैं पर प्रकाश डाला है. कैसे पुरुष शोषण होता है और वो जिगोलो बनने को बाध्य हो जाते हैं, पर बहुत ही गहराई से प्रकाश डाला है वहीँ साथ साथ स्त्री विमर्श का जो मुख्य बिंदु है उसे भी उजागर किया है. एक बहुत ही बोल्ड विषय जिस पर अक्सर बात कोई करना ही नहीं चाहता उस पर एक स्त्री ने लिखा ये बहुत साहस की बात है. स्त्री यौनिकता की बात करना वैसे ही हमारे समाज में गुनाह माना जाता है वहां इतनी मुखरता से न केवल स्त्री की यौनिकता की बात की गयी है बल्कि पुरुष की यौनिकता को भी विमर्श का हिस्सा बनाया है . पुरुष का भी बलात्कार होता है , उसका भी शोषण होता है कभी दैहिक कभी मानसिक लेकिन उस पर बात नहीं की जाती . उसी पर लेखिका ने ऐसे प्रश्नों को उठाया है. कैसे कॉलेज स्टूडेंट इस दलदल में फंसते हैं , कैसे जरूरतें उन्हें इसमें घसीटती हैं तो कुछ मौकापरस्त लोग उसका फायदा उठाते हैं एक एक पहलू पर लेखिका की कलम चलती गयी. एक आम इंसान जो घर और बच्चों के साथ अपनी आजीविका तक ही सीमित रहता है जब उसके सामने एक नया संसार खुलता है तो वो हतप्रभ हुए बिना नहीं रहता. लेकिन जब उस स्थिति को स्वीकार लेता है तो सहज भी हो जाता है ऐसा ही देवेन के साथ होता है. वहीँ लेखिका ने आध्यात्मिकता का पुट भी उपन्यास में दिया है तो दूसरी ओर देशभक्ति का जज्बा भी साथ चलता है . यानि ज़िन्दगी के तमाम पहलुओं को छूती हुई कहानी चलती है जैसा कि एक आम इंसान की ज़िन्दगी में होता है और फिर अचानक कैसे ज़िन्दगी करवट लेती है तो एक नयी दुनिया ही उसके सामने खुलती है और वो उसमे खुद को कुछ हद तक फंसा पाता है तो कैसा बेचैन महसूस करता है और फिर जब अपनों का भरोसा पाता है तो उसका आत्मविश्वास वापस आ जाता है फिर दुनिया से वो हर हाल में भिड सकता है यानी उसके माध्यम से मानो लेखिका कहना चाहती हो कि अपनों का साथ और विश्वास इंसान के लिए कितना आवश्यक है यदि उसमे कमी हो जाए या न मिले तो वो भटक सकता है और गलत राह भी पकड़ सकता है या फिर आत्महत्या तक का विचार करने लगता है. मानो इसी बहाने लेखिका ने परिवार के सहयोग की आवश्यकता पर तो बल दिया ही है वहीं इससे दूर रहने वालों के बिखराव को भी चिन्हित किया है .
यहाँ जरूरत नहीं कि हर पात्र का नाम लेकर लिखा जाए क्योंकि यहाँ पात्र गौण हैं बल्कि मुद्दा मुख्य है तो मुद्दे पर बात जरूरी है. इसलिए पात्रों के नाम न लेते हुए जरूरी है मुख्य समस्या पर ही ध्यान केन्द्रित किया जाए. कैसे ऑफिस आदि में काम होते हैं और कैसे स्त्री हो या पुरुष आगे बढ़ने के लिए एक दूसरे को जरिया बनाते हैं , हर पहलू पर लेखिका की कलम चली है जो यही सिद्ध कर रही है कि आज के युग में स्त्री हो या पुरुष , मौका मिलते ही एक दूसरे का शोषण करने से नहीं चूकते. फिर आखिर हम दोषारोपण करते ही क्यों हैं ? या फिर आज स्त्री समझ गयी है अपनी जरूरतों को तो उसने अपनी देह को माध्यम बनाया है लेकिन समझ नहीं पायी आखिर कहीं न कहीं अब भी उसी का शोषण किया जा रहा है बस उसका मानसिक दोहन कर. ऐसे मुद्दे उठा लेखिका तमाम स्त्री पुरुष विमर्श को उकेर रही हैं .
यदि कहानी के एक दो पहलुओं पर यदि ध्यान दें तो जब पाठक कहानी पढ़ रहा होता है तो जब देवेन अल्फाबेट को अपने मनानुसार मेल फिमेल में बांटता है जहाँ क्यू को क्वीना बना देता है तभी पाठक मन में प्रश्न उठता है कहीं लेखक गलत न साबित हो जाए और उल्टा अर्थ निकले उसका यानि वो फिमेल न होकर मेल हो और ऐसा ही अंत में होता है यानि कुछ बातें शुरू में ही पकड़ में आनी शुरू हो जाती हैं. वहीँ चरित नाम के पात्र को जब बीच कहानी से थोड़ी देर गायब कर दिया जाता है तब उसी पर शंका का बादल मंडराता है और वो भी सही सिद्ध होता है . यानि कुछ बातें बीच में समझ आने लगती हैं कि क्या हुआ होगा और क्यों?
वहीँ इस कहानी में जो शुरुआत में थोडा ज्यादा कहानी को घसीटा गया है यदि वो थोडा कम कर दिया जाता तो रोचकता कुछ ज्यादा बन जाती क्योंकि कुछ लोग तो शुरू के २५-५० पेज ही पढ़कर निर्णय ले लेते हैं आगे पढ़ा जाए या नहीं क्योंकि यदि कहानी पाठक को बाँध न पाए तो वो उसे छोड़ देता है . यदि इन बातों पर ध्यान देकर लिखा जाए तो और रोचकता बन जाती है और उपन्यास खुद को पढवा ले जाता है . वैसे देखा जाए तो ऐसा अक्सर लिखा जाता है लेकिन पाठक की रूचि का भी ध्यान जरूर रखा जाना चाहिए. उपन्यास वो जो खुद को खुद पढवा ले जाए.
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बाकी अंत में जब दो डायरियों का भेद खुलता है तो ये भी अपने में एक लेखिका के लेखन का कौतुक ही है . एक ऐसे विषय पर उपन्यास का लिखा जाना जिस पर बात तक करना जुर्म समझा जाता है लेखिका के साहस का परिचायक होते हुए भी एक जरूरी उपन्यास है जिस पर बात की जानी चाहिए. आखिर क्या कारण हैं जो पुरुष वेश्या उर्फ़ जिगोलो बनते हैं जबकि स्त्री वेश्या को हमारा समाज आसानी से स्वीकार लेता है लेकिन पुरुष वेश्या को नहीं. जाने कितने ही ऐसे प्रश्न मुँह उठाये समाज से उत्तर की अपेक्षा कर रहे हैं वहीँ कहीं कहीं उत्तर खुद भी दे रहे हैं मानो कह रहे हों ये सब आपकी ही देन है . आपने ही स्त्री पुरुष के बीच खाई उत्पन्न की उन्हें एक दूसरे की जरूरतों को जानने समझने नहीं दिया बल्कि स्त्री को प्रयोग की वस्तु बना दिया जिस कारण उससे इतर कोई कुछ समझ ही नहीं पाया जबकि स्त्री हो या पुरुष यौन जरूरतें दोनों की सामान होती हैं . दोनों को ही बराबर संतुष्टि की जरूरत होती है वो भी सिर्फ शारीरिक ही नहीं बल्कि मानसिक भी . तभी पूर्ण संतुष्टि दोनों को मिलती है यही वो मुख्य बिंदु है जिस पर लेखिका ध्यान केन्द्रित कराना चाहती हैं. बेशक शरीर दोनों को मिल सकते हैं लेकिन पूर्ण संतुष्टि वहीँ मिलती है जब मानसिक लेवल दोनों का बराबर हो और दोनों ही एक दूसरे को पूर्ण रूप से संतुष्ट करने का प्रयास करें . बस इतना सा ही तो फ़साना है लेकिन ये इतना सा ही कोई समझना नहीं चाहता जिस कारण एक भटकाव कैसे समाज को उसकी आने वाली पीढ़ी को लील रहा है उसी को लेखिका कहना चाहती हैं. उपन्यास खुद को पढ़े जाने की मांग करने के साथ इस विषय पर विमर्श की मांग भी करता है . लेखिका बधाई की पात्र हैं जो उस विषय पर उपन्यास लिखा जिस पर अब तक चर्चा तक नहीं की जाती फिर उपन्यास लिखना तो दूर की कौड़ी ही हुई. उम्मीद है इसी तरह नए नए विषयों पर लिख लेखिका समाज को जागरूक करती रहेंगी और समाज के उस हिस्से पर वार करती रहेंगी जो कमजोर हो......शुभकामनाओं के साथ .

1 टिप्पणी:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (19-02-2017) को
"उजड़े चमन को सजा लीजिए" (चर्चा अंक-2595)
पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक