मन में जाने कितनी बातें चलती रहती हैं . कहीं कुछ पढो तो मन करता है कुछ चुहल की जाए लेकिन फिर लगता है छोडो , गीत बनाने के दौर गुजर चुके हैं ....आओ हकीकतों से करो सामना
ये मन , एक बदमाश बच्चा ,
छेड़खानी खुद करता है
खामियाज़ा
या तो दिल या आँखें उठाती हैं
'कहीं दूर जब दिन ढल जाए'
कितना ही गुनगुना लो नगमों को
मन के गीतों के लिए नहीं बने कोई अलंकार
जानते हुए हकीकतें
कलाबाजी खाने के हुनर से अक्सर
मात खा ही जाती हैं हसरतें
और ये , नटखट बच्चा
अपनी गुलाटियों से करके अचंभित
फिर ओढ़कर सो जाता है रजाई
कि
दर्द के रेतीले समन्दरों में डूबने को
दिल की कश्ती में
आँखों के चप्पू जो हैं
बिना मल्लाह के कब कश्तियों को मिला है किनारा भला !
बदमाश बच्चों की बदमाशियाँ
कहने सुनने का विषय भर होती हैं
न कि ओढ़ने या बिछाने का...
3 टिप्पणियां:
आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि- आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा आज शुक्रवार (02-12-2016) के चर्चा मंच "
सुखद भविष्य की प्रतीक्षा में दुःखद वर्तमान (चर्चा अंक-2544)
" (चर्चा अंक-2542) पर भी होगी!
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत खूब।
man aur dil men kya fark hai vandana ji ?
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