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शनिवार, 20 अगस्त 2016

खरोंचों के इतिहास

ज़िन्दगी की बालकनी से देखती हूँ अक्सर
हर चेहरे पर ठहरा अतीत का चक्कर

ये चेहरे पर खिंची गहरी रेखाएं गवाह हैं
एक सिमटे दुबके भयभीत जीवन की

ज़िन्दगी के पार ये सब कुछ है
मगर नहीं है तो बस 'ज़िन्दगी' ही

मज़ा तब था जब याद रहता
एक खुशगवार मौसम आखिरी साँस पर भी
होती तसल्ली
जी लिए ज़िन्दगी जी भर के

खरोंचों के कोई इतिहास नहीं हुआ करते
रुदाली का तमगा यूँ ही नहीं मिला तुझे ... ए ज़िन्दगी 

3 टिप्‍पणियां:

विरम सिंह ने कहा…

आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" रविवार 21 अगस्त 2016 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!

Onkar ने कहा…

बढ़िया प्रस्तुति

Pradeep Kumar ने कहा…

bahut khoob