कि 
सुलग रही हैं आजकल 
खामोशियाँ मेरी 
और 
जलने के निशान ढूँढ रहे हैं 
जिस्म मेरा 
जाने क्यूँ  
रूह की खराश से 
बेदम हुआ सीना मेरा 
कि 
बंदगी का ये आगाज़ था न अंजाम 
फिर भी 
गुनहगार है कोई नाखुदा मेरा 
सोचती हूँ यूँ ही कभी कभी ...
सोचती हूँ यूँ ही कभी कभी ...
4 टिप्पणियां:
जाने क्यूँ
रूह की खराश से
बेदम हुआ सीना मेरा
... बहुत खूब!
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" सोमवार 14 दिसम्बर 2015 को लिंक की जाएगी............... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
बहुत सुन्दर
हृदयस्पर्शी रचनी
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