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बुधवार, 2 दिसंबर 2015

यूँ ही तन्हा तन्हा

गुजर गयीं मेरे अन्दर
जाने कितनी सदियाँ
यूँ ही तन्हा तन्हा

जाने कौन सी तलाश है
जो न तुझ तक पहुँचती है
और न ही मुझ तक

कि आओ
बेखबर शहरों तक चलें दोनों
यूँ ही तन्हा तन्हा
बनकर डोम अपने अपने कब्रिस्तान के

यूँ के क्या कहूँ इसे
इंसानी नियति या फिर ... ?

4 टिप्‍पणियां:

डॉ. दिलबागसिंह विर्क ने कहा…

आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 3 - 12 - 2015 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2179 में दिया जाएगा
धन्यवाद

JEEWANTIPS ने कहा…

सुन्दर व सार्थक रचना प्रस्तुतिकरण के लिए आभार..
मेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका इंतजार....

Unknown ने कहा…

Supabbb

Onkar ने कहा…

बहुत सुन्दर