हो जाती हूँ कभी कभी बेहद परेशां
जब भी बेटी कहीं जाने को कहती है
और मेरी आँखों के आगे
एक विशालकाय मुखाकृति आ खड़ी होती है
जिसका कोई नाम नहीं , पहचान नहीं , आकृति नहीं
लेकिन फिर भी उसकी उपस्थिति
मेरी भयाक्रांत आँखों में दर्ज होती है
जबकि बेटे द्वारा किये गए इसी प्रश्न पर
मैं निश्चिन्त होती हूँ
उसके आँखों में उठे , ठहरे
अनगिनत प्रश्नों से
घायल होती मैं
अक्सर अनुत्तरित हो जाती हूँ
नज़र नहीं मिला पाती
जवाब नहीं दे पाती
बेटी और बेटे में फर्क न करने वाली मैं
बराबरी का परचम लहराने वाली मैं
उस वक्त हो जाती हूँ
निसहाय , असहाय , उदास , परेशां , हताश
एक भयावह समय में जीती मैं
आने वाली पीढ़ी के हाथ में
सुकून के पल संजो नहीं पाती
फिर काहे का खुद को
स्त्री सरोकारों का हितैषी समझती हूँ
कहीं महज ढकोसला तो नहीं ये
या मेरा कोरा भ्रम भर है
तमाम स्त्री विमर्श
जानते हुए ये सत्य
कि
जंगल में राज शेर का ही हुआ करता है
विरोधाभासी मैं हूँ , मेरी सोच है या इस दुनिया का यही है असली चेहरा
जो मुझे अक्सर डराता है
नींद मेरी उड़ाता है
और यही प्रश्न उठाता है
आखिर क्यों दोनों के लिए नहीं है ये संसार समान ?
हूँ इसी पसोपेश में ............
समय की रेत में जाने कौन सा बालू मिला है चाहूँ तो भी अलग नहीं कर पाती
क्या होगा संभव कभी जब समय के दर्पण में छलावों का दीदार न हो
और कह सकूं सुकूँ से मैं
बिना किसी प्रतिबन्ध के
जा बेटी जा ..........जी ले अपनी ज़िन्दगी ?
11 टिप्पणियां:
सही लिखा है वंदु दी ..आज के हालात देखकर कैसे एक मां अपनी बेटी को ये कह सकती है |
हार्दिक मंगलकामनाओं के आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा कल बुधवार (08-04-2015) को "सहमा हुआ समाज" { चर्चा - 1941 } पर भी होगी!
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
यही सत्य है |उम्दा रचना |
यही सत्य है |उम्दा रचना |
एक ऐसा प्रशन है समाज से जिसका कोई उत्तर नहीं इस सभी समाज के पास ... हालात बदलने की तस्वीर भी नहीं नज़र आती ...
Vandna gupta जी कटु सत्य जिसका सामना हर बेटी की माँ को करना पड़ता है
आज अभी संभव है बस थोड़ी सी हिमत चाहिए। बस हौसला चाहिए जो धर्म समाज परंपराओं की गलत व्याख्या दे दे कर शेर का राज कायम रहे इसका प्रयास करते है उन्हें ठोकर मारने की । वे बहेलिया है स्वादिष्ट दाना डालते है खुबसूरत जाल बिछाते है ।
सटीक प्रस्तुति
Behtareen panktiya.
एक ऐसा प्रश्न जो ज्यादातर अनुत्तरित ही रह जाता है एक दूसरे पर दोषारोपण और अंत में स्त्रियाऔर लड़कियां ही दोषी ठहराई जाती है
निरुत्तर हैं सब न जाने वो समय कब आएगा जब बेटों की तरह बेटियों के बाहर जाने पर एक माँ वैसे ही निश्चिन्त रह पाएगी जैसे बेटे के जाने पर रहती है। लोग नारी सशक्तिकरण की बातें करते हैं कहते हैं स्त्रियों की दशा में सुधर आ गया है। सच तो है कि मानसिकताएँ तो आज भी कई जगह रूढ़िवादिता और असुरक्षा की भावनाओं को बल देती ही नज़र आती हैं। सुन्दर प्रस्तुति आदरणीया।
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