अपने अन्दर झाँकती एक लडकी
से मुखातिब हूँ मैं
जो रोज उम्र से आगे मुझे
मिला करती है
जिरह के मोड मुडा करती
है
देखती है समय की आँखों
से परे एक हिंडोला
जिस पर पींग भरने को मेरा
हाथ पकडती है
सोच में हूँ
चलूँ संग संग उसके
या छुडाकर हाथ
रंगूँ अपने रंग उसे
मन की दहलीज से विदा करूँ
या उम्र के स्पर्श से परे
शगुन का तिलक करूँ
क्या यूँ ही बेवजह या वजह
भी वजह ढूँढ रही है
और अन्दर झाँकती लडकी से
कह रही है
शहर अब शहर नहीं रहे
बदल चुकी है आबोहवा
जाओ कोई और दरवाज़ा खटखटाओ
कि यहाँ अब नहीं ठहरती
है कोई हवा
कराकर इल्म शहर के बदले
मिज़ाज़ का
फिर भी
अपने अन्दर झाँकती एक लडकी
से मुखातिब हूँ मैं ……जाने क्यों?
6 टिप्पणियां:
सोच में हूँ
चलूँ संग संग उसके
या छुडाकर हाथ
रंगूँ अपने रंग उसे
मन की दहलीज से विदा करूँ
या उम्र के स्पर्श से परे शगुन का तिलक करूँ
..मर्मस्पर्शी पंक्तियाँ ..
सोच में हूँ
चलूँ संग संग उसके
या छुडाकर हाथ
रंगूँ अपने रंग उसे
मन की दहलीज से विदा करूँ
या उम्र के स्पर्श से परे शगुन का तिलक करूँ
..मर्मस्पर्शी पंक्तियाँ ..
बहुत भावमयी प्रस्तुति....
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (09-11-2014) को "स्थापना दिवस उत्तराखण्ड का इतिहास" (चर्चा मंच-1792) पर भी होगी।
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चर्चा मंच के सभी पाठकों को
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत ही बेहतरीन और प्रशंसनीय प्रस्तुति.... आभार।
सुन्दर...!!!
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