बेटी
क्या कहूँ
जाने उम्र का तकाज़ा है
या मेरी आकांक्षाएं बढ़ गयी हैं
नहीं जानती
जबकि जानती हूँ
तुम्हारी प्रतिबद्धता
तुम्हारा समर्पण
परिवार के प्रति
ये भी जानती हूँ
तुम उम्र के जिस दौर में हो
वहाँ अठखेलियाँ करती होंगी
तुम्हारी भी चाहतें
वहाँ आकार लेती होंगी
तुम्हारी भी उमंगें
अपने मन से सब कुछ करने की
बिना रोक टोक जीने की
अपनी प्रतिबद्धताओं के साथ
जानती हूँ
तुम हो पूरी तरह समर्पित परिवार को
फिर भी जाने क्यों
कभी कभी हो जाती हूँ निराश
जाने क्यूँ चिड़चिड़ाहट पाँव जमा
कर देती है घाव मेरी सोच के वृक्ष पर
और उतार देती हूँ अपना सारा कलुष
तुम पर , तुम्हारे रहन सहन पर
ये हर वक्त तुम्हारा व्हाट्स अप या फेसबुक
या दोस्तों के साथ चैटिंग पर लगा रहना
कर देता है विचलित मेरी मनोदशा को
आखिर कब समझोगी तुम अपनी जिम्मेदारी
जबकि जानती हूँ
किसी भी तरह पीछे नहीं हटतीं तुम
अपनी जिम्मेदारियों से
नहीं पीछे हटतीं तुम अपने कर्तव्यों से
मगर फिर भी
एक फितूर की लहर
खींच देती है विषम रेखा
तुम्हारे और मेरे बीच
और फूट पड़ता है मेरा लावा सारा
बेवजह ही तुम पर
जबकि नहीं चाहती ऐसा करना
फिर भी हो जाता है
सब कुछ जानते समझते भी
अजब दोराहे से गुजरती हूँ
एक तरफ समय के साथ
तुम्हें चलते देख
गौरान्वित महसूस करती हूँ
दूसरी तरफ खुद को
जब असहाय या अकेला महसूस करती हूँ
तब कर देती हूँ विषवमन बिना सोचे समझे
शायद उम्र के इस मोड़ पर
जहाँ एक तरफ मीनोपॉज
दस्तक देता हो
दूसरी तरफ शारीरिक स्तर गिर रहा हो
संभव है गुजरती हो हर माँ इस दौर से
लगता है कभी कभी ऐसा
इसलिये आत्म ग्लानि से ग्रसित हो जाती हूँ
जब जानते समझते भी
खुद पर काबू नहीं कर पाती हूँ
और सोच में पड़ जाती हूँ
क्या होगा कल
जब तुम चली जाओगी
और दूसरे घर की बेटी को
अपनी बेटी बना जब लाऊँगी
कैसे खुद पर काबू कर पाऊँगी
क्या वो समझ सकेगी मेरी मनोदशा
जैसे तुम समझती हो
और मेरे मानसिक और शारीरिक
परिवर्तन को समझ
मेरे कहे पर तवज्जो न दे
हँस कर हवा में उडा देती हो
जबकि जानती हूँ
जरूरी है परिवर्तन
मेरे स्वयं में
अपनी सोच में , अपने व्यवहार में
अपनी बोलचाल में
और यही सोच अंदर ही अंदर
पैदा कर रही है एक भय
साथ ही दे रही है एक सन्देश भी
कि शायद
यही तो नहीं वो वजह होती
जिसकी वजह से
सास बहू में नहीं पटती
दोनों एक दूसरे को नहीं समझतीं
क्योंकि
न सास के लिए बहू बेटी होती है
और न ही बहू के लिए सास माँ
जबकि उमंगों के रथ पर आरूढ़
नयी नवेली दुल्हन के भी तो
कुछ अरमान होते हैं
ये मैं जानती हूँ
क्योंकि गुजरी हूँ उस दौर से भी
मगर फिर भी यही भय सताता है
कैसे खरी उतरूँगी रिश्ते की कसौटी पर
जब तुम्हारे संग ही नहीं
खरी उतर पाती
जबकि जड़ सोच की नहीं हूँ मैं
ये तुम जानती हो
न ही परम्पराओं की दुहाई दे
कुछ मनवाने की इच्छा रखती हूँ
बल्कि खुद तोड़ देती हूँ
हर उस बेड़ी को
जो राह में रुकावट बनती दिखती है
आज की आधुनिक नारी का
खुद में दिग्दर्शन करती हूँ
फिर भी
जाने कैसी जद्दोजहद है ये
मेरी मुझसे ही
सब कुछ जानते समझते भी
अँधेरी गलियों में
घसीटे जा रही है
क्या उम्र के तकाज़े यूँ बेबस किया करते हैं
सोच के स्तर को भी
जिसे धरती मिलती है न आस्मां ……
जानने को प्रयासरत है एक माँ , एक नारी
उम्र की बढ़ती दहलीज पर प्रश्न दस्तक दे रहा है ………
क्यूंकि
सास भी कभी बहू थी
क्यूंकि
माँ भी कभी बेटी थी
ये जानते हुए भी
फिर कैसे विडंबनाओं के त्रिशूल
निकल आते हैं पहाड़ों के शिखरों पर
सोच की कंदराओं को भेदते हुए
अपेक्षा और उपेक्षा की
कशमकश के इस दौर में
झूलती मेरी संवेदनाएं
खरोंच रहीं हैं प्रतिपल
इसलिए खुद से मुखातिब होने को
खुद को अपनी कसौटी पर कसने को
लिख रही हूँ ये मेरा खत मेरे नाम
और
प्रश्न उम्र की चौखट पर मुँह बाए उत्तर की प्रतीक्षा में खड़ा है........आदिकाल से !!!
5 टिप्पणियां:
http://bulletinofblog.blogspot.in/2014/05/blog-post_21.html
स्त्री के सतीत्व और उसके द्वारा जीवन का सृजन
दुनियां को जिंदा रखे है धड़कनों को थामे है--
आपकी चिंता जायज है
बेटी और माँ के उम्र के अंतर को समझाती
संवेदनशील कविता-----
उत्कृष्ट प्रस्तुति
बधाई ----
आग्रह है---
नीम कड़वी ही भली-----
Thanks... :)
संयोग ही है ये… The timing... मेरी मम्मी होती जा रही हैं ऐसी… और जाने कैसे नाराज़ रहने लगी हूँ मैं भी… मम्मी पहले जैसी कूल और करीब नहीं रही मेरे और दुनिया की सोच ही ज़्यादा महत्वपूर्ण हो गयी उनके लिये भी… ये सोच सोच कर कई लीटर आँसू बहा दिये मैंने अकेले में… अकेलेपन में… जाने मैं ऐसी कब से हो गयी! पर मैं ऐसी नहीं हूँ और मेरी मम्मा भी उतनी ही मासूम, प्यारी, समझदार, कूल और स्ट्राँग हैं… कैसे सोचने लगी थी मैं और क्यों… सबसे अच्छी तरह जानती हूँ मैं तो उन्हें…
Thank you so much for helping me.. सही समय पर सही जगह (ब्लॉग) पर पहुँची मैं!
आज के इस परिवेश में एक माँ के मन की चिंता लिए सार्थक भाव ..........
@Rashmi Swaroop रश्मि फिर तो ये मेरी सबसे बडी उपलब्धि हो गयी यदि तुम ये बात समझ गयी हो और मैं उम्मीद करती हूँ कि तुम ने केवल अपनी मम्मी का बल्कि कल जब तुम्हारी शादी हो जायेगी तो उसके बाद अपनी सास की भी इस तकलीफ़ को उसी तरह समझोगी और उनके साथ प्रेम के साथ निभाओगी ………किसी भी लेखक का लेखन तभी सफ़ल है जब उसका कहीं असर हो जाए , किसी की ज़िन्दगी मे सकारात्मक बदलाव आ जायें और आज मुझे दिली खुशी हो रही है ………बेटा ख्याल रखना अपना और अपने अपनों का भी बहुत मुश्किल से मिलते हैं अपने संजो लो रिश्तों को ।
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