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सोमवार, 23 दिसंबर 2013

बालार्क ………सातवीं किरण



दोस्तों 

(बालार्क की छटी किरण मैं खुद हूँ तो मैं अपने बारे में तो  स्वयं कुछ कह नहीं सकती।  अब यदि किसी को हमारा लिखा पसंद आएगा और  यदि हमे इस लायक समझा गया  तभी कोई कुछ कहेगा  तभी आपको उसके बारे में पता चल सकता है।  )

चलिए मैं आपको मिलवाती हूँ बालार्क की सातवीं किरण अशोक आंद्रे जी की कविताओं से :

ज़िन्दगी के साथ भी और ज़िन्दगी के बाद भी एक दिशा एक दशा हमें हर पल सचेत करती है , हमारे अंतस में कोयल सी कुहुकती है मगर समझ के परिदृश्य में छेद होने के कारण स्वप्नवत ही लगता है और ज़िन्दगी की शाम में एक दस्तक देता प्रतीत होता है , आगत विगत के सारे गणित उस पल उसकी सोच पर हावी हो उसे उससे मिलवाते हैं मगर कहने या सुनने की स्थिति से परे दृष्टा बन वो सिर्फ देख सकता है मगर किसी से कह नहीं सकता।  मानव की त्रासदी का सम्पूर्ण रेखाचित्र खींच दिया है कवि ने "जलजला " के माध्यम से फिर चाहे जीते ही अवलोकन हो या अर्ध चेतनावस्था हो , जिसे हम देख कर भी देखना नहीं चाहते , चेतना की उच्चावस्था में उपजा अर्ध चेतनावस्था की प्रतिक्रिया है ये कविता कुछ इस तरह :


" और ऐसे में सोचो / कल सूर्य ही ना निकले / लेकिन उसे हल्का सा होश यह सब / देखने / समझने के लिए / तब कैसा लगेगा ? / क्योंकि समय तो होगा नहीं / किसी की गति को पकड़ने के लिए "

" बादलों की " कविता के माध्यम से प्रकृति से तादात्म्य बनाता कवि ह्रदय जब प्रश्न करता है खुद से तो उत्तर भी अंदर से ही आता है जो कवि के बालसुलभ मन को सुकून की स्थिति में पहुँचा देता है , जहाँ जीवन का राग है , प्रकृति में बिखरा सतत आनंद है फिर भी कहीं कोई अवसाद नहीं और यही उल्लास कवि में निराशा में आशा के बीजों को बो एक बार फिर उत्साह का संचार करता है अर्थात प्रकृति के कण कण से चाहो तो जीवन जीने के सूत्र ग्रहण किये जा सकते हैं बस जरूरत है तो उस नज़र की , उस सोच की। 

"अकेला खड़ा मैं " जीवन दर्शन की संपूर्ण व्याख्या है , एक खोज है खुद की खुद तक , एक प्रश्न सत्य से सम्मुख होने का , आखिर क्या है उस पार जिससे अनभिज्ञता है और एक धरातल पर खड़ा अक्स खुद के होने की स्वीकार्यता के साथ उसके बाद की स्थिति का अवलोकन करता है और जीवन के होने और उसके बाद न होने के रहस्य को सुलझाने की कोशिश है ये कविता :

" हे ईश्वर / इसीलिए मुझे उस बीज के पनपने का रहस्य जानना है / आखिर कैसे एक दिन बिखर कर मौन हो जाते हैं वे ?"

"लेकिन बिल्ली तो " के माध्यम से कवि ने इंसानी सोच की जड़ प्रकृति पर प्रहार किया है।  कैसे बिल्ली के रास्ता काटने पर भय और शंका के बादल अपना विस्तार पाते हैं और एक नए धरातल का निर्माण कर देते हैं जो होने और ना होने की अवस्थाओं से परे होता है मगर शंका और अन्धविश्वास की जड़ें इतनी गहरी होती हैं कि न चाहते हुए भी विस्तार पाती हैं और जकड लेती हैं अपने बाहुपाश में इस तरह कि न चाहते हुए भी विश्वास के जुगनू टिमटिमाने लगते हैं जिन्हे दूर करने की कोशिश तो की जाती है मगर तब भी कहीं न कहीं भय की एक शाख सोच से लिपटी दंश देती रहती है ये कहते हुए :

"क्योंकि  चेहरे तो लौटते रहेंगे इसी तरह की शंकाओं के लिए / ताकि उसकी अनंत यात्रों के पुल बनाये जा सकें / ताकि उसकी प्राकृतिक सोच के साथ / जहाँ सब कुछ पहले से तय होता है / उसकी पूर्णता के साथ प्रस्तुत हो सके / लेकिन बिल्ली तो फिर भी......."


" फुनगियों पर लटका अहसास " आज के कंक्रीट के जंगल में गुम होते अहसासों की विवशता का चित्रण है , कैसे वक्त के साथ विश्वास की धज्जियाँ इस प्रकार उड़ जाती हैं कि चाहकर भी किसी पर विश्वास किया नहीं जा सकता और विश्वास किये बिना जिया भी नहीं जा सकता , एक अजब भयाक्रांत माहौल को जन्म देते हम लोगों को सोचना होगा , जागना होगा एक बार फिर से विश्वास की ड्योढ़ी पर आसन जमाना होगा नहीं एक वक्त ऐसा आ जाएगा हम खुद को अकेला पाएंगे और अकेलेपन की जोंक धीरे धीरे हमारा सारा लहू चूस लेगी :

"इसी प्रक्रिया से गुजरता हुआ वह / अपने ही विश्वासों की परतों को / कुतरने लगता है / सयाने चूहे की तरह / और उम्र की घिसी कमीजों को / परचम की तरह लहराकर / ऊँचाई और गहराई के मध्य / फुनगियों पर लटके अहसासों को / नोचने लगता है "

सभी कविताएँ कवि की सोच , उसकी गहराई , उसकी संवेदनशीलता  को दर्शाती हैं जो कवी की सोच की ऊँचाई को दर्शाता है , जहाँ कवि निरपेक्ष सा होकर सारे परिदृश्यों को देखता है , महसूसता है और भी भावों की माला गूंथता है , यूं ही नहीं ये गहराइयाँ उतरा करती हैं समंदर के सीने में , एक खामोश ठहरे और शांत सागर में कितनी हलचल है , कितनी वेदना है , कितना समन्वयन है ये तभी जाना जा सकता है जब उसमे उतरा जाये , कुछ देर उसमे ठहरा जाए और फिर उसका मनन किया जाए।  एक बेहद उम्दा  रचनाओं से लबरेज कविता संग्रह में कवि की कविताओं ने चार चाँद लगा दिए हैं जिसे किसी समीक्षा की जरूरत नहीं , उसकी कवितायेँ ही उसकी पहचान हैं।  

मिलती हूँ अगले कवि के साथ जल्दी ही ……… 

3 टिप्‍पणियां:

दिगम्बर नासवा ने कहा…

अशोक आंद्रे जी संवेदनशील कवि हैं और उनकी रचनाएं ये साबित करती हैं ... अच्छी श्रंखला चल रही है ...

Rajesh Kumari ने कहा…

आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टि की चर्चा कल मंगलवार २४/१२/१३ को राजेश कुमारी द्वारा चर्चा मंच पर की जायेगी,आपका वहाँ हार्दिक स्वागत है।

बेनामी ने कहा…

bahut badiya... keep writing..
Please visit my site and share your views... Thanks