बालार्क की चौथी किरण हैं सरस दरबारी जी :
एक ज़िन्दगी और उसकी धूप छाँव कैसे करवटें बदलती है सभी वाकिफ होते हैं। लेकिन ज़िन्दगी में बहुत कुछ जो पीछे छूटा करता है वो हमेशा साथ साथ चलता है , वो हमेशा एक दखल दिया करता है ख्वाबों की दरगाह में तब समेटना चाहते है तो यूँ लगता है मानो कोई धूप को मुट्ठी में बंद करना चाहता हो। कहीं बचपन के गलियारों में जब अल्हड़ता कुलांचे भरा करती थी तब भी एक सुखद अनुभूति दिया करती थी धूप की तपिश और आज वो ही एक सवाल बन जब खड़ी हो जाती है तो क्यों सहम जाती हैं हमारी आज़ादियाँ , क्यों खुलकर सांस नहीं ले पाते , क्यों घबराये सिमटे से अपनी खोलियों में दुबक जाते हैं क्यों नहीं कोशिश करते "आज़ादी की धूप" में कुछ पल बिताने की ………उबरना होगा अब इस मनोदशा से यही तो सन्देश दे रही है ये कविता :
"आओ , खुलकर फिर जी ले हम / सूरज को मुट्ठी में ले लें / आगे बढ़कर उस धूप के हम / तेवर से भी बाजी ले लें "
सिर्फ दो कविताएं "आज़ादी की धूप " और " लहरे " मगर समस्त भावों का समावेश कर दिया कवयित्री ने।
लहरें के माध्यम से चार दृष्टिकोणों को छुआ है मानो ज़िन्दगी के हर परिदृश्य से पर्दा ही हटा दिया हो , मानो चुनौतियों के सागर में गोते लगाने पर कुछ ना मिलने पर उपजी हताशा अपने संस्कार पर खीज रही हो , मानो दो प्रेमियों का युगल स्वर मौन के गह्वर से बाहर निकल मुखर होने को प्रयासरत हो , मानो ज़िन्दगी की भयावहता जब नकाब ओढ़ कर दस्तक देती हो तब किसी लोकोक्ति का स्वर रक्तरंजित हुआ हो। कुछ ऐसे ही भावों को समेटे जब ज़िन्दगी के सागर में अनजान लहरे दस्तक देती हैं तो कहीं वो खुद नेस्तनाबूद होती हैं तो कहीं अभिशापित सी सिसकती हैं तो कहीं सपनों के महलों में ज़िद के आशियाने ढूंढती हैं सिर्फ अपने अस्तित्व को बचाने और पूर्ण रूपेण जीने की जद्दोजहद में। मगर लहर का जीवन ही क्या और कितना सा मगर उसमे भी एक पूरा जीवन जीने की चाहत में किनारों से टकराती हैं , सागर के सीने पर सर पटकती हैं मगर अपने सपनों , अपनी हसरतों को पाने की ज़िद नहीं छोड़तीं फिर चाहे उसके लिए खुद के अस्तित्व को ही क्यों ना मिटाना पड़े। यही तो इंसानी जिजीविषा है जो उसे ज़िन्दगी को हर हाल में जीने को प्रेरित करती है जिसकी बानगी इन कुछ पंक्तियों में देखिये :
" कभी शोर सुना है लहरों का ..../दो छोटी छोटी लहरें -/हाथों में हाथ डाले -/ज्यूँ ही सागर से दूर जाने की /कोशिश करती हैं-/गरजती हुयी बड़ी लहरें / उनका पीछा करती हुयी / दौड़ी आती हैं / और उन्हें नेस्तनाबूत कर / लौट जाती हैं / बस किनारे पर रह जाते हैं / सपने/ख्वाहिशें/और ज़िद / साथ रहने की / फेन की शक्ल में "
आज जो हो रहा है जिससे आज हर अभिभावक डर रहा है , सहमा हुआ है , सो नहीं पाता , चिंतामुक्त हो नहीं पाता उस वातावरण की भयावहता उसे हर पल कैसे डंसती है और उसके परिणाम कैसे कलंकित करते हैं उसका चित्रण लहरों के माध्यम से करना आसान नहीं था यूँ लगा जैसे कवयित्री सागर के किनारे बैठी हो और हर आती जाती लहर उससे बतिया रही हो जीवन की विभिन्न विभीषिकाओं को जैसे आईना दिखा रही हो तभी तो जो आज हर माँ बाप की चिंता है उसका इतना सटीक चित्रण कर पायी हैं :
"कभी कभी लहरें -/अल्हड़ युवतियों सी /एक स्वछन्द वातावरण में /विचरने निकल पड़तीं हैं ---/घर से दूर -/एल अनजान छोर पर !/तभी बड़ी लहरें /माता पिता की चिंताएं -/पुकारती हुई /बढ़ती आती हैं .../देखना बच्चों संभलकर /यह दुनिया बहुत बुरी है /कहीं खो न जाना /अपना ख़याल रखना -/लगभग चीखती हुई सी /वह बड़ी लहर उनके पीछे पीछे भागती है .../लेकिन तब तक -/किनारे की रेत -/सोख चुकी होती है उन्हें -/बस रह जाते हैं कुछ फेनिल अवशेष /यादें बन ...../आंसू बन ....../तथाकथित कलंक बन ....!!!!! "
यूं ही तो नहीं बना होगा ये रिश्ता लहरों से , कोई तो गीत गुनगुनाया होगा लहरों ने ,यूँ ही नहीं अहसास बुलंद हुए होंगे।यूं ही नहीं दर्द के छींटे उड़े होंगे क्योंकि कुछ भी कहने से पहले खुद वो हो जाना पड़ता है , उस अहसास से गुजरना पड़ता है तभी भावनाओं का सागर उमड़ा करता है और कवयित्री उन भावों को पकड़ने और जीवन दर्शन बयाँ करने में सक्षम रही हैं इसलिए बधाई की पात्र हैं।
अगली कड़ी में मिलते हैं एक नए कवि से ………।
10 टिप्पणियां:
सरसजी का लिखा पढ़ती रही हूँ। भावों की गूढ़ अभिव्यक्ति में माहिर हैं।
बहुत शुभकामनायें !
सार्थक एवं सराहनीये
बहुत ही सुन्दर ....!
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज मंगलवार (03-12-2013) की 1450वीं में मंगलवारीय चर्चा --१४५० -घर की इज्जत बेंच,किसी के घर का पानी भरते हैं में "मयंक का कोना" पर भी होगी!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
एक सुन्दर वर्णन , बालार्क क्या को काव्य संग्रह है ?
बहुत सुन्दर पुस्तक समीक्षा प्रस्तुति ...
वाह ... सरस जी की संवेदनशील रचनाएं और आपकी लाजवाब समीक्षा ... दम है दोनों में ...
बहुत अलग सी कविताएँ और सार्थक समीक्षा
बहुत उत्कृष्ट समीक्षा..
सुन्दर और अलग अंदाज़
नज़र नवाज़ कि नज़ारा बदल न जाये कहीं
कि चांदनी बालार्क की किरणों में मचल जाये न कहीं
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