सदियों से औरत अपना घर ढूंढ रही है
उसे अपना घर मिलता ही नही
पिता के घर किसी की अमानत थी
उसके सर पर इक जिम्मेदारी थी
हर इच्छा को ये कह टाल दिया
अपने घर जाकर पूरी करना
पति के घर को अपनाया
उस घर को अपना समझ
प्यार और त्याग के बीजों को बोया
खून पसीने से उस बाग़ को सींचा
हर आह,हर दर्द को सहकर भी
कभी उफ़ न किया जिसने
उस पे ये इल्जाम मिला
ये घर तो तुम्हारा है ही नही
क्या पिता के घर पर देखा
वो सब जो यहाँ तुम्हें मिलता है
यहाँ हुक्म पति का ही चलेगा
इच्छा उसकी ही मानी जायेगी
पत्नी तो ऐसी वस्तु है
जो जरूरत पर काम आएगी
उसकी इच्छा उसकी भावना से
हमें क्या लेना देना है
वो तो इक कठपुतली है
डोर हिलाने पर ही चलना है
ऐसे में औरत क्या करे
कहाँ ढूंढें , कहाँ खोजे
अपने घर का पता पूछे
सारी उम्र अपनी हर
हर तमन्ना की
बलि देते देते भी
ख़ुद को स्वाहा करते करते भी
कभी न अपना घर बना सकी
सबको जिसने अपनाया
उसको न कोई अपना सका
आज भी औरत
अपना घर ढूंढ रही है
मगर शायद ......................
औरत का कोई घर होता ही नही
औरत का कोई घर होता ही नही
15 टिप्पणियां:
main to kahata hun ke har ghar aurat se hai aur har ghar aurat ka hi hai.... bahot hi sunrdar kavita... dhero badhai kubul karen...
arsh
अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी.................
सुंदर कविता।
वंदना जी
नमस्कार
"औरत का घर " लिख कर आपने जो आम औरत का दर्द समेटा है , कुछ लोगों के नज़रिए से ठीक हो सकता है, लेकिन मेरा मानना है कि जहाँ औरत को त्याग और तपस्या की मूरत माना जाता है, जहाँ कहा गया हो कि यस्य नारी पूज्यन्ते तत्र रमन्ते देवता. मैं यह भी कहना चाहूँगा कि, एक बड़ा वर्ग भले ही इस बात को सब के सामने स्वीकार भले ही न करे ,किन्तु अधिकाँश लोग ये बात अच्छी तरह से जानते हैं कि औरत घर-परिवार का सबसे अहम् स्तम्भ होता है. श्रेय भले ही पुरुष लेता रहे लेकिन औरत के वह कभी सफल हो ही नहीं सकता .
वंदना जी पुरुष का तो एक ही घर होता है पर औरत के दो-दो घर होते हैं, और दोनों घरों में उसे अपनापन मिलता है.
वंदना जी , मैं आपका भी आदर करता हूँ और पूरी नारी समाज का, बस नज़रिए और अपवाद को छोड़ दें तो पुरुष प्रधान समाज होते हुए भी आज जो वर्चस्व नारी का है, वह कम नहीं है.
यह केवल मेरी मान्यता है, मैं अपनी भावना किसी पर थोपना नहीं चाहता .
आपकी कविता भावनात्मक और हृदयस्पर्शी है, आपने जो प्रश्न उठाया है वह सहज है
आपका
विजय तिवारी ' किसलय '
किसलय जी की टिप्पणी से ताल्लुक रख रहा हूं.
सुन्दर प्रविष्टि . धन्यवाद.
vandana ji aapki kavita bahut bhavnapurn hai. sunder hai.
main kislay ji se aur arsh ji se sahmat hun. vichar apne apne.
वंदना जी बहुत अच्छी रचना है इसके लिए बधाई।
नारी की सदियों-सदियों से,
यही कहानी है।
सहना-सहना, सहते रहना,
यही निशानी है।।
वारिस देती जिस घर को,
वो ही कहते घर मेरा है।
तुम क्या मैके से लाई हो?
जर-जेवर क्या तेरा है ?
रचना अच्छी है,
पर क्या समाधान संभव है,
इस बारे में अधिक विचार
करने की आवश्यकता है।
औरत के जीवन की एक बहुत बड़ी त्रासदी को बहुत सही शब्द दिए हैं आपने...वाह..
लिखते रहिये...ऐसे ही...शुभकामनाएं.
नीरज
आपने तो औरत की कहानी ही लिख दी। और आपने लिखा भी गजब है। आपके लेखन से बहुत कुछ सीखने को भी मिल जाता है। और हाँ रही हल की बात तो जी हम कहाँ बता पाऐगे इसका हल। पर काश कि उसके दो दो घर होते। वैसे कुछ लडकियों को मिल भी जाते है दो घर। पर कुछ ही...। ऐसे ही लिखते रहिए।
वंदनाजी,
आपकी कविता उन नैतिकतवादियों के सामने एक सवाल है जो यह कहते नहीं थकते की औरत ही घर बनती है और बिन घरनी घर भूत का डेरा. मुझे तो अक्सर लगता है कि घर में रहानेवालीहर महिला चौबीस घंटों में अलग-अलग रूप अख्तियार करने के लिए मजबूर होना पड़ता है. एक अदद नाम के लिए, एक मुकम्मल वजूद के लिए वह ज़िन्दगी भर समझौते-दर-समझौते कराती जाती है, लेकिन न तो उसे कोई नाम मिलता है, न कोई पहचान. क्या यह अजीब और निहायत भोंडा नहीं लगता कि जब कहा जाता है कि ज़माना बदल गया है; कि आज की औरत पुरुषों के बराबर हो गयी हैं? सच तो यही है कि न उनका कल था, न आज है. लेकिन कल उनका हो सकता है, बशर्ते वे एकसाथ और लगातार सवाल पूछतीं रहें. राह सवालों के बीच से ही निकलेगी.
सुन्दर कविता के लिए बधाइयाँ.
वीरेन्द्र
vandana ji , kavita bahut gahare khyalaat liye hue hai , aur auraat ke jeevan ki ek soch bhi jaheer karti hai ..
badhai
take care
regards
vijay
औरत का घर...वाकई होता ही नहीं...या कह लीजिए बस तब तक होता है जब तक वो सवाल न करे ... जो उस से कहा जा रहा है वो उसे स्वीकार कर ले ..बिना तर्क के ..
बहुत अच्छा लिखा है आपने.
सादर
Aurat ka ghar to tabhi ho sakta hai, maana ja sakta hai jab uspar uska haq ho, jab ghar uske naam par ho.
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