सफ़र 30 वर्षों का पल में सिमट गया
दामन ज़िन्दगी का खुशियों से भर गया
कि गुजर चुकी उम्र शिकवो शिकायतों की
कि बदल चुकी इबारत दिल की इनायतों की
ये दौर है कोई और
वो दौर था कोई और
अब
नयी है वर्णमाला
नए हैं अक्षर
और नया है व्याकरण रिश्ते का
जहाँ
कोई कोमा नहीं
कोई अर्ध विराम नहीं
अब पूर्ण विराम की अवस्था है
जीवन राग अपने सातवें सुर पर गुनगुना रहा है आदिम गीत
कि धरा ने साँस भरी
और आकाश सिमट गया
लम्हा जो अब तक भटका था
उसके पहलू में ठिठक गया
फिर सजदा कौन किसे करे
जब
मैं तुम...हुए हम
कहो तो अब किस देवता की करें इबादत
जब ज़िन्दगी सुर्खरू है हमारी :) :)
पलक झपकते बीत गए 30 वर्ष और पता भी न चला कैसे ज़िन्दगी गुजर जाती है......लगता ही नहीं, जैसे कल की ही बात हो या फिर कोई स्वप्न जिसमें हम चल रहे थे किसी मदहोशी में......
4 टिप्पणियां:
इस मधुर अवसर पर आप दोनों को बधायी हो।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (16-02-2017) को "दिवस बढ़े हैं शीत घटा है" (चर्चा अंक-2882) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
हार्दिक शुभकामनाएं |
सादर |
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, हम भारतियों की अंध श्रद्धा “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
सुन्दर प्रासंगिक रचना. शुभकामनाएँ.
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