हर कश में जो गंध महकेगी
किसी के जिगर की राख होगी
छलनियाँ भी शरमा जाएँ जहाँ
ये ऐसी दिल की शबे बारात होगी
अब और क्या नूर-ए-नज़र करूँ
ना सुबह होगी ना शाम होगी
कह दो रौशनियों से कोई जाकर
अब ना कभी मुलाकात होगी
जानते हो ना
चिलमों की धीमी आँच
कैसे धीमे धीमे ज़हर सी
उतरती है रूह के लिहाफ़ मे
धुओं के छल्लों पर निशान भी नही मिलेंगे
बस तू एक कश लेकर तो देख
दर्द की राखों मे चीखें नही होतीं …………
22 टिप्पणियां:
बाहर की हवा अन्दर भरकर, अपने नशे में..
adbhud vimb.. bahut badhiya
गहन भाव लिए बेहतरीन प्रस्तुति।
क्या कहने....
बार - बार पढ़ने को मन
चाहता है...
बहुत ही बेहतरीन रचना....
..
बहुत सुन्दर
बहुत ही सुन्दर प्रयोगधर्मी कविता बधाई
वाह.....
लाजवाब वंदना जी...
बहुत सुन्दर.
अनु
जितना लम्बा कश - ज़िन्दगी उतने सबक देगी
गहराइयाँ हैं ......अति उत्तम रचना है आपकी!!!!!
क्या बात है वंदना....!!
हर कश में मज़ा ही आता है...
भले ही गला या आंख जले !
वाह... गहरे भाव हैं वंदना जी...
VANDANA JI , AAPKEE LEKHNI TO JADU
JAGAA RAHEE HAI .
VANDANA JI , AAPKEE LEKHNI TO JADU
JAGAA RAHEE HAI .
नये विषय पर अनोखे दृष्टिकोण के साथ सुंदर रचना.
मामला बहुत गंभीर होता जा रहा है.
बेजोड प्रस्तुति.
nice presentation....
Aabhar!
Mere blog pr padhare.
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
लिंक आपका है यहीं, कोई नहीं प्रपंच।।
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा आज रविवार (02-09-2012) के चर्चा मंच पर भी की गयी है!
सूचनार्थ!
सब धुआँ धुआँ ..... बहुत खूबसूरत प्रस्तुति
गहरे भाव ... जीवन भी तो सिगरेट के काश की तरह ही है ... निकल जाने के बाद कुछ नहीं होता धुँआ होने के सिवा ...
wah.....kya likha hai.....
गहरी चेतावनी .अद्भुत अद्भुत बहुत सुन्दर
लाओ ज़रा एक हाथ बढ़ाओ.....हम भी कश लें।
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