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शुक्रवार, 30 मार्च 2012

"मोहन के बापू का हाथ ज़रा तंग है " :))))))))


कभी कभी दुनिया किसी की कैसे बदल जाती है 
इसकी एक दास्ताँ ये अलबेली सुनाती है 
यूँ तो उसका इक नाम भी है
अच्छा खासा बड़ा व्यापार भी है
हाई सोसाइटी में ऊंची शान भी है 
अपनी एक पहचान भी है 
पर कभी कभी किसी मोड़ पर
जब किस्मत पलटी खाती है 
तब छम्मकछल्लो कोई जीवन में आती है  
जिसके रूप सौंदर्य के आगे सारी अक्ल
घुटनों को छोड़ तलवों से भी बाहर निकल जाती है 
और वो सम्मोहन जाल में यूँ फँस जाता है 
फिर परकटे पंछी सा फ़डफ़डाता है 
पर बाहर ना निकल पाता है
ऐसा ही कुछ उसके साथ हुआ
रूप पर ऐसा निसार हुआ
घर बार छोड़ने को तैयार हुआ
जब देखा पगला गया है
तो शिकार तो होना ही था ......सो हो गया
बिना कुछ जाने बूझे 
इस मधुर जाल में खो गया
कुछ साल यूँ ही निकल गए
अब वो काम धंधे में बिजी हुआ 
और उस रूपमती का भी कायापलट हुआ
हाई प्रोफाइल सोसाइटी में जाती थी
पर अक्ल के मामले में मात खा जाती थी
बस रूप और पैसे के घमंड पर इतराती थी
अब किट्टी पार्टी हो या खरीदारी
उसका तकिया कलाम इक बन गया था
जब भी शौपिंग करने जाती या
बाजी कोई हार जाती 
बस एक ही बात थी दोहराती
"मोहन के बापू का हाथ ज़रा तंग है"
वरना ऐसी चीजों की मेरे यहाँ ना कोई कमी है
कभी कोई भिखारी कुछ मांगता था 
तब भी यही वो दोहराती थी
"मोहन के बापू का हाथ ज़रा तंग है"
वरना तुम जैसे भिखारियों की रोज लाइन लगती है
बस चिल्लर ही नहीं मिलती है 
किसी संस्था का उद्घाटन हो या भाषण हो
रूपमती का एक ही नारा था
"मोहन के बापू का हाथ ज़रा तंग है" 
इस नारे ने प्रसिद्धि बहुत दिला दी थी
पर मोहन के बापू की तो वाट लगा दी थी
बेचारा मोहन का बापू अब होश में आया था
मुझसे तो बेहतर फ़ाक्ता  था 
जो कबूतर उडाया करता था 
यहाँ तो इज्जत का कबूतर हर जगह उड़ता है 
पीठ पीछे उसे हर कोई सिर्फ यही कहता है
"मोहन के बापू का हाथ ज़रा तंग है "
इज्ज़त का फालूदा बन गया है 
फिर चाहे वो लाखों का दान दे देता है
पर इस तकिये कलाम से ना मुक्ति पाता है
रूप के जाल में फँसा उसका मन पंछी 
अब बिलबिलाता है 
पर उगल पाता है ना निगल पाता है
सपनों में भी बस यही दिखाई देता है
कानों में भी बस यही सुनाई देता है 
"मोहने के बापू का हाथ ज़रा तंग है"
और मोहन का बापू बस 
अपने हाथ मलता रहता है
और एक ही घोषणा करता है
"मोहन के बापू " के टैग से 
कोई आज़ाद करा दे 
मेरी खोयी इज्ज़त कोई लौटा दे
तो उसे मुँह माँगा ईनाम दूँगा
तो दोस्तों कोई उपाय जरूर बतलाना
साँप के मुँह में छछूंदर है 
क्या करे ज़रा बतलाना
वरना तो सभी जानते हैं 
"मोहन के बापू का हाथ ज़रा तंग है "
देखो तुम ना कहीं कभी ऐसे फँस जाना
रूप के साथ गुणों को भी आँक लेना
वरना तुम्हें भी पड़ेगा ऐसे ही पछताना
और ज़िन्दगी भर यही पड़ेगा दोहराना
जिसके बारे में सभी जानते हैं 
"मोहन के बापू का हाथ ज़रा तंग है ":)))))))))))

रविवार, 25 मार्च 2012

ना जाने क्या हुआ है कुछ दिनो से


ना जाने क्या हुआ है कुछ दिनो से
सारे भाव सुप्त हो गये हैं
जैसे जन्मो के थके हों
और अब लुप्त हो गये हैं
कोई छोर नही दिखता
किसी कोने मे , किसी दराज़ मे
किसी अल्मारी मे
कहीं कोई भाव नही मिलता
जैसे गरीब की झोंपडी
नीलाम हो गयी हो
या शाहजहाँ से किसी ने
कोहिनूर छीन लिया हो
या मुमताज़ की खूबसूरती पर
कोई दाग लग गया हो
देखा है किसी ने ऐसा
भावों का अकाल
जहाँ सिर्फ दूर दूर तक
सूखा पड़ा हो
हर संवेदना बंजर जमीन सी
फट चुकी हो
और किसी भी बारिश से
जहाँ की मिटटी ना भीजती  हो
फिर कौन से बीज कोई डाले
जब मिटटी ही अपनी
उर्वरा शक्ति खो चुकी हो
कहीं देखा है किसी ने
ऐसा भावो का भीषण अकाल
कुछ मिट्टियों को किसी खास
 उर्वरक की जरूरत होती है
आखिर दर्द ही तो संवेदनाओं
और भावों की उर्वरा शक्ति है
लगता है एक बार फिर
दर्द का सैलाब लाना होगा
मृत संवेदनाओं को पुनर्जीवित करने के लिए

गुरुवार, 22 मार्च 2012

फिर लाशों का तर्पण कौन करे ?



यहाँ ज़िन्दा कौन है
ना आशा ना विमला
ना लता ना हया
देखा है कभी
चलती फिरती लाशों का शहर
इस शहर के दरो दीवार तो होते हैं
मगर कोई छत नहीं होती
तो घर कैसे और कहाँ बने
सिर्फ लाशों की
खरीद फरोख्त होती है
जहाँ लाशों से ही
सम्भोग होता है
और खुद को वो
मर्द समझता है जो शायद
सबसे बड़ा नामर्द होता है
ज़िन्दा ना शरीर होता है
ना आत्मा और ना ज़मीर
रोज़ अपनी लाश को
खुद कंधे पर ढोकर
बिस्तर की सलवटें
बनाई जाती हैं
मगर लाशें कब बोली हैं
चिता में जलना ही
उनकी नियति होती है
कुछ लाशें उम्र भर होम होती हैं
मगर राख़ नहीं
देखा है कभी
लाशों को लाशों पर रोते
यहाँ तो लाशों को
मुखाग्नि भी नहीं दी जाती
फिर लाशों का तर्पण कौन करे ? 

शनिवार, 17 मार्च 2012

हाँ ......कौन सी उर्मिला हूँ आज मैं बतलाती हूँ





अपनी गाथा आज स्वंय मै गाती हूँ
हाँ ......कौन सी उर्मिला हूँ
आज मैं बतलाती हूँ 


ना जाने क्यूँ
स्त्री को तुमने
अबला ही माना
उसका सिर्फ एक
रूप ही जाना
इतिहास गवाह है
स्त्री ने ही
इतिहास बनाया
अपने अनेक रूपों से
जग को महकाया 
चलो आज तुम्हें बतलाती हूँ
अपना गौरव गान
खुद मैं गाती हूँ
इतिहास की वो 
अमर नारी हूँ
जिसकी छवि 
तुमने बिगाड़ी है
और मेरी महिमा 
ना जानी है
हाँ मैं हूँ उर्मिला
लक्ष्मण पत्नी
उर्मिला 
जिसके जीवन को 
तुमने तोडा मरोड़ा है
मैं वो लौह स्तम्भ हूँ
जिसने ईंट- ईंट को जोड़ा है
कैसे कमजोर जाना मुझको
कैसे ना पहचाना मुझको
चलो आज वो 
गाथा बतलाती हूँ
तुम्हें तुम्हारा इतिहास
अपने आईने में दिखाती हूँ

जब लक्ष्मण माँ की आज्ञा ले
राम संग जाने को उद्यत हुए 
राह में उर्मिला का 
महल पड़ता था
मगर लक्ष्मण का मन
हिलोरें खाता था
गर पत्नी के पास जाता हूँ
तो कैसे भातृधर्म निभाऊंगा 
उसकी आँखों से बहते
अश्रु बिन्दुओं में ना बह जाऊँगा 
वो भी तो ये कह सकती है
जब माँ सीता राम संग
वन में रह सकती हैं
तो  मैं भी पिया 
संग संग तुम्हारे चलूंगी 
वन का हर कष्ट
तुम संग सहूँगी
और यदि ये साथ जायेंगी
तो सेवक की मर्यादा ही 
सारी ढह जायेगी 
कैसे भातृधर्म  फिर निभेगा 
कैसे निद्रा पर वश चलेगा
कैसे भूख को नियंत्रित करूंगा
और माँ को दिया वचन 
"राम की अहर्निश रक्षा का "
कैसे पूरा करूंगा 
क्योंकि तब तो पत्नी का भी
ख्याल रखना होगा
उसकी भूख प्यास का भी
ध्यान रखना होगा
कुछ तो पति धर्म का
मुझे भी पालन करना होगा
मेरे खाने से पहले ना वो खाएगी
मेरे सोने से पहले ना वो सोएगी
और यदि ऐसा हुआ तो ये तो उस पर
कुठाराघात होगा
पत्नीधर्म के नाम पर 
उसके संग अन्याय होगा 
इस तरह ना पत्नी धर्म 
और ना भातृधर्म निभेगा
और दूसरी तरफ यदि
बिना मिले मैं जाता हूँ 
तब भी घोर अन्याय होगा
पतिधर्म की मर्यादा खंडित होगी
वो राह मेरी तक रही होगी
प्रतीक्षा में देहरी पर खडी होंगी
गर मिलकर नहीं जाता हूँ
ये सरासर अपमान होगा
पत्नी के साथ एक नारी के
स्वाभिमान का तिरस्कार होगा 
और राम ने हमेशा मर्यादा 
को ऊंचा स्थान दिया 
फिर मैं कैसे ना उनके
पदचिन्हों पर नहीं चल सकता
गर उनका ना अनुसरण 
कर पाता हूँ तो
कैसा सेवक धर्म निभाता हूँ
इसी उहापोह में डूबे 
लक्ष्मण उर्मिला के 
द्वार पर पहुंचे
और द्वार खटखटा दिया

उधर आज उर्मिला ने 
दुल्हन सा सोलह श्रृंगार किया
थाली पूजा की सजाई है
प्रेम की बाती जलाई है
खबर तो उन तक भी 
पहुँच चुकी थी
सत्य सारा वो जान चुकी थीं
मगर उनमे ना कमजोर
नारी छिपी थी
वो तो आज बहुत
हर्षित हुई थी
मेरे पति को आज 
प्रभु सेवा में जाना है
मुझे उनका मान बढ़ाना है
उनसे बढ़कर कौन बडभागी होगा
जिसे प्रभु चरणों की सेवा का
ये अनुपम सुख मिलेगा 
ये सोच -सोच उर्मिला 
अति हर्षाती हुई 
और प्रियतम के स्वागत को
उद्यत हुई 
पति की प्रतीक्षा कर रही है
सोलह श्रृंगार किये दुल्हन खडी है 
तभी लक्ष्मण जी ने
द्वार खटखटाया है 
और उर्मिला जी ने हर्षित हो
द्वार खोला है 

अपने प्रियतम को देख
हर्षित हुई 
मगर लक्ष्मण जी की 
आँखें नीची हुईं 
ये देख उर्मिला बोल पड़ी
प्रिये ! यूँ ना तुम
निगाहें चुराओ
मुझे ना अपराधिनी बनाओ 
और मुझसे ज़रा 
नज़र तो मिलाओ
क्षत्राणी हूँ , धर्म से
ना डिगने दूँगी
तुम्हारे हर धर्म और कर्म में
संग- संग रहूँगी
तुम ना संकोच करो
ज़रा मेरे मुखकमल पर 
नज़र करो
यहाँ ना कोई 
विषय- विकार नज़र आएगा
ना ही तुम्हारे विरह की कोई
विषाद रेखा दिखेगी 
क्या जानते नहीं 
मैंने किसी भोगी के घर का
अन्न नहीं खाया है
मैं परम योगी जनक के 
अन्न से पली हूँ 
बस यही तो फर्क होता है
योग में और भोग में 
भोगी को भोग विकार 
के सिवा ना कुछ दिखता है
मगर योगी की तपस्या 
ना उसे डिगने देती है
बल्कि हर कदम पर
उसे संबल देती है
कैसे तुमने सोच लिया
तुम्हारी पथबाधा बन जाऊंगी
और तुच्छ भोग विलास के 
भंवर में तुम्हें फंसाऊंगी
शायद तुमने अभी मुझे जाना नहीं
अपनी अर्धांगिनी को ढंग से
पहचाना नहीं
अरे प्रिय ! तुम राघव की सेवा करना
मेरी ना कोई चिंता करना
जैसे अंतिम वाक्य सुना
लक्ष्मण ने मुख ऊपर किया
उर्मिला के सतित्व  से 
देदिप्त मुख की तरफ़ 
आश्चर्यमिश्रित नेत्रों से निहार 
उर्मिला को गले लगा लिया 
आज लक्ष्मण के नेत्रों में भी
अश्रुओं को स्थान मिला 
बोले धन्य हो देवी ! 
जो तुम सी अर्धांगिनी मिली
तुमने आज पत्नीधर्म निभा दिया
और तुम्हारे तेज के आगे
मेरा मस्तक नत हुआ
तब उर्मिला बोली , प्रिये !
बस एक वादा करते जाओ
१४ वर्ष की अवधि पूर्ण होने पर
सही सलामत वापस आओ
बस इतना वचन देते जाओ
रघुवंशी  वचन के पाबंद होते हैं
ये मैंने जान लिया है
मैंने जो ये दीपक जलाया है
मैं ना इसे बुझने दूँगी
१४ वर्ष तक यूँ ही जलने दूँगी
द्वार यूँ ही खुला रखूंगी 
श्रृंगार मेरा यूँ ही सजा मिलेगा
चौखट पर आरती का थाल 
लिए खडी मिलूंगी 
अपने सतीत्व पर इतना 
भरोसा है मुझको
ना मेरा दीपक बुझेगा
ना ही कोई फूल हार का मुरझायेगा
और ना ही मेरा श्रृंगार फीका पड़ेगा
अवधि पूर्ण होने पर
इसी आरती के थाल  से 
तुम्हारा स्वागत करूंगी 
और यही तुम्हारा संबल बनेगा
बस अवधि की आस मत तोडना
साजन बस यही वचन निभा देना
इतना कह हँसते हँसते
उर्मिला ने लक्ष्मण को विदा किया
परम सती वो नारी थी 
जिसकी अविचल श्रद्धा ने ही
लक्ष्मण को बचाया था 
उसके सतीत्व का प्रमाण
इस प्रसंग में दिखता है

जब हनुमान संजीवनी लेकर आते थे
और भरत के बाण से 
घायल अयोध्या में जा गिरे थे
तब सब माताएं और उर्मिला भी
वहाँ पधारी थीं
लक्ष्मण का हाल जान
सुमित्रा ने संदेस दिया
हनुमान राम को मेरा संदेस देना
कहना घबराये नहीं
लक्ष्मण को कुछ होता है
तो मेरा दूसरा पुत्र आता है
भाई की सेवा तो 
कोई सौभाग्य से पाता है 
कैसी वो माँ थी 
जिसे प्रभु सेवा में 
अपने किसी भी पुत्र की
न कोई परवाह थी 
इधर कौशल्या कहती थीं
हनुमान राम को कह देना
गर मेरे लक्ष्मण 
को कुछ हुआ
तो कभी ना
अयोध्या का रुख करना
मैं ना उसका मुख देखूँगी
लक्ष्मण बिना अयोध्या
ना आने दूँगी
वात्सल्य की अनुपम 
मिसाल हैं दोनों
एक दूसरे से 
त्याग में माताएं 
बढ़ चढ़ कर है दोनों
सब अपनी अपनी कहते हैं
पर उर्मिला मुख पर
मुस्कान लिए चुप बैठी है
ये देख हनुमान ने पूछ लिया
माता ऐसी घडी में
तुम्हारे मुख पर 
मुस्कान कैसे खेल रही है 
जरा कारण तो बतलाओ
बिना कारण तो ये संभव नहीं
हो सकता है
कोई यूँ ही नहीं इन हालात में
धैर्य धारण कर हँस सकता है
और फिर ये तो वैसे भी
राम की मर्यादा स्थली है
जहाँ मर्यादा कदम कदम पर
धरती का माथा चूमती है 
हर इंसान में सिर्फ और सिर्फ
मर्यादा ही अठखेलियाँ करती है जहाँ
वहाँ कैसे संभव हो सकता है
जिसके पति पर जीवन का
इक इक पल भारी हो
सूर्य निकलने तक ही
जिसका जीवन लिखा हो
कैसे कोई नारी अविचल रह सकती है
ऐसे वक्त में तो धैर्य भी
धैर्यहीन हो जाए 
जरा जल्दी बतलाओ माँ
मुझे बहुत दूर जाना है
वरना लक्ष्मण को बचाना 
मुश्किल होगा

ये सुन उर्मिला बोल पड़ीं
हनुमान मेरे पति को ना कुछ होगा
तुम जानते हो 
वो शेषनाग का अवतार हैं
जिनके सिर पर 
सारी पृथ्वी का भार है
और पापियों के बोझ से 
पृथ्वी का बोझ बढ़ गया है 
इसलिए मेरा पति थक गया है
ये देख राघव को दुःख हुआ है
वैसे भी १४ वर्ष से 
ना उन्होंने विश्राम किया है
इसलिए राघव ने उन्हें
अपनी गोद में लिया है
आज उनकी गोद में 
आराम फरमाते हैं
दूसरी बात जिसे
भगवान की गोद मिली हो
उसका कोई क्या 
बिगाड़ सकता है
काल भी जिसके आगे
हाथ जोड़कर खड़ा होता है
जो कालों के भी महाकाल हैं
उन भगवान की गोद में
मेरा पति दुलार पाता था
तीसरे मेरे पति तो 
खुद शेषनाग हैं 
काल भी जहाँ शीश झुकाता है
भला वहाँ कैसे
उन्हें कुछ हो पाता है 
इतना सुन हनुमान बोले
अभी सूर्यदेव के निकलने में
देरी है
माते फिर प्राण ना बच पाएंगे 
सुन उर्मिला बोली
हनुमान सूर्य को 
मैं ना निकलने दूँगी
मैं उस कुल की 
पुत्रवधू हूँ
जिसके कुलदेवता 
खुद सूर्य देव हैं
गर मेरे पति को कुछ हुआ
तो अगले दिन कैसे
अपनी विधवा बहू का 
सूर्य देवता सामना करेंगे
इसलिए हनुमान तुम 
निश्चिन्त रहो
और सबसे बड़ी बात सुनो
मेरा दीपक आज भी 
प्रज्ज्वलित है 
ना ही पूजा के फूल 
मुरझाये हैं
ना ही मेरा श्रृंगार 
फीका पड़ा है
जो बतलाता है
मेरे स्वामी को ना 
कुछ  हुआ है
ना ही कुछ हो सकता है
जब तक मेरे सतीत्व का
दीपक जलता है
ये प्रमाण है इस बात का
मेरा सुहाग सदा अटल है
साथ ही रघुवंशी ना
अपने वचन से पीछे हटते हैं
और उन्होंने मुझे वचन दिया है 
ये देख हनुमान नतमस्तक हुए

अब कहो दुनियावालों 
तुमने मुझमे कैसे
प्रिय के वियोग के
चिन्ह दिखे 
धर्मपत्नी वो ही कहाती  है
जो पति को भी 
धर्म के मार्ग पर लगाती है
खुद भी चलती है
और मैंने वो ही धर्म निभाया है
जो मेरे पति को 
सकुशल वापस लाया है
ज़रा इतिहास पढ़ लिया करो
सत्य को जान लिया करो
यूँ ही ना सत्य का दोहन करो
जनक पुर की चार बेटियां
अयोध्या की नींव बनी हैं
राम ने तो सिर्फ 
सत्य के कलश को 
आरोहित किया

तभी सत्य का
रामराज्य का डंका बजा 
मगर अयोध्या के इतिहास में
जनकपुर की चार बेटियों ने 
नींव की ईंट का काम किया
यूं ही नहीं इतिहास स्वर्णिम बना .........

बुधवार, 14 मार्च 2012

देखें कब आस की पगडण्डी ख़त्म होती है ...............




सुनो ........
हाँ ...........
क्यूँ इतनी उदास हो तुम आज?
.......................
क्या आज फिर?
.........................
कुछ तो कहो ना
........................
देखो तुम्हारा मौन
मुझे झुलसाता है
कुछ तो कहो ना

क्या कहूं?
 
कुछ नहीं है कहने को
बस जीना है
इसलिए जी रही हूँ
किसके लिए ?
ये भी पता नहीं

फिर आज इतनी उदासी क्यूँ?
 
आज फिर कौन सी
शाख टूटी है सपनो की

छोड़ो , क्या करोगे जानकर 

जब तक जान है इस लाश में
इसे तो ढोना ही होगा ना

लगता है आज कहीं फिर से
 
आसमां रोया है
कोई चक्रवात
जरूर आया है
तभी आशियाँ उजाड़
नज़र आता है
ये बिखरे खामोश  मंज़र
अपनी कहानी खुद
बयां कर रहे हैं
अच्छा बताओ
क्या मैं तुम्हारा नहीं ?
क्या तुम मुझसे भी
अपना दर्द नहीं कह सकतीं
क्या अभी तक मैंने
वो जगह नहीं पायी
तुम्हारे दिल के मंदिर में
जहाँ एक प्रतिमा स्थापित
होती है
बोलो ना ..................

तुम परेशान मत हो 

कोई बात नहीं
ज़िन्दगी कब किसकी हुई है
जिसे मैंने चाहा
वो मेरा ना बना
और जिसने मुझे चाहा
मैं उसकी ना बन सकी
शायद यही ज़िन्दगी का
दस्तूर है
यही चाहत की परिणति है
जिसे हम चाहते हैं
वो मिलता नहीं और
जो मिलता है उसे
चाह पाते नहीं
पता नहीं क्यूँ
उसी पर सब कुछ
कुर्बान करना चाहते हैं
और उसी से प्रेम का
प्रतिकार चाहते हैं
जिसमे चाहत होती ही नहीं

शायद यही मोहब्बत की
 
जंग होती है
जहाँ मोहब्बत बेमुकाम होती है
सभी अपनी अपनी
चाहतों के साथ
जीते हैं और मरते हैं
मैं जानती हूँ

तुम्हारी चाहत को
तुम्हारे जूनून को
मगर क्या करूँ
जिससे चाहती हूँ
चाहत का हासिल
वहाँ तो सिर्फ बुझे
चराग मूँह चिढाते हैं
और तुम .........जानती हूँ
मेरी हर ख्वाहिश को
ज़िन्दगी बना लोगे
मुझसे पहले मुझे जान लोगे
मगर क्या करूँ
इस दिल का
ये कहीं और ठौर पाता ही नहीं
जिद पर अड़ा है
रूह की मीन
प्यासी है
जलती है तड़पती है
पर ???????????????

फिर भी वहीँ 
जा जाकर 
उसी आँच से 
लिपटती है 
जो मेरा वजूद ही
मिटाती है 
देखा 
कितनी मजबूर हूँ
और तुम भी
कोई भी किसी का
दुःख नहीं पी सकता 
तुम तो शायद मेरे
दर्द को जी भी लोगे
मगर मैं ...........
मैं कौन सी चिता जलाऊँ 
जिसमे अपना अक्स मिटाऊँ 


बस करो ...........
इतना दर्द क्यूँ सहती हो
मुझे दे दो .............




अपने अपने दर्द खुद ही पीने पड़ते हैं 
जैसे तुम जानकर हलाहल पी रहे हो
जानते हो ......मैं तुम्हें नहीं चाह सकूंगी कभी
फिर भी कोशिश कर रहे हो
बस ऐसे ही ..........तुम्हारी तरह
मैं भी अपने शिव का हलाहल 
पी  रही हूँ और शायद 
जी रही हूँ..........बिना किसी आस के 
देखें कब आस की पगडण्डी ख़त्म होती है ...............

रविवार, 11 मार्च 2012

होते हैं कुछ कारण अपनी चिता को आग लगाने के भी


मेरी उबलती ख़ामोशी के तहखानों में
दरकते ख्वाबों के पैबंद 
अब कहानी नहीं कहते
नहीं मिलता कोई सिपहसलार
नहीं होता कोई नया किरदार
रेशम की फंफूंद जमी काइयों पर 
गुलाब नहीं उगा करते 
किनारों पर ही अलाव जलते हैं
दहकते खौलते कडाहों में आहत
रूहों पर कुण्डियाँ नहीं लगतीं 
कोई सांकल  होती जो नहीं 
फिर गिरह की उलझी गांठों में 
अवसाद के ढेर लगाते संगमरमरी 
पत्थरों पर पैर रखते ही छाले 
यूँ ही ना फूट पड़ते .............
होते हैं कुछ कारण अपनी चिता को आग लगाने के भी 
और खामोश चिताओं के ठन्डे शोलों में छुपे 
राज़ बहुत गहरे होते हैं .................
फिर उम्र भर चाहे कितना ही सर्द रहे मौसम ..........

बुधवार, 7 मार्च 2012

ओ मेरे "रंगरेजिया"





सांवरे "रंगरेज़िया" 
मै हो गयी तिहारी 
जिस रंग चाहो चूनर रंग दो 
ओ मेरे "सांवरिया" 

प्रीत को चाहे अटरिया चढा दो 
रंग मे चाहे प्रीत सजा दो 
कब से कोरी पडी है चूनर 
लाल रंग मे रंग दो श्यामल 
कर दो मुझको भी श्यामल श्यामल 
ओ मेरे "श्याम पिया "

होरी का बना है बहाना
श्याम तुम्हें है मिलने आना
अपने ही रंग में रंग कर है जाना
ओ मेरे "रंगरेजिया" 

एक फाग हम संग भी खेलो
तुम हो मोहन राधे मुझे बना लो
जन्म जन्म की आस मिटा दो
एक ही बूँद में प्यास मिटा दो 
ओ मेरे "मोहनिया "


आज तो बाजी दिल की लगा दी
श्याम रंग में चूनर रंग दी
जीत गयी तो बनूंगी तुम्हारी
हार गयी तो अपनी बनाना
अब न चलेगा कोई बहाना
श्याम रंग में है रंग जाना
ओ मेरे "श्यामलिया "

ओ रंगरेजिया मेरी रंग दो चुनरिया 
ओ सांवरिया मेरी रंग दो चुनरिया
ओ बनवारी बनो मेरे खिवैया 
ओ गिरधारी पार लगा दो नैया 




सोमवार, 5 मार्च 2012

होली का हुडदंग

दोस्तों
इस बार होली का हुडदंग शुरू करती हूँ हाइकू के संग .........पहली बार कोशिश है आप सबके समक्ष रखने की .......... उम्मीद है खरी उतरूंगी और यदि कोई त्रुटि हो तो मार्गदर्शन कीजियेगा 









मुख गुलाल 
नखरे वाली नार 
नैन कटार




रंग में भंग 
लाज भरा घूंघट
बेस्वाद फाग 





भौजाई संग 
खेले देवर होली 
फागुनी रंग 


गोपी दीवानी 
प्रेम फुहार मारे 
वो बनवारी 




निगोड़ी फाग 
बालम परदेसी 
हो  कैसे होली 




टेसू अबीर 
रंग गुलाल खेलें
कटीली  नार 





सजीले पिया 
तेरे बिन दिल का 
जहान फीका 





लाज शरम 
गयी मारी उनकी 
छेड़ें मोहन 




नैन कटार 
मारते बनवारी 
लजाये राधा 




सूनी रे होरी
ना चटकीले रंग 
मैं इस पार 



टेसू का रंग 
मन का मकरंद
भंग में मस्त 





फागुनी रंग
होली का हुडदंग 
कान्हा के संग 




मैं ब्रजनार
तुम  माखनचोर 
लगाओ जोर 




प्रीत की डोरी
तुम संग है जोड़ी 
मतवाले जू 




जो तुम संग 
खेलूँ फाग मोहन 
हो अनुराग 




हो अनुराग 
प्रीत चढ़े अटारी
मिलें मुरारी 




मिलें मुरारी
हो जाऊँ बावरिया
मैं सांवरिया 




मैं सांवरिया 
की बनूँ दुल्हनिया
ओढ़ चुनरी 




लाल की लाली 
चढ़ी रंग ऐसे ही
जैसे सिन्दूर 




अब मैं लाल 
मेरा मोहन लाल 
लाल में लाल 




भक्ति की शक्ति 
बिन पिए है चढ़ी 
रूह की मस्ती 



शुक्रवार, 2 मार्च 2012

ब्लॉग समाचार ........ये पब्लिक है सब जानती है ....


दोस्तों 
मैं आपकी जानी - पहचानी ब्लॉगर  ओह नो सिर्फ जानी, पहचानी नहीं ,क्यूँकि जो भी मिलता है पहचानता ही नहीं .......हाँ जनता जरूर है तो सिर्फ जानी ब्लोगर वन्दना गुप्ता आपके लिए ब्लॉगवुड के ताजा गरमागरम समाचार लेकर हाजिर हूँ ...........

देखिये गर्मी का मौसम आ रहा है और इसका अंदाज़ आप इसी से लगा सकते हैं कि ब्लॉगवुड का माहौल भी गरम होने लगा है .......आप जानते ही हैं यहाँ मौसम कब - कब गरम होता है ........अरे भई जब या तो कोई विवादास्पद लेखन हो या सम्मान मिलना हो या पुस्तक का विमोचन आदि हो और अब ये सब होना शुरू हो चुका है तो माहौल का गरम होना भी लाजिमी है ...........और ऐसे हालात में जब मौसम गरम होने लगे थोड़ी एहतियात बरतनी चाहिए मगर कुछ मानिकलाल जैसे ब्लॉगर  दूसरे के फटे में टांग अडाये बिना नहीं रहते या कहिये दूर से रहकर अवलोकन करते हैं , मौसम को गरमी को सहने के लिए पहले से ही अपने इंतजामात कर लेते हैं ..........पर इस बार तो मानिकलाल बेचारा बहुत परेशान था आया मेरे पास और कहने लगा ...........


यार ये पेट में बहुत मरोड़ उठ रही थी ........आखिर इतने दिन हो गए कोई controversy नहीं हुई ना ........जब तक ऐसा ना हो मज़ा कहाँ आता है वैसे भी होली आ रही है और रंग ना बरसे , चूनर वाली ना भीगे तो होली का क्या आनंद .........सोचो तो सही ..........अभी मानिकलाल ये सोच ही रहा था कि पैदा हो गया एक नया झोलझाल लेकर गोलमाल और मानिकलाल की तो हो गयी जी बल्ले बल्ले हो जायेगी बल्ले बल्ले .........होली आई रंग बिरंगी होली आई साथ में देखो कैसी कैसी controversy लायी मानिकलाल की बाँछें खिल आयीं .........मानिकलाल लगा कूदने .....कभी कभी भगवान कितनी जल्दी सुनता है मुँह मांगी मुराद जो मिल गयी थी उसे .........आखिर बेचारा क्या करता इतने वक्त से ब्लॉगिंग कर रहा था और उसका कोई नतीजा जो नहीं निकल रहा था ..........यूँ तो ब्लॉगजगत में अपनी पहचान बना चुका था छोटी मोटी सी मगर रहता थोडा अलग - थलग सा ही था .........उसे देख लोग उसके गुणगान करते और वो उसी में खुश कि आखिर हम भी तो कुछ बन ही गए  हैं अपनी एक पहचान के साथ इतने लोग जानने लगे हैं सोच- सोच मूंछों पर ताव देता ............मगर बेचारा मानिकलाल आखिर इज्जत भी कोई चीज  है उसे कायम रखना आसान कहाँ होता है इसलिए बेचारा कुछ ना कहता सबको प्रोत्साहित करता, अच्छेपन का नकाब हर वक्त ओढना पड़ता कई बार तो गलत को भी गलत नहीं कह पाता और अन्दर ही अन्दर कसमसाता .........यार ये अच्छा होना भी गुनाह हो जाता है कई बार ..........चलो कोई बात नहीं इतने साल से सब देखता सुनता पढता और मुस्कुराता इस दुनिया कि अजीबोगरीब बंदिशों पर .........मगर दुनिया है ऐसी ही है ऐसे ही चलेगी के फंडे में खुश रहता ...........मगर ये क्या ? उसकी खुशियों पर तो तुषारापात होना शुरू हो गया उसी दिन से जबसे उसने सम्मानों पुरस्कारों के बारे में सुना .........अन्दर ही अन्दर सोचता इस बार तो पुरस्कार पर अधिकार मेरा होगा कम से कम एक तो जरूर मिलेगा मगर ये क्या जैसे ही मौका आया बेचारे ने अपने नाम का कहीं अता -पता ही नहीं पाया और उस दिन उसे लगा बेटे यहाँ पर सिर्फ अच्छे बने रहने से कुछ नहीं होगा .........यहाँ तो जुगाड़ लड़ाने पड़ते हैं , भाई बहन बनाने पड़ते हैं, गुरु - चेला बनाना पड़ता है वो ही तो नाम recommend करता है .........चलो कोई नहीं अगली बार तो करिश्मा करना ही पड़ेगा और बेचारा मानिकलाल बैठ गया किनारे में दो चार गुब्बारे खाकर और चोटों को सहलाकर .........मगर अन्दर का कीड़ा फिर कुलबुलाने लगा आखिर अच्छाई के कीड़े भी तो बाज नहीं आते ना कुलबुलाने से बेचारे फिर अपने राह निकल पड़ा मगर ये क्या हर बार की तरह फिर निराशा ही हाथ लगी ...........उसके बाद आने वाले आगे बढ़ गए और वो खड़ा- खड़ा गुबार देखता रहा ........लोगों ने उसके चेहरे पर दिखावे का रंग मला और आगे बढ़ गए और वो उनके लिए तालियाँ ही बजाता रह गया ...........रोज सबकी पुस्तकों का विमोचन होना सुनता और खुद को तसल्ली देता कोई नहीं अपने दिन भी फिरेंगे कभी हम भी इस खेमे में जुड़ेंगे ...........दुश्मनों को दोस्त बनते देख रहा था सिर्फ पुस्तक छपनी चाहिए फिर चाहे उसकी कोई भी कीमत क्यूँ ना चुकानी पड़े , आत्मसम्मान ही गिरवीं क्यूँ ना रखना पड़े मगर इससे नाम तो होगा ना साहित्यकारों की जमात में शामिल तो हुआ जा सकेगा ना ..........इस अजीबोगरीब खेल को देख रहा था ख़ामोशी से ..........कैसे दुनिया रंग बदलती है कल जो बुरा था आज वो कैसे अच्छा हो गया .........ये बात उसके पेट में मरोड़ मार रही थी और वो इतने दिनों से कसमसा रहा था आखिर ये कैसे संभव हुआ और फिर जब उसे सारा चाल - हाल मिला तो गुंझिया , मालपुए सब एक बार में उसके स्वाद में उतर आये होली के रंग उसकी ख़ुशी में चार चाँद लगा गए .......अब तो उसे चारों तरफ रंग ही रंग दिख रहे थे क्योंकि कहने वालों ने कहना शुरू कर दिया था ........खामियां निकालने वालों ने खामियां निकलना शुरू कर दिया था ............जो कल जीरो थे आज हीरो बन गए थे और जो कल हीरो थे वो अपनी बराबरी देख जल रहे थे ..........आखिर आग लगे और धुंआ ना उठे ऐसा तो नहीं हो सकता ना ...........और अब वो देख रहा था कैसे एक दूसरे का इस्तेमाल किया और फिर मीठी मार से मार दिया ...........ऐसा रँगा कि ज़िन्दगी भर रंग ना उतरे .............अब शोलों की पिचकारियाँ चलनी शुरू हो गयी थीं और मानिकलाल की होली तो मन गयी थी ..........कान पकड़ तौबा कर रहा था अगर यही हाल होना है तो उससे अच्छा ना छपना ही था ये बात उसने समझ ली थी........छपास का रोग बड़ा बुरा बड़ा बुरा जी बड़ा बुरा .............चलो जो भी हो अपने बाप का क्या जाता है ........हमें तो होली में ऐसा ही रंग भाता है सोच कर मानिकलाल आज दोनों हाथों में गुब्बारे लिए दौड़ रहा था रंग भरे ...........कोई कहीं किसी पर मारे वो क्यूँ कुढ़े आखिर होली का त्यौहार एक बार आता है और मस्ती का आलम तो तभी भाता है जब सामने वाला पस्त नज़र आता है और आज तो उसकी मन की मुराद पूरी हो गयी थी ,अब पड़ेंगे रंग बिरंगे गुब्बारे , सबके चेहरों और कपड़ों पर रंग ही रंग दिखेंगे ये सोच वो मस्त हो गया अपनी होली में .......बिन पीये भंग का नशा तारी हो गया ....और तरह तरह के  गाने  गा रहा था ...........


क्या से क्या हो गया बेवफा तेरे प्यार में ............

बड़े बेआबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले ....इस शेर को सालन लगा रहा था 


अब मानिकलाल ठहरा मानिकलाल और उसका दिमाग तो उसका दिमाग ही ठहरा ........सोचने पर टैक्स थोड़े लगता है सो एक बात और सोच बैठा ...............


 कहीं ये एक दूसरे पर कीचड उछालना , कहना सुनना भी कोई राजनीति तो नहीं ..........अरे भाई राजनीति तो सबमे होती है आखिर जैसे फिल्म का promotion होता है वैसे ही किताबों का भी तो होना चाहिए फिर उसके लिए चाहे जैसे publicity मिले और लोगों में curiocity बढे ............
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.दिमागी कीड़ा एक नया फंडा कब उछल पड़े कोई कुछ नहीं कह सकता  .............:))
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तो दोस्तों ये है मोरल ऑफ़ द स्टोरी 

होली है जी होली है
बुरा ना मानो होली है :))))))))))))))
ये हम मस्तों की टोली है 
बुरा ना मानो होली है :)))))))))))))))
आज तो हम भी शब्द बाण चलाएंगे
होली के रंगों में सबको नहलायेंगे
ज्यादा गरम माहौल न किसी को भाता है
तभी तो जल्दी ही गले वो मिल जाता है  
वैसे भी होली की मस्त फुहारों में
सब गिले शिकवे मिट जायेंगे 
होली है जी होली है
बुरा न मानो होली है :))))))))))))))


तो दोस्तों ............ये थी मानिकलाल की व्यथा और उसका निराकरण जिसका किसी भी बिरादरी से कोई सम्बन्ध नहीं है ये सब सिर्फ और सिर्फ उसकी सोच की उपज है ...........अब कोई अपने ऊपर ना ले और ले तो ले ले भाई ..........उसके बाप का क्या जाता है ..............वो तो अपनी मस्ती में गाता है 


ये पब्लिक है सब जानती है ..........पब्लिक है
अजी अन्दर क्या है अजी बाहर क्या है
ये सब कुछ पहचानती है 
पब्लिक है सब जानती है............


चलो आज के ब्लॉग  बुलेटिन लिए इतना ही .........कुछ दिनों में ऐसे माहौल गरमाता रहना चाहिए इससे जीवन्तता बनी रहती है और जो छुपे दुबके खरगोश कछुए  आदि हैं उन्हें भी निकलने का मौका मिलता रहना चाहिए तभी संतुलन कायम रहता है ..........तो दोस्तों वैसे भी होली आ रही है तो उसमे इतनी मस्ती तो होनी ही चाहिए 

बिना छेड़ छड के होली किसे भाती है 
भांग के सुरूर बिना होली कब आती  है 

अब दीजिये आज्ञा .........जब तक कोई नया मुद्दा नहीं गरमाता तब तक आनंद लीजिये होली का 

और गाइये ये गाना............

पिया संग खेलूँ होरी फागुन आयो रे .........हो फागुन आयो रे .........चाहे तो इस लिंक पर जाकर सुन भी सकते हैं ............:)))))