पुस्तक मेले में गई हुई थी, तमाम किताबों को उलटते पलटते मेरी निगाह एक किताब पर जा टिकी.. उसका नाम था " धन कमाने की तीन सौ तरीके " । कीमत थोड़ा ज्यादा थी, आठ सौ रुपये, लेकिन दिमाग में एक बात थी, क्या फर्क पड़ता है, ले लेते हैं। अगर एक तरीका भी हिट हो गया तो बस अपनी तो लाटरी निकल जाएगी। चुपचाप मैने ये किताब खरीद ली और घर पहुंच कर सब काम धाम निपटाने के बाद उनसे कह दिया कि आज चाय खुद बना लीजिएगा, मुझे डिस्टर्ब नहीं करना है। पहले तो मियां जी समझ नहीं पाए कि आखिर माज़रा क्या है, क्यों कह रही है कि चाय खुद ही बना लेना, लेकिन जब उन्होंने मेरे हाथ में धन कमाने की तीन सौ तरीके वाली किताब देखी तो खुशी-खुशी राजी हो गए। यहां तक मेरे किताब पढ़ने के दौरान दो तीन बार मेरे कमरे में चाय पहुंचा कर भी गए। खैर पूरी किताब पढ़ गई, लेकिन मुझे कोई तरीका पसंद नहीं आया, लेकिन जो पसंद आया वो उसमें शामिल नहीं था। पसंद ये था कि " धन कमाने के तीन सौ तरीके " नाम से किताब छपवा ली और अंधाधुंध बिक रही है और लेखक सम्मान पे सम्मान प्राप्त कर रहा है और लेखक जिस तरह खुद कमाई कर रहा था, इस किताब में उस तरीके का जिक्र तक नहीं किया।
मैं ये सब सोच ही रही थी कि खबर मिली शहर में पुरस्कार /सम्मान मेला लगा है फिर चाहे साहित्य हो , ब्लॉग या सोशल साईट। मैंने बेटे को आवाज़ दी और कहा सोचती हूँ बंटू , दो चार सम्मान अपने लिए भी मंगवा लूं ,वैसे भी ऐसा सीजन रोज रोज नहीं आता है। राष्ट्रीय हो या अंतर्राष्ट्रीय हर तरह के सम्मान आपको मिल जायेंगे बशर्ते उनकी शर्त पूरी करने की आपमें कूवत हो या कहो इच्छाशक्ति हो क्योंकि शुरू में मामूली रकम सम्मान की एवज में ली जाती है और फिर इसी तरह आदत डाली जाती है सम्मान देने की उसके बाद तो लेखक/ लेखिकाएं घर से कैसे भी इंतज़ाम करके पैसे ले आते हैं।
अब देखो कल तो वो मोहल्ले में रहने वाली मिसिज़ शर्मा भी चार सम्मान एक साथ ले आईं, उन्होंने किया ही क्या, सिर्फ इतना ही ना कि फेसबुक आदि सोशल साइट्स के जरिए कुछ लोगों को पहले अपना दोस्त बनाया, उन्हीं की कविताएं और लेख मंगाकर 2 - 4 पुस्तकों का संपादन किया, बेचारे नए - नए छपास के रोग से ग्रस्त कवियों की बांछे खिल उठी कि पुस्तक में उनकी कविता छप रही है। मिसिज शर्मा ने शर्माते हुए इनसे ढाई ढाई / तीन तीन हजार रूपये मांग लिए, ये बेचारे मना भी नहीं कर पाए। अब मिसिज़ शर्मा स्वभाव से हैं ही इतनी मीठी कि कोई क्या मना करता। वैसे भी अब तो ये धंधा बन गया है,कोई भी संपादक बन सकता है करना ही क्या है कभी 25 तो कभी 30 कवियों को इकठ्ठा करो और एक संग्रह निकलवा दो और नए नए पंछी भी छपास रोग से ग्रस्त होने के कारण राजी राजी भी इतने पैसे देने को तैयार हो जाते हैं तो राह और आसान हो जाती है , अब देखो लगता क्या है , किसी प्रकाशक से बात कर लो वहाँ सब सेटिंग हो ही जाती है , उसके बाद सारा मामला छपाई से लेकर लोकार्पण तक कुल मिलाकर तक़रीबन 40 हजार तक में भी यदि निपट जाए तो लगा ले हिसाब बेटा अंदर कितना आया और इसका सबसे बड़ा फायदा ये कि अपनी किताब मुफ्त में छपवा लो। े हींग लगे ना फ़िटकरी और रंग चोखा वाली कहावत इसीलिये तो कही गयी है। मुफ़्त में नेम और फ़ेम दोनों मिल जाते हैं, और वो जो मिसिज़ बत्रा हैं उन्होंने तो क्या किया कुछ नए- नए अख़बार और पत्रिकाओं की नियमित सदस्य बन गयीं और कुछ में सदस्य, जानते हो न सदस्य होने का मतलब यानि एकमुश्त राशि उन्हें दे दो, फिर क्या था उन्होंने तो पूरा का पूरा परिशिष्ट ही उन पर छाप दिया, अब इन्होंने भी हिंदीसेवी होने का खिताब झटक लिया। इसके बाद तो थोड़े पैसे देकर आराम से 2-3 सम्मान भी जेब में कर लिए।
सबसे मज़े की बात तो ये है कि आपको कोई ज्यादा खर्च नहीं करना वो हैं न मिस शालिनी उन्होंने तो आज तक कुछ खास ना लिखा न कुछ किया बस अपनी किताब ही भेज दी जगह जगह और वहाँ उन्होंने उनके नियमानुसार कहीं प्रबंधन के नाम पर तो कहीं सदस्यता के नाम पर तो कहीं प्रतिनिधि शुल्क के रूप में पैसा दिया और सम्मान पर कब्जा जमा लिया।
वैसे ऐसा सिर्फ़ लेखिकाओं ही नहीं लेखकों के साथ भी हो रहा है , कोई विलग नहीं इस महामायाजाल से , आखिर खर्च किया है तो सम्मानित होने पर हमारा अधिकार बरबस बन ही जाता है और ना भी बनता हो तो दोस्त लोग तो हैं ही आपको बूस्ट अप करने के लिये , आपके लेखन को कालजयी बताने के लिये ऐसे में आप कैसे सम्मान प्राप्त करने की प्रक्रिया से खुद को अलग रख सकते हैं ।
आज कल मामूली खर्च पर टुचपुंजिए अखबारों में आपके सम्मान की तस्वीरें भी छप जाती हैं, उसे सोशल साइट पर डाल दो, फिर क्या है, सम्मान देने वालों की लाइन लग जाती है। क्योंकि ये भी आजकल धंधा हो गया है। धंधेबाज सोशल साइट पर तस्वीर देखते ही समझ जाते हैं कि ये मैडम तो आसानी से चंगुल में फंस जाएंगी, क्योंकि इन्हें सम्मान लेने और अखबार में छपवाने का शौक है। बस ये डोरे डालने लगते हैं और बेचारी लेखिकाएं फंस ही जाती हैं, खुद खर्च करके अपने किराये भाड़े से जगह जगह दूर पास की जगहो पर तो जाती ही हैं और वहां आयोजकों को भी एकमुश्त राशि देने से पीछे नहीं रहतीं। मकसद और कुछ नहीं, बस अपनों के बीच अपना नाम कर लिया, देखो कितनी बड़ी कवयित्री हूँ मैं , जब देखो रौब गांठती फिरती हैं जगह जगह अब चाहे लेखन में परिपक्वता हो या ना हो या लेखन स्तरीय हो या नहीं मगर सम्मान तो मिल गया ना और दोनों का मकसद पूरा हो गया जो संस्था दे रही है उसका भी नाम हो गया और उसने तो इन्ही का इन्हे दे दिया मगर लेने वाली ये महिलाएं जानकार भी अनजान बन यूं लहराती फिरती हैं मानो हमारी तो कोई कीमत ही नहीं।
हमें तो जैसे इन हथकंडों का पता नहीं या हम नहीं ले सकते थे ऐसा करके , हुंह , क्या समझती हैं ये लेखिकाएं, क्या ये ही ऐसा कर सकती हैं , मैं नहीं , जब आज सब जगह यही हो रहा है हर गली चौराहे के नुक्कड़ पर बड़े बड़े संस्थाओं के नाम रखकर सम्मान बेचे और ख़रीदे जा रहे हैं तो सिर्फ मैं ही क्यों लीक से हटकर चलूँ , क्यों ना मैं भी भीड़ में शामिल हो जाऊं , आखिर रहना तो इसी समाज में है ना , आखिर समाज की परम्पराओं को तोड़कर कैसे जिया जा सकता है, फिर तो मरणोपरांत ही याद किया जाता है और सम्मान दिया जाता है और ऐसे सम्मान का क्या फायदा जिसका सुख जीते जी ना भोगा, क्योंकि ज़िन्दगी तो आखिर एक बार मिलती है और खुद को साबित भी एक बार ही किया जा सकता है संसार की नज़रों में तो मौका हाथ से भला मैं भी क्यों गँवाऊँ और फिर आजकल सिर्फ प्रतिभावान होने भर से गुजारा नहीं चलता , देखो ये सम्मानों के जो महल होते हैं ना यूं ही तो खड़े हो नहीं सकते , पैसा लगता है , अब शोहरत पाना चाहते हो , खुद को सिद्ध करना चाहते हो तो जेब तो ढीली करनी ही पड़ेगी ना कोई सरकारी अकादमी तो हैं नहीं जो प्रतिभा के दम पर सम्मान ले जाओ तुम , वैसे वहाँ भी डगर इतनी आसान थोड़े होती है ।वहाँ भी जान पहचान और रसूख के बल पर ही सम्मानों की ढेरी लगती है फिर जब दोनों ही जगह एक जैसा हाल है तो ये क्या बुरे हैं , कम से कम यहाँ हम खुद तो खुश हो लेते हैं , ड्राइंग रूम में सम्मानों का एक कार्नर बना लेते हैं जिससे आने जाने वाले मेहमानों पर रुआब पड़ता है और हमारा कद समाज में ऊंचा हो जाता है क्योंकि अंदर की बात हर कोई नहीं जानता और जो जानते हैं वो इस पर चुप रहते हैं क्योंकि कहीं ना कहीं उन्होंने भी इसी तरह सम्मान पाये होते हैं तो बता बेटा बहती गंगा में यदि मैं भी हाथ धो लूँगी तो कौन सा पाप कर लूँगी , आखिर लेखन कर्म करके मैं भी तो साहित्य की सेवा ही कर रही हूँ । माँ की इन तर्कों के आगे बेटा बंटू शब्दहीन होकर खामोश रह गया। आजकल मौसम है सम्मानों का , देखो तो हर गली कूचे में , हर चलते फिरते को मिल रहा है तो मुझे भी जरूर मिल जायेगा बेटा, बस तू कॉलेज जाते जाते सम्मान की ईएमआई भरता जाइयो, बाकी मैं सम्भाल लूँगी कम से कम इन सम्मानों में इज्जत का जनाज़ा तो नहीं निकलता, कोई देने के बाद अफ़सोस तो जाहिर नहीं करता न कि गलती से दे दिया या ये इस सम्मान के लायक नहीं , इसकी उम्र इस लायक नहीं या इसका लेखन उस स्तर का नहीं था। हाँ नहीं तो !!!
क्या हाँ नहीं तो हाँ नहीं तो कर रही हो माँ, उठो देर हो रही है मुझे कॉलेज जाना है माँ कहकर जब बंटू ने हिलाया तो मेरा सुन्दर सलोना सपना कांच सा टूट गया और हकीकत के धरातल पर मे आत्मा का लहूलुहान वजूद सिसक रहा था। बेटा तो चाय नाश्ता करते कॉलेज चला गया, पर मेरे सामने इन दिनों बिक रहे तमाम सम्मान और सम्मान लेने वालों के चेहरे सामने आ गए, सच कहूं, नाराज मत होना, तरस आ रहा था ऐसे चेहरों पर ... और बदबू आ रही थी खुद की सोच से भी आखिर मैंने ऐसा सोचा ही क्यों ? क्या सम्मान की लालसा इतनी भयंकर होती है जो आत्मसम्मान भी लील लेती है ……… इस प्रश्न में डूब गयी मैं।