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बुधवार, 29 दिसंबर 2010

लम्हों की कहानी सदियों की जुबानी हो जाये ..............200 वी पोस्ट

कल तेरे शहर की हवा ने
दस्तक दी मेरे दरवाज़े पर
ना जाने किसने राह दिखाई
कैसे खबर हुई ,किसने पता बताया

गुमनाम पता कौन ढूँढ  लाया
क्या तुम जानते थे मैं कहाँ हूँ ?

मुद्दत बाद देखा है तुम्हें
इक अरसा हुआ देखे हुए
लगा जैसे सदियाँ बह गयी हों
सिर्फ एक लम्हे में
कहो ना ............
कैसे जाना मैं कहाँ हूँ ?

क्या करोगी जानकर
ये दिल के सौदे होते हैं
तुम्हारे लिए मैं सिर्फ
एक ख्याल रहा
हवाओं में तैरता हुआ
फिर कैसे जानोगी
दिल के उफनते लावे को
क्या क्या  बह रहा है
तुम्हारे साथ तुम्हारे बिन
मैं पता किससे पूछता
तुमने कब बताया था
ये तो हवाओं ने ही
मुझे  तुमसे मिलवाया है
और पाँव खुद-ब-खुद
तुम्हारे शहर में ले आये हैं
आखिर दिल के मोड़ों पर
तुम्हारा ही तो नाम लिखा है

आज कह लो सब
सुन रही हूँ
वो दरिया जो सिकुड़ गया था
तुम्हारी उदासियों में
और वो जो दिल की मिटटी पर
ख्यालों का लेप तुमने लगाया था 
जब मैंने अपनी कसम में तुम्हें
और तुम्हारे अरमानों को जिंदा लिटाया था
उन सभी तुम्हारे अनकहे जज्बातों  को
शायद आज समझी हूँ
उम्र के उस मोड़ को
जो पीछे छोड़ आई हूँ
आज पकड़ने की ख्वाहिश जन्म ले रही है
कहो आज दिल की दास्ताँ ..............

तुम क्या जानो
प्रेम डगर की सूक्ष्मता
कैसे तुम्हारे बिना पलों ने  मुझे बींधा है
देखो 
मेरे दिल का हर तागा
कैसे ज़ख़्मी हुआ है
जैसे अर्जुन ने शर- शैया पर भीष्म को बींधा हो
और वो तब भी हँस रहा हो
आखिर ज़ख्म भी तो मोहब्बत ने दिया है
तुम्हारे बिना जीया ही कब था 
ये तो एक लाश ने वक्त को
कफ़न में लपेटा हुआ था
शायद कभी कफ़न चेहरे से हट जाये
शायद कभी दीदार तेरा हो जाये
शायद कभी जिसे तुमने नेस्तनाबूद किया
वो बीज एक बार फिर उग जाए
प्रेम का तुम्हें भी कभी कोई लम्हा चुभ जाये
तुम भी शायद कभी मुझे आवाज़ दो
वैसे ही तड़पो
जैसे कोई चकवी चकोर को तरस रही हो
मगर तुमने ना आवाज़ दी
न तड्पी मेरे लिए
तुम तो वो जोगिन बन गयीं 
जिसे श्याम सिर्फ सपनो में मिलता है
प्रेम की अनंत ऋचाएं
और तुम उसकी परिणति
सिर्फ अँधेरे कोनो में ही
समेट लेना चाहती थीं
पता है तुम्हें
जब भी तुम सिसकती थीं
वो आह जब मुझ तक पहुँचती  थी
देखना चाहती हो क्या होता था
देखो ...
देख रही हो ना
ये जलता हुआ निशान 
ये उसी सिसकी की निशानी है मेरे सीने पर
देखो कितने निशाँ हैं तुम्हारी चाहत के
क्या गिन पाओगी इन्हें ...
देखो तो
अब तक हरे हैं ...

उफ़ !
ज़िन्दगी ना मैं जी पायी हूँ
ना तुमने कभी करवट ली
जानती हूँ
मगर देर हो गयी न
तुम और तुम्हारी दुनिया
मैं और मेरी दुनिया
अपना अपना संसार
दो ध्रुव ज़िन्दगी के
कभी देखा है ध्रुवों को
एकाकार होते हुए

अरे क्या कह रही हो
कब और कैसे ध्रुवीकरण कर दिया तुमने
मैं तो आज भी तुम्हें खुद में समाहित पाता हूँ
जब खुद से भटक जाता हूँ
तुममे खुद को पाता हूँ
जब भी तुम्हारी
याद की ओढनी ओढ़कर
चाहत चली आई
तारों की मखमली चादर मैंने बिछायी
उस पर तुम्हारी याद की सेज सजाई
कहो फिर कैसे कहती हो
जुदा हैं हम
क्या नहीं जानतीं
चाहतों का सुहाग अमर होता है


चलो आओ आज फिर
एक नयी शुरुआत करें
जो छूट गया था
कुछ तुममे और कुछ मुझमे
कुछ तुम्हारा और कुछ मेरा
वो सामान तलाश करें

जो चाहत परवान ना चढ़ी

जो दुनिया के अरमानो पर जिंदा दफ़न हुयी
चलो आओं आज उसी चाहत को
अपने दिल के आँगन में एक साथ उगायें
आखिर बरसों की जुदाई के
तप में कुछ तो तपिश होगी
कुछ तो अंकुर होंगे
जो अभी बचे होंगे
जिन्हें अभी नेह के मेह की तलाश होगी 
कुछ फूल तो जरूर खिलेंगे...है ना 


वक्त की दहलीज पर
तेरा मेरा मिलना
ज्यूँ संगम किसी क्षितिज का होना
तुम और मैं
आज मोहब्बत को नया आयाम दें
तुम्हारे लरजते अधर
आमंत्रण देते नयन बाण
ये उठती गिरती पलकें
दिल की धडकनों का
पटरी पर दौड़ती रेल की
आवाज़ सा स्पंदन
हया की लालिमा
सांझ की लालिमा को भी शर्मसार करती हुई
मुझे बेकाबू कर रही है
मैं भीग रहा हूँ
तुम्हारे नेह की धारा में
अब होश कैसे रखूँ
देखो ना ...
मेरी आँखों में तैरते गुलाबी डोरों को
क्या इनमे तुम्हें
एक तूफ़ान नज़र नहीं आता
बताओ तो
कहाँ जाऊँ अब?
कैसे सागर की प्यास बुझाऊँ ?
अधरामृत की मदिरा में कैसे रसपान करूँ ?
कुछ तो कहो ना ..
तुम तो यूँ
सकुचाई शरमाई
इक अलसाई सी अंगडाई लग रही हो
क्या तुम्हें मेरे प्रेम  की तपिश
नेह निमंत्रण नहीं दे रही
कैसे इतना सहती हो ?
मैं झुलस रहा हूँ
तुम्हारा मौन और झुलसा रहा है


अरे रे रे ...
ये क्या सोचने लगीं
देखो ये वासनात्मक राग नहीं है
ये तो प्रेम की उद्दात तरंगो पर बहता अनुराग है
तुम इसे कोई दूसरा अर्थ ना देना
जानती हो ना
प्रेम के पंछी तो सिर्फ तरंगों में बहते हैं
वहाँ वासना दूर कोने में खडी सुबकती है
ये प्रेमानुभूति तो सिर्फ 
रूहों के स्पंदन की नैसर्गिक क्रिया है



जानती हूँ ...
रूहें भटक रही हैं
मगर तब भी इम्तिहान अभी बाकी है
बेशक तुम्हारे संग
मैंने भी ख्वाबों की चादर लपेटी है
जहाँ तुम , तुम्हारी सांसें
तुम्हारे बाहुपाश में बंधा मेरा अक्स
जैसे कोई मुसाफिर
राह के सतरंगी सपने में
एक टूटा तारा सहेज रहा हो
जैसे कोई दरवेश
खुदा से मिल रहा हो
जैसे खुदा खुद आज
आसमां में मोतियों की झालर टांग रहा हो
है ना ....यही अहसास !
मगर फिर भी
ना तुम ना मैं
अभी अपने किनारों से अलग हुए हैं
फिर कहो कैसे बाँध तोड़ोगे ?
क्या भावनाएं बाँधों से बड़ी हो गयीं
या हमारी पाक़ मोहब्बत छोटी हो गयी
मोहब्बत ने तो कभी
रुसवा नहीं किया किरदारों को
फिर तुम कैसे झुलस गए अंगारों पर
माना ...मोहब्बत है
इम्तिहान भी तो यही है
जब तुम हो और मैं हूँ
दिल भी है धड़कन भी है
अरमान भी मचल रहे हैं
मगर यूँ 
सरे बाज़ार बेआबरू नहीं होती मोहब्बत
किसी एक चाहत की लाश पर नहीं सोती मोहब्बत


तो फिर तुम ही कहो क्या करें
कैसे अब के मिले
फिर कभी ना बिछडें
अब दूरियां नहीं सही जातीं
जानता हूँ ...
हालात इक तरफा नहीं
जो तूफ़ान यहाँ ठहरा है
उसी में तुम भी घिरी हो
अपनी मर्यादा की दहलीज पर
मगर अब तो कोई हल ढूंढना होगा
मोहब्बत को मुकाम देना होगा
जो कल ना मिला
वो सब आज हासिल करना होगा
बहुत हुआ
जी लिए बहुत ज़माने के लिए
चलो अब कुछ पल
खुद के लिए भी जी लें
 जो अरमान राख़ बन चुके थे
उन्हें ज़िन्दा कर लें


मगर कैसे?

क्या बता सकोगे ?
कैसे जहाँ से बचोगे
जो दुनिया
गोपी कृष्ण भाव को ना जान पाई
वहाँ भी जिसने तोहमत लगायी
वो क्या प्रेम की दिव्यता जान पायेगी
तुम्हारे और मेरे
प्रेम को कसौटी की
चिता पर ना सुलायेगी
जहाँ जिस्म नहीं आत्माएं सुलगेंगी
वहाँ प्रेम की सुगंध नहीं बिखरेगी
दुनिया की नृशंसता नर्तन करेगी
वो तो इसे जिस्मानी प्रेम ही समझेगी
ऐसे मे
क्या दुनिया को समझा सकोगे?
मोहब्बत की पाक़ तस्वीर दिखा सकोगे?
क्या दुनिया समझ सकेगी?
क्या फिर से मोहब्बत दीवारों में ना चिनेगी ?


तो बताओ तुम ही क्या करूँ मैं
अब नहीं जी सकता
एक बार खो चुका हूँ
अब फिर से नहीं खो सकता

वो तो अब मैं भी
इतनी आगे आ चुकी हूँ
वापस जा नहीं सकती
तुमसे खुद को जुदा कर नहीं सकती
तुम्हारे बिन इक पल अब
फिर से जी नहीं सकती


तो फिर आओ

आज निर्णय करना होगा
क्या मेरा साथ दोगी उसमे
आज मोहब्बत तेरा इम्तिहान लेगी
क्या दे सकोगी ?

तुम कहो तो सही
यहाँ ज़िन्दा रहकर मिल नहीं सकते
और काँटों की सेज पर
फिर से सो नहीं सकते
तो क्यूँ ना ऐसा करें
.......................
हाँ हाँ कहो ना
......................
तुम जानते हो
क्या कहना चाहती हूँ
ये तो जिस्मों की बंदिशें हैं
रूहें तो आज़ाद हैं


हाँ सही कह रही हो
मेरा तो हर कदम
तेरी रहनुमाई के सदके देता है
तेरे साथ जी ना सके
गम नहीं
रूह की आवाज़ पर भी थिरकता है


तो फिर आओ
चलें .............
उस जहाँ की ओर
जहाँ मोहब्बत
चिरायु हो जाए
लम्हों की कहानी
सदियों की जुबानी हो जाये ..............

सोमवार, 27 दिसंबर 2010

'कहीं तुम वही तो नहीं हो जाना '

वो जोगी
अलख जगाता रहा
पूजन अर्चन वंदन
करता रहा
तप की अग्नि में
खुद की आहुति 
देता रहा
देवी दर्शन की
चाह में
लहू से अपने
तिलक लगाता रहा
चौखट पर देवी की
'स्व' को भस्मीभूत
करता रहा 
कठोर व्रत नियम 
करता रहा
और इक दिन
हो गयी
प्रसन्न देवी
दिए दर्शन
कहा ------
"माँग वरदान "
जोगी को 
नव जीवन मिला
वर्षों के तप का
फल मिला 
देवी को देख
स्व को भूल गया
जोगी के हर्ष का
ना पारावार रहा 
हर्षातिरेक में 
भिक्षा ऐसी 
माँग बैठा 
जीवन ही अपना
गँवा बैठा
भिक्षा में देवी से
'मोहब्बत'
मांग बैठा
और जन्मों की 
तपस्या को 
पल में 
जन्मों के लिए
गँवा बैठा
'तथास्तु' कह 
देवी अंतर्धान 
हो गयी
और अब 
ढूँढता फिरता है
मोहब्बत को
अर्धविक्षिप्त सा 
'कहीं तुम वही तो नहीं हो जाना '

शनिवार, 25 दिसंबर 2010

अंकुर जरूर फ़ूटेंगे एक दिन

मै तो
कल भी
वही थी
और आज भी
तुम ही
ना जाने
किस मोड
पर मुड गये
अब खाली
मोड ही
रोज चिढाता है
मगर
आस का
दीप अभी
बुझा नही है
शायद
किसी
गोधुलि वेला मे
तुम आओगे
जीवन को
मुकाम देने
और अपने
नेह को
आयाम देने

देखो
सूखने मत देना
इस आस के
वृक्ष को
तुम्हारे इंतज़ार के
पवित्र जल से
सींच देना
अंकुर जरूर फ़ूटेंगे
एक दिन
 ----------------
-------------

गुरुवार, 23 दिसंबर 2010

कोई तो है

कोई तो है
जो रूह बना
लहू बन
रगो मे बहा
फिर कैसे कहूं
कोई नही है


कोई तो है
जो अहसास
जगा गया
अरमानो को
दीप दिखा गया
 
फिर कैसे कह दूं
कोई नही है

कोई तो है
जो सच कह गया
मगर दिल भी
जला गया
कुछ अपना
दुखा गया
कुछ मेरा
फिर कैसे कह दूं
कोई नही है
कोई तो है
कहीं तो है
मगर अब
ख़्वाब
आकार नहीं लेते
हसरतें जवाँ नहीं होतीं
एक टीस सी उठती है
शायद दर्द बन कर
पल रही है
फिर कैसे कहूं
कोई नहीं है

कोई तो है
जरूर है ............कोई ना कोई
शायद तुझमे मैं और मुझमे तू
कहीं तो हैं...........है ना

सोमवार, 20 दिसंबर 2010

मै मौन का वो शब्द हूं

मै मौन का वो शब्द हूं
जो तुम्हारे लिये लिखा गया
जिसे पढने की समझ
सिर्फ़ तुम जानते हो
जिसकी भाषा का हर शब्द
तुम्हारी अंतरआत्मा की
अभिव्यक्ति है
मगर कहती मै हूँ
गुनते तुम हो
एक भाषा जो शब्दो की
मोहताज़ नही होती
सिर्फ़ भावनाओ मे
बिखरी होती है
सिर्फ़ पढने के लिये
तुम्हारी निगाह की
जरूरत होती है
जहाँ की भाषा को
तुम शब्द देते हो
और मौन मुखर हो
जाता है और मैं 

व्यक्त 

शनिवार, 18 दिसंबर 2010

ये प्रेम के कौन से मोड आ गये

ये प्रेम के कौन से मोड आ गये
जहाँ लम्हे तो गुजर गये
मगर हम बेजुबाँ हो गये
कहानी कहते थे तुम अपनी
और हम बयाँ हो गये
ये बादल मेरी बदहाली के
क्यूँ तेरी पेशानी पर छा गये
इस रूह के उठते धुयें मे
तुम कैसे समा गये
काश!
कोई नश्तर तो चुभता
कुछ लहू तो बहता
कुछ दर्द हुआ होता
तो शायद
तेरा दर्द मेरे दामन से
लिपट गया होता
फिर न यूँ रुसवाइयों
के डेरे होते और
जिस्म के दूसरे छोर पर
तुम मेरे होते
जहाँ रूहों के रोज
नये सवेरे होते

मगर ना जाने 
ये कैसे प्रेम के
मोड़ आ गए
जो सिर्फ भंवर 
में ही समा गए
अब ना तुम हो
ना मैं हूँ 
ना भंवर है 
बस प्रेम का ये 
मोड़ सूखे अलाव 
 ताप रहा है

गुरुवार, 16 दिसंबर 2010

अब लक्ष्य निर्धारण नहीं करती

अब लक्ष्य निर्धारण नहीं करती
निर्धारण कर लो तो 
पाने की चाह
प्रबल हो जाती है
और उस जूनून में 
काफी कुछ बह जाता है
और बचता है तो सिर्फ 
रेतीले मटमैले पैरों में
चुभते से कुछ कंकर पत्थर 
और गाद में सड़ते पाँव 
और उनके निशाँ 
पीछे मुड़ने पर देखो तो
सिर्फ निशाँ ही होते हैं 
अकेले , नितांत एकाकी
बाकी तो वक्त के दरिया 
में बह जाता है और तब
लक्ष्य को पाना 
उसकी सफलता 
खोखली बेमानी हो जाती है
जब उन पदचिन्हों के साथ
एक भी निशाँ नज़र नहीं आता
इसलिए अब दिशाहीन जी लेती हूँ
जहाँ खोने को कुछ नहीं होता
और जो मिलता है वो ही 
लक्ष्य बन जाता है
या कहो जीवन की 
उपलब्धि इसी में है 
पाने की चाहत में 
सब कुछ खो देना तो 
लक्ष्य नहीं होता ना 
इसलिए
अब लक्ष्य निर्धारण नहीं करती

मंगलवार, 14 दिसंबर 2010

अदृश्य रेखा

दिल की मुश्किलें 
बढ़ जाती हैं
जब तुम सामने होती हो
ना तुम्हें छू सकता हूँ
ना पा सकता हूँ
तुम्हारे वजूद को 
आकार देना चाहता हूँ
जिसे मैंने कभी 
देखा भी नहीं
मगर फिर भी 
हर पल नज़रों में 
समायी रहती हो
तुम्हारे अनन्त 
विस्तृत आकाश को
मैं अपने ह्रदयाकाश में
समेटना चाहता हूँ
हर सम्भावना को
स्वयं में समाहित 
करना चाहता हूँ
ताकि तुम 
तुम्हारा वजूद
हर पल
मेरे अस्तित्व में
एक अदृश्य रेखा सा
मौजूद रहे

शनिवार, 11 दिसंबर 2010

ऊष्ण कटिबंधीय प्रदेशों में मौसम नहीं बदला करते

ऊष्मा
कभी देह की
कभी साँसों  की
कभी बातों की
कभी नातों की
कभी भावो की
तो कभी 
शुष्क मौसमों की
बंजर भूमि में 
उगते कुछ 
सवालों की.......
झुलसा जाती है
हर नेह को
हर गेह को
हर देह को
और बचे 
रह जाते हैं 
राख़ के ढेर में 
कुछ तड़पते
सिसकते
काँटों की सी 
चुभन लिए
कुछ अल्फाज़ 
कुछ घाव
कुछ बिखरे- बिखरे
से अहसास
अपनी बेबसी पर
लाचार से 
आँसू बहाते
उम्र भर के 
तड़पने के लिए
जो इतना नहीं जानते
ऊष्ण कटिबंधीय प्रदेशों में 
मौसम नहीं बदला करते

गुरुवार, 9 दिसंबर 2010

अब सदायें आसमां के पार नहीं जातीं

आज तेरी 
याद का बादल
ख्यालों से
टकरा गया 
एक बिजली सी 
गिर गयी
आशियाँ जल गया
कभी हम मिले थे
यूँ ही चलते चलते
किसी अन्जान शहर में
किसी अन्जान मोड़ पर  
 और एक रिश्ता बना 
कुछ तेरा था उसमे 
कुछ मेरा था शायद
 बह रहे थे समय 
के दरिया में दोनों 
कभी उफ़ान खाता
सागर था तो
कभी  खामोश 
रह्गुजारें थीं 
मगर तब भी 
तुम भी थे
और मैं भी थी 
ये अहसास क्या 
कम थे 
मगर आज 
ना तुम हो
ना मैं हूँ
ना हमारे
अहसास हैं
वक्त की गर्द में
दबे शायद
कुछ जज़्बात हैं
जिन्हें तेरी 
पूजा की थाली में
उंडेल रही हूँ
जिसे तू खुदा 
कहता था
उसी में आज 
सहेज रही हूँ
वो तेरा जाना
और मेरा 
तड़प जाना
मगर रोक 
ना पाना
आज भी 
तड़पाता  है 
तेरे होने का
अहसास कराता है 
 मुझे मुझसे 
चुराता है
मगर यादें परवान 
नहीं चढतीं
शायद इसीलिए
अब सदायें
आसमां के पार
नहीं जातीं
और तुझ तक
पहुँच नही पातीं

मंगलवार, 7 दिसंबर 2010

इंतजार के युग

पता नहीं
हम गुजर 
रहे थे
या 
वक्त हमें
गुजार रहा था 
बस जी 
रहे थे
यादों की 
रोशनाई से 
वक्त के 
लिहाफ पर 
दास्ताँ 
लिख के
कुछ तेरी 
कुछ मेरी
और कुछ
वक्त की
सलाखों 
के पीछे
छुपे सच की
कुछ तेरे
बिखरे 
अरमानो की 
तो कुछ 
मेरे दिल के
छालों पर 
गिरते तेरे
अश्कों की
कभी 
अश्कों 
में छुपे 
दर्द की 
कलम  से
कोई तहरीर 
उतर आती थी
और हम
सहम जाते थे
तो कभी
तेरे जलते 
दिल की 
आग से 
एक कोयला
जो रूह को
छू जाता था
हर छाले पर 
एक फफोला 
और पड़
जाता था
मगर वक्त 
अपनी रफ़्तार 
से गुजर 
रहा था
या कहो
वक्त की
अँधेरी खोह 
में से
दो मासूम 
दिल 
गुजर रहे थे
और वक्त 
के साथ
तड़प रहे थे
शायद 
कभी वक्त को
रहम आ जाये
और मिलन 
हमारा 
हो जाये 
इसी एक 
आस पर
इंतजार के 
युग 
गुजर रहे थे 


रविवार, 5 दिसंबर 2010

आहटों के गुलाब

कुछ आहटों के गुलाब
सजाये दिल के
गुलदस्ते में
अब एक एक करके
हर गुलाब
निकालती हूँ
जैसे यादें निकलती हों
दरीचों से
फिर सूखने के लिए
आहों की धूप में
रख देती हूँ
हर काले पड़ते
गुलाब पर
तेरे साये की
सांझ उकेरती हूँ
कहीं कोई गुलाब
फिर से ना खिल जाये
इसलिए हर गुलाब पर
अश्कों का तेज़ाब
उंडेलती हूँ
और इंतज़ार की
शाख पर
आहटों के गुलाबों
की रूह दफ़न
करती हूँ

गुरुवार, 2 दिसंबर 2010

कील.........ख्यालों की

एक ख्याल
दिल की कील
पर लटका पड़ा है
तो एक ख्याल
दिमाग की 
बालकोनी में
सूख रहा है
और कोई ख्याल
तो किसी ख्याल की
अलंगनी पर टंगा है
कौन से कोने से
शुरू करूँ
हर कोना
अपने ख्यालों
की तरह ही
रीता दिखाई
देता है
वहाँ जहाँ
ख्यालों ने
अपनी दुनिया
बसाई थी
हर मोड़ पर
सिर्फ एक
बेवफाई थी
कहीं ना किसी
ख्याल की
सुनवाई थी
सभी ख्यालों
ने शायद
मुझसी ही
किस्मत पाई थी
कुछ कीलें
कभी नहीं
निकलतीं
फाँस सी
ताउम्र
चुभती ही
रहती हैं