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शनिवार, 28 दिसंबर 2013

सज गई "सम्मान" की मंडी

पुस्तक मेले में गई हुई थी, तमाम  किताबों को उलटते पलटते मेरी  निगाह एक किताब पर जा टिकी.. उसका  नाम था " धन कमाने की तीन सौ तरीके " । कीमत थोड़ा ज्यादा थी, आठ सौ रुपये, लेकिन दिमाग में एक बात थी,  क्या फर्क पड़ता है, ले लेते हैं। अगर एक तरीका भी हिट हो गया तो बस अपनी तो लाटरी निकल जाएगी। चुपचाप मैने ये किताब खरीद ली और घर पहुंच कर सब  काम धाम निपटाने के बाद उनसे कह दिया कि आज चाय खुद बना लीजिएगा,  मुझे डिस्टर्ब नहीं करना है। पहले तो मियां जी समझ नहीं पाए कि आखिर माज़रा  क्या है, क्यों कह रही है कि  चाय खुद ही बना लेना, लेकिन जब उन्होंने  मेरे हाथ  में धन कमाने की तीन सौ तरीके वाली किताब देखी तो खुशी-खुशी  राजी हो गए। यहां तक मेरे किताब पढ़ने के दौरान दो तीन बार मेरे कमरे में चाय पहुंचा कर भी गए। खैर पूरी किताब पढ़ गई, लेकिन मुझे कोई तरीका पसंद  नहीं आया, लेकिन जो पसंद आया वो उसमें शामिल नहीं था। पसंद ये था कि " धन कमाने के तीन सौ तरीके "  नाम से किताब छपवा ली और अंधाधुंध बिक रही है और लेखक सम्मान पे सम्मान प्राप्त कर रहा है  और लेखक जिस तरह खुद कमाई कर रहा था, इस किताब में उस तरीके का  जिक्र तक नहीं किया।

मैं ये सब सोच ही रही थी कि खबर मिली शहर में पुरस्कार /सम्मान मेला लगा है फिर चाहे साहित्य हो , ब्लॉग या सोशल साईट। मैंने बेटे को आवाज़ दी और कहा सोचती हूँ बंटू , दो चार सम्मान अपने लिए भी मंगवा लूं ,वैसे भी ऐसा सीजन रोज रोज नहीं आता है। राष्ट्रीय हो या अंतर्राष्ट्रीय हर तरह के सम्मान आपको मिल जायेंगे बशर्ते उनकी शर्त पूरी करने की आपमें कूवत हो या कहो इच्छाशक्ति हो क्योंकि शुरू में मामूली रकम सम्मान की एवज में ली जाती है और फिर इसी तरह आदत डाली जाती है सम्मान देने की उसके बाद तो लेखक/ लेखिकाएं घर से कैसे भी इंतज़ाम  करके पैसे ले आते हैं।  

अब देखो  कल तो वो मोहल्ले में रहने वाली मिसिज़ शर्मा भी चार सम्मान एक साथ ले आईं, उन्होंने किया ही क्या, सिर्फ इतना ही ना कि फेसबुक आदि सोशल साइट्स  के जरिए कुछ लोगों को पहले अपना दोस्त बनाया,  उन्हीं की कविताएं और लेख मंगाकर 2 - 4  पुस्तकों का संपादन किया, बेचारे नए - नए छपास के रोग से ग्रस्त कवियों की  बांछे खिल उठी कि पुस्तक में उनकी कविता छप रही है। मिसिज शर्मा ने शर्माते हुए इनसे ढाई ढाई / तीन तीन हजार रूपये मांग लिए, ये बेचारे मना भी नहीं कर पाए। अब मिसिज़ शर्मा स्वभाव से हैं ही इतनी मीठी कि कोई क्या मना करता। वैसे भी अब तो ये धंधा बन गया है,कोई भी संपादक बन सकता है करना ही क्या है  कभी 25 तो कभी 30 कवियों को इकठ्ठा करो और एक संग्रह निकलवा दो और नए नए पंछी भी छपास रोग से ग्रस्त होने के कारण राजी राजी भी इतने पैसे देने को तैयार हो जाते हैं तो राह और आसान हो जाती है , अब देखो लगता क्या है , किसी प्रकाशक से बात कर लो वहाँ सब सेटिंग हो ही जाती है , उसके बाद सारा मामला छपाई से लेकर लोकार्पण तक कुल मिलाकर तक़रीबन 40 हजार तक में भी यदि निपट जाए तो लगा ले हिसाब बेटा अंदर कितना आया और इसका सबसे बड़ा फायदा ये कि अपनी किताब मुफ्त में छपवा लो।  े हींग लगे ना फ़िटकरी और रंग चोखा वाली कहावत इसीलिये तो कही गयी है। मुफ़्त में नेम और फ़ेम दोनों मिल जाते हैं, और वो जो मिसिज़ बत्रा हैं उन्होंने तो क्या किया कुछ नए- नए अख़बार और पत्रिकाओं की नियमित सदस्य बन गयीं और कुछ में सदस्य, जानते हो न सदस्य होने का मतलब यानि एकमुश्त राशि उन्हें दे दो,  फिर क्या था उन्होंने तो पूरा का पूरा परिशिष्ट ही उन पर छाप दिया, अब इन्होंने भी हिंदीसेवी होने का खिताब झटक लिया। इसके बाद तो थोड़े पैसे देकर आराम से 2-3 सम्मान  भी जेब में कर लिए। 

सबसे मज़े की बात तो ये है कि आपको कोई ज्यादा खर्च नहीं करना वो हैं न मिस शालिनी उन्होंने तो आज तक कुछ खास ना लिखा न कुछ किया बस अपनी किताब ही भेज दी जगह जगह और वहाँ उन्होंने उनके नियमानुसार कहीं प्रबंधन के नाम पर तो कहीं सदस्यता के नाम पर तो कहीं प्रतिनिधि शुल्क के रूप में पैसा दिया और सम्मान पर कब्जा जमा लिया।  

वैसे ऐसा सिर्फ़ लेखिकाओं ही नहीं लेखकों के साथ भी हो रहा है , कोई विलग नहीं इस महामायाजाल से , आखिर खर्च किया है तो सम्मानित होने पर हमारा अधिकार बरबस बन ही जाता है और ना भी बनता हो तो दोस्त लोग तो हैं ही आपको बूस्ट अप करने के लिये , आपके लेखन को कालजयी बताने के लिये ऐसे में आप कैसे सम्मान प्राप्त करने की प्रक्रिया से खुद को अलग रख सकते हैं ।

आज कल  मामूली खर्च पर टुचपुंजिए अखबारों में आपके सम्मान की तस्वीरें भी छप जाती हैं, उसे सोशल साइट पर डाल दो, फिर क्या है, सम्मान देने वालों की लाइन लग जाती है। क्योंकि ये भी आजकल धंधा हो गया है। धंधेबाज सोशल  साइट पर तस्वीर देखते ही समझ जाते हैं कि ये मैडम तो आसानी से चंगुल में फंस जाएंगी, क्योंकि इन्हें सम्मान लेने और अखबार में छपवाने  का शौक है। बस ये डोरे डालने लगते हैं और बेचारी लेखिकाएं फंस ही जाती हैं, खुद खर्च करके अपने  किराये भाड़े से जगह जगह दूर पास की जगहो पर तो जाती ही हैं और वहां आयोजकों को  भी एकमुश्त राशि देने से पीछे नहीं रहतीं। मकसद और कुछ नहीं, बस अपनों के बीच अपना नाम कर लिया,   देखो कितनी बड़ी कवयित्री हूँ मैं , जब देखो रौब गांठती फिरती हैं जगह जगह अब चाहे लेखन में परिपक्वता हो या ना हो या लेखन स्तरीय हो या नहीं मगर सम्मान तो मिल गया ना और दोनों का मकसद पूरा हो गया जो संस्था दे रही है उसका भी नाम हो गया और उसने तो इन्ही का इन्हे दे दिया मगर लेने वाली ये महिलाएं जानकार भी अनजान बन यूं लहराती फिरती हैं मानो हमारी तो कोई कीमत ही नहीं। 

हमें तो जैसे इन हथकंडों का पता नहीं या हम नहीं ले सकते थे ऐसा करके , हुंह , क्या समझती हैं ये लेखिकाएं,  क्या ये ही ऐसा कर सकती हैं , मैं नहीं , जब आज सब जगह यही हो रहा है हर गली चौराहे के नुक्कड़ पर बड़े बड़े संस्थाओं के नाम रखकर सम्मान बेचे और ख़रीदे जा रहे हैं तो सिर्फ मैं ही क्यों लीक से हटकर चलूँ , क्यों ना मैं भी भीड़ में शामिल हो जाऊं , आखिर रहना तो इसी समाज में है ना , आखिर समाज की परम्पराओं को तोड़कर कैसे जिया जा सकता है, फिर तो मरणोपरांत ही याद किया जाता है और सम्मान दिया जाता है और ऐसे सम्मान का क्या फायदा जिसका सुख जीते जी ना भोगा, क्योंकि ज़िन्दगी तो आखिर एक बार मिलती है और खुद को साबित भी एक बार ही किया जा सकता है संसार की नज़रों में तो मौका हाथ से भला मैं भी क्यों गँवाऊँ और फिर  आजकल सिर्फ प्रतिभावान होने भर से गुजारा नहीं चलता , देखो ये सम्मानों के जो महल होते हैं ना यूं ही तो खड़े हो नहीं सकते , पैसा लगता है , अब शोहरत पाना चाहते हो , खुद को सिद्ध करना चाहते हो तो जेब तो ढीली करनी ही पड़ेगी ना कोई सरकारी अकादमी तो हैं नहीं जो प्रतिभा के दम पर सम्मान ले जाओ तुम , वैसे वहाँ भी डगर इतनी आसान थोड़े होती है ।वहाँ  भी जान पहचान और रसूख के बल पर ही सम्मानों की ढेरी लगती है फिर जब दोनों ही जगह एक जैसा हाल है तो ये क्या बुरे हैं , कम से कम यहाँ हम खुद तो खुश हो लेते हैं , ड्राइंग रूम में सम्मानों का एक कार्नर बना लेते हैं जिससे आने जाने वाले मेहमानों पर रुआब पड़ता है और हमारा कद समाज में ऊंचा हो जाता है क्योंकि अंदर की बात हर कोई नहीं जानता और जो जानते हैं वो इस पर चुप रहते हैं क्योंकि कहीं ना कहीं उन्होंने भी इसी तरह सम्मान पाये होते हैं तो बता बेटा बहती गंगा में यदि मैं भी हाथ धो लूँगी तो कौन सा पाप कर लूँगी , आखिर लेखन कर्म करके मैं भी तो साहित्य की सेवा ही कर रही हूँ । माँ की इन तर्कों के आगे बेटा बंटू शब्दहीन होकर खामोश रह गया। आजकल मौसम है सम्मानों का , देखो तो हर गली कूचे में , हर चलते फिरते को मिल रहा है तो मुझे भी जरूर मिल जायेगा बेटा, बस तू कॉलेज जाते जाते सम्मान की ईएमआई भरता जाइयो, बाकी मैं सम्भाल लूँगी कम से कम इन सम्मानों में इज्जत का जनाज़ा तो नहीं निकलता, कोई देने के बाद अफ़सोस तो जाहिर नहीं करता न कि गलती से दे दिया या ये इस सम्मान के लायक नहीं , इसकी उम्र इस लायक नहीं या इसका लेखन उस स्तर  का नहीं था। हाँ नहीं तो !!! 

क्या हाँ नहीं तो हाँ नहीं तो कर रही हो माँ, उठो देर हो रही है मुझे कॉलेज जाना है माँ कहकर जब बंटू ने हिलाया तो मेरा सुन्दर सलोना सपना कांच सा टूट गया और हकीकत के धरातल पर मे आत्मा का लहूलुहान वजूद सिसक रहा था। बेटा तो चाय नाश्ता करते कॉलेज  चला गया, पर मेरे सामने इन दिनों बिक रहे तमाम सम्मान और सम्मान लेने वालों के चेहरे सामने आ गए, सच कहूं, नाराज मत होना, तरस आ रहा था ऐसे चेहरों पर ... और बदबू आ रही थी खुद की सोच से भी आखिर मैंने ऐसा सोचा ही क्यों ? क्या सम्मान की लालसा इतनी भयंकर होती है जो आत्मसम्मान भी लील लेती है ……… इस प्रश्न में डूब गयी मैं। 

शुक्रवार, 27 दिसंबर 2013

बालार्क की आठवीं किरण



बालार्क की आठवीं किरण हैं सुधा ओम ढींगरा जी जो किसी पहचान की मोहताज नहीं।  जो अपनी पहचान आप हैं , उनका लेखन स्वयं बोलता है।  

" रिश्ते " शब्द ही जाने कितने रिश्तों की ऊष्मा साथ लिए आ जाता है जेहन के दरवाज़े पर मगर क्या जरूरी है हर रिश्ते को नाम देना , क्या बिना नाम के रिश्ते , रिश्ते नहीं होते या उनमे भावनाएं नहीं होतीं या उनमे कलुषता होती है ये एक ऐसा प्रश्न है जिससे हर कोई जूझता है और खास तौर से एक स्त्री जब उसे कसा ही रिश्तों की कसौटी पर जाता है ना कि उसके स्वतन्त्र अस्तित्व को स्वीकारा ………यही है हमारे समाज की सबसे बड़ी विडंबना और कवयित्री इसी विडंबना से उसे मुक्त करना चाहती हैं और एक नए समाज का निर्माण जहाँ स्त्री केवल स्त्री ना हो बल्कि एक इंसान भी हो

"भावनाएं/ संवेग / खुले रहकर भी / मर्यादित रह सकते हैं / फिर बंधना -बांधना क्यों ?"


"कठपुतली " के माध्यम से स्त्री की दलित अवस्था  का सटीक चित्रण किया है क्योंकि डोर है उसके हाथों में 

"कराये हैं नौ रस भी अभिनीत / जीवन के नाट्य मंच पर / हंसें या रोयें / विरोध करें या हों विनीत /  धागे वो जो थामे है "


"स्मृतियाँ " नाम ही काफी है , कौन है जो बचा है स्मृतियों के गेसुओं में उलझने से , कौन होगा ऐसा जिसकी रूह पर कोई स्मृति दस्तक न देती हो , शायद ही कोई प्राणी हो जो अच्छी या बुरी स्मृतियों से ज़िन्दगी में रु-ब -रु ना होता हो और जब ये स्मृतियाँ जब बिन बुलाये मेहमान सी जब चाहे चली आती हैं तो यादों के पर्दों को यूं हिलाती हैं कि ना चाहते हुए भी स्वागत करना ही पड़ता है फिर न कोई होश रहता है बस यही तो भाव संजोया है कवयित्री ने कविता में 

"तेरा मेरा साथ " ज़िदगी की धूप  छाँव का एक खूबसूरत चित्रण हैं , एक के बिना दूजे का कोई अस्तित्व ही नहीं , एक के होने से ही दूसरे के होने के अहसास से गुजरा जा सकता है , सुख हो या दुःख ज़िन्दगी के ऐसे पहलू हैं जिनसे गुजरे बिना ज़िन्दगी जी ही नहीं जा सकती और सुख और दुःख हैं तो ज़िन्दगी की धूप और छाँव से भी बचा नहीं जा सकता और यही ज़िन्दगी का अनुपम सौंदर्य होता है जिससे गुजरने के बाद ही जीवन कुंदन बनता है 

" और कहती है / ऐ पथिक ! / दो पल मेरे पास आ / सहला दूं / ठंडी सांसों से / तरोताजा कर दूं तुम्हें / ताकि चहकते महकते / बढ़ सको अपनी / मंज़िल की और "

"नींद चली आती है " एक ऐसी संवेदनशील कविता है जिससे गुजरते तो सभी हैं मगर उन भावों में रचता बसता  कोई कोई है।  यूं तो आज के दौर में जब संवेदनहीन हो गया है समाज और रिश्ते भी , जहाँ माता पिता को भी एक अवांछित तत्व समझ किनारा कर लिया जाता है वहाँ कवयित्री की संवेदनाएं इतनी सौम्यता से मुखर हुयी हैं कि एक चारपाई के माध्यम से उसने एक जीवन की पूरी  ना केवल कहानी कही है बल्कि रिश्तों की नमी को भी उकेरा है जो इस कविता का अक्षुण्ण सौंदर्य है 

"चारपाई के फीके पड़े रंग / समय के धोबी पाठकों से / मौसी के चेहरे पर आयी / झुर्रियों से लगते हैं "

कभी कभी इंसान एक क्षण में एक लम्बी यात्रा तय कर लेता है जब कोई लम्हा उसे छूकर गुजरता है तभी तो कवयित्री "वर्षों की यात्रा " तय कर लेती हैं सर्दियों की उतरती धूप के मखमली अहसासों के साथ खो जाती है अपने बचपन की दुनिया में , जो जीवन की रोजमर्रा की स्थितियाँ हैं उनमे भी स्पर्श की ऊष्मा महसूसना और उसे शब्दों में पिरोना ही तो कवि के लेखन की सार्थकता है जिसमे कवयित्री सक्षम रही हैं :

" आँगन में धीरे धीरे / सरकती , फैलती , सिकुड़ती / सर्दियों की धुप / उस पर लहराते / पाइन वृक्ष के साये / दादी की चटाई की याद दिल गए"

रिश्तों की आत्मीयता का क्या महत्त्व है उसे महसूसने और कहने की क्षमता से लबरेज है कवयित्री का ह्रदय तभी तो हर और उसकी निगाह है , हर पल को जैसे साँसों संग महसूसती हैं , धड़कनों में राग बन जैसे बजती हों घंटियाँ कुछ ऐसा ही नाता है कवयित्री का जीवन से और जीवन में उतरे हर रिश्ते से तभी रिश्तों के सौंदर्य को इस खूबसूरती से उकेरा है कि पाठक उसके साथ अपनी स्मृतियों के खो जाता है और एक यात्रा वो खुद कर आता है और यही होती है किसी भी कवि के लेखन की सार्थकता जब पाठक उसमे अपना अक्स ढूँढता है और वो उसे वहाँ मिलता है।  कवयित्री को सार्थक लेखन के लिए बधाई देती हूँ। 

मिलती हूँ अगले कवि के साथ जल्दी ही .......... 

सोमवार, 23 दिसंबर 2013

बालार्क ………सातवीं किरण



दोस्तों 

(बालार्क की छटी किरण मैं खुद हूँ तो मैं अपने बारे में तो  स्वयं कुछ कह नहीं सकती।  अब यदि किसी को हमारा लिखा पसंद आएगा और  यदि हमे इस लायक समझा गया  तभी कोई कुछ कहेगा  तभी आपको उसके बारे में पता चल सकता है।  )

चलिए मैं आपको मिलवाती हूँ बालार्क की सातवीं किरण अशोक आंद्रे जी की कविताओं से :

ज़िन्दगी के साथ भी और ज़िन्दगी के बाद भी एक दिशा एक दशा हमें हर पल सचेत करती है , हमारे अंतस में कोयल सी कुहुकती है मगर समझ के परिदृश्य में छेद होने के कारण स्वप्नवत ही लगता है और ज़िन्दगी की शाम में एक दस्तक देता प्रतीत होता है , आगत विगत के सारे गणित उस पल उसकी सोच पर हावी हो उसे उससे मिलवाते हैं मगर कहने या सुनने की स्थिति से परे दृष्टा बन वो सिर्फ देख सकता है मगर किसी से कह नहीं सकता।  मानव की त्रासदी का सम्पूर्ण रेखाचित्र खींच दिया है कवि ने "जलजला " के माध्यम से फिर चाहे जीते ही अवलोकन हो या अर्ध चेतनावस्था हो , जिसे हम देख कर भी देखना नहीं चाहते , चेतना की उच्चावस्था में उपजा अर्ध चेतनावस्था की प्रतिक्रिया है ये कविता कुछ इस तरह :


" और ऐसे में सोचो / कल सूर्य ही ना निकले / लेकिन उसे हल्का सा होश यह सब / देखने / समझने के लिए / तब कैसा लगेगा ? / क्योंकि समय तो होगा नहीं / किसी की गति को पकड़ने के लिए "

" बादलों की " कविता के माध्यम से प्रकृति से तादात्म्य बनाता कवि ह्रदय जब प्रश्न करता है खुद से तो उत्तर भी अंदर से ही आता है जो कवि के बालसुलभ मन को सुकून की स्थिति में पहुँचा देता है , जहाँ जीवन का राग है , प्रकृति में बिखरा सतत आनंद है फिर भी कहीं कोई अवसाद नहीं और यही उल्लास कवि में निराशा में आशा के बीजों को बो एक बार फिर उत्साह का संचार करता है अर्थात प्रकृति के कण कण से चाहो तो जीवन जीने के सूत्र ग्रहण किये जा सकते हैं बस जरूरत है तो उस नज़र की , उस सोच की। 

"अकेला खड़ा मैं " जीवन दर्शन की संपूर्ण व्याख्या है , एक खोज है खुद की खुद तक , एक प्रश्न सत्य से सम्मुख होने का , आखिर क्या है उस पार जिससे अनभिज्ञता है और एक धरातल पर खड़ा अक्स खुद के होने की स्वीकार्यता के साथ उसके बाद की स्थिति का अवलोकन करता है और जीवन के होने और उसके बाद न होने के रहस्य को सुलझाने की कोशिश है ये कविता :

" हे ईश्वर / इसीलिए मुझे उस बीज के पनपने का रहस्य जानना है / आखिर कैसे एक दिन बिखर कर मौन हो जाते हैं वे ?"

"लेकिन बिल्ली तो " के माध्यम से कवि ने इंसानी सोच की जड़ प्रकृति पर प्रहार किया है।  कैसे बिल्ली के रास्ता काटने पर भय और शंका के बादल अपना विस्तार पाते हैं और एक नए धरातल का निर्माण कर देते हैं जो होने और ना होने की अवस्थाओं से परे होता है मगर शंका और अन्धविश्वास की जड़ें इतनी गहरी होती हैं कि न चाहते हुए भी विस्तार पाती हैं और जकड लेती हैं अपने बाहुपाश में इस तरह कि न चाहते हुए भी विश्वास के जुगनू टिमटिमाने लगते हैं जिन्हे दूर करने की कोशिश तो की जाती है मगर तब भी कहीं न कहीं भय की एक शाख सोच से लिपटी दंश देती रहती है ये कहते हुए :

"क्योंकि  चेहरे तो लौटते रहेंगे इसी तरह की शंकाओं के लिए / ताकि उसकी अनंत यात्रों के पुल बनाये जा सकें / ताकि उसकी प्राकृतिक सोच के साथ / जहाँ सब कुछ पहले से तय होता है / उसकी पूर्णता के साथ प्रस्तुत हो सके / लेकिन बिल्ली तो फिर भी......."


" फुनगियों पर लटका अहसास " आज के कंक्रीट के जंगल में गुम होते अहसासों की विवशता का चित्रण है , कैसे वक्त के साथ विश्वास की धज्जियाँ इस प्रकार उड़ जाती हैं कि चाहकर भी किसी पर विश्वास किया नहीं जा सकता और विश्वास किये बिना जिया भी नहीं जा सकता , एक अजब भयाक्रांत माहौल को जन्म देते हम लोगों को सोचना होगा , जागना होगा एक बार फिर से विश्वास की ड्योढ़ी पर आसन जमाना होगा नहीं एक वक्त ऐसा आ जाएगा हम खुद को अकेला पाएंगे और अकेलेपन की जोंक धीरे धीरे हमारा सारा लहू चूस लेगी :

"इसी प्रक्रिया से गुजरता हुआ वह / अपने ही विश्वासों की परतों को / कुतरने लगता है / सयाने चूहे की तरह / और उम्र की घिसी कमीजों को / परचम की तरह लहराकर / ऊँचाई और गहराई के मध्य / फुनगियों पर लटके अहसासों को / नोचने लगता है "

सभी कविताएँ कवि की सोच , उसकी गहराई , उसकी संवेदनशीलता  को दर्शाती हैं जो कवी की सोच की ऊँचाई को दर्शाता है , जहाँ कवि निरपेक्ष सा होकर सारे परिदृश्यों को देखता है , महसूसता है और भी भावों की माला गूंथता है , यूं ही नहीं ये गहराइयाँ उतरा करती हैं समंदर के सीने में , एक खामोश ठहरे और शांत सागर में कितनी हलचल है , कितनी वेदना है , कितना समन्वयन है ये तभी जाना जा सकता है जब उसमे उतरा जाये , कुछ देर उसमे ठहरा जाए और फिर उसका मनन किया जाए।  एक बेहद उम्दा  रचनाओं से लबरेज कविता संग्रह में कवि की कविताओं ने चार चाँद लगा दिए हैं जिसे किसी समीक्षा की जरूरत नहीं , उसकी कवितायेँ ही उसकी पहचान हैं।  

मिलती हूँ अगले कवि के साथ जल्दी ही ……… 

शनिवार, 21 दिसंबर 2013

भूख भूख भूख ..............2

2
सबकी अपनी अपनी भूख है
फिर भूख जिस्म की ही क्यों ना हो
वहशीपने की ही क्यों ना हो
आत्मा को कुचलने की ही क्यों ना हो
भूख शांत नहीं होती
जितना बुझाओ उतनी जगती है
और इस ज्वाल को शांत करने के लिये
आज नहीं मिलता उदाहरण रावण से धैर्य का
फिर चाहे रिश्तों की मर्यादा ही क्यों ना लांघी जाये
फिर चाहे अपनों को ही क्यों ना शर्मसार किया जाये
भूख तो आखिर भूख है 
बिना भोजन कैसे शांत हो सकती है
खुराक तो सबके लिये जरूरी है
कौन सोचे मर्यादाओं के उल्लंघन के बारे में
क्या फ़र्क पडता है
सामने नर हो या मादा
सबका अपना ही इरादा
येन केन प्रकारेण भूख को शांत करना
भूख का दानव नहीं देखना चाहता किसी मर्यादा को
फिर चाहे उसके बाद जीवन ही होम हो जाये
क्योंकि
नहीं सिखा पाये भूख को सहना हम 
हमारे आचरण, हमारी नैतिकता 
महज़ कोरा भ्रम भर रहे 
और ढो रही हैं सदियाँ दंश को अनादिकाल से अनादिकाल तक
श्रापित हैं अहिल्या सी पत्थर बनकर जीने को 
फिर चाहे कारण कोई हो
तुलसी के शील भंग का 
चली आ रही परिपाटियों ने खाई को चौडा ही किया है कभी ना भरने के लिये 

क्रमश : ………………

बुधवार, 18 दिसंबर 2013

भूख भूख भूख ……1

1
भूख भूख भूख
एक शब्द भर नहीं
इसके कारण ही होते
दुनिया भर के अनर्थ
फिर चाहे सबके लिये हों
इसके अनेक अर्थ 

भूख 
पेट की हो 
तो हो जाती है
दो रोटी में भी शांत
फिर चाहे तुम उसे 
महज़ 26 रुपये में करो 
या दो रुपये में
क्या फ़र्क पडता है 
बस पेट का काम तो है
खुद को भरना किसी भी तरह
और इसके लिये जरूरी नहीं होता
किसी छोटी रेखा के आगे 
एक और बडी रेखा का खींचना

मगर भूख उस वक्त
सुरसा सी भयावह होती है
जहाँ इच्छाओं का काला लबादा ओढे
कोई साया सिर्फ़ टहलना भर नहीं चाहता
उसे चाहिये होता है 
पूरा का पूरा साम्राज्य 
उसे चाहिये होता है
पूरा का पूरा आसमान
पैर ज़मीन पर ना रखने की धुन में
आसमान में सुराख करने की चाहत में
खुद को सबका मालिक सिद्ध करने की भूख में
बिलबिलाता साया नहीं जान पाता 
कितनी चींटियाँ मसली गयीं उसके पाँव के नीचे
कितने रेंगते कीडे कुचले गये उसकी गाडी के नीचे
और खुद को खुदा बनाने की भूख 
अंतडियोँ मे इस कदर उबाल लेती है
कि मिट जाते हैं अन्तर गलत और सही के
और चल पडता है वो उस अन्धेरी गुफ़ा में
जहाँ रौशनी की दरकार नहीं होती 
होती है तो सिर्फ़ ………भूख 
खुद को पितामह सिद्ध करने की 
और ऐसी भूखों के अन्तिम छोर नहीं हुआ करते
फिर भी दलदल में धंस जाते हैं पाँव 
आँख होते हुये भी अंधा बनकर 
क्योंकि
भूख बडी चीज़ है ………सबसे ऊपर
फिर सत्तारूढ होने के लिये इतना जोखिम तो उठाना है पडता 
मगर इस सुरसा का पेट ना कभी है भरता



क्रमश: ……………

शनिवार, 14 दिसंबर 2013

पहाड़ के पक्ष में ………बालार्क का सौदर्य

बालार्क की पाँचवीं किरण :


सुशील कुमार किसी पहचान के मोहताज नहीं।  अपनी कविताओं में विशिष्टता देना ही उनकी मुख्य  पहचान है और इसी धर्म को उन्होंने अपनी कविताओं में निभाया तभी जमीनी हकीकतों से परे पहाड़ी कठिनाइयों पर कवि की दृष्टि पड़ती है तो कराह उठती है और इस प्रकार वेदना स्वर पाती है :

"पहाड़ी लड़कियां " जैसा नाम से ही स्पष्ट हो रहा है कि पहाड़ी जीवन यूँ भी आसान नहीं होता उस पर वहाँ की विषम परिस्थिति में कैसे पहाड़ी लड़कियाँ जीती हैं उसका बहुत ही सटीक चित्रण किया है।  एक तरफ वहाँ की उन्मुक्तता पहाड़ी स्त्री के जीवन की जीवंतता को चित्रित करती है तो दूसरी तरफ कठिन परिस्थितियों से लड़ती स्त्री की विषमता से भी जब दो चार होती है तब पहाड़ से नीचे आना उनकी मजबूरी होती है और उस मजबूरी का कैसे बिचौलिए फायदा उठाते हैं उसका मार्मिक चित्रण दर्शाता है कवि के संवेदनशील ह्रदय को ....... कवि का डर जायज है कि इस तरह तो पहाड़ों के साथ क्या इन उन्मुक्त चिड़ियों की चहचहाट भी एक दिन ख़त्म हो जायेगी एक ऐसी समस्या की तरफ ध्यान दे रहा है  जहाँ किसी की नज़र नहीं पड़ती :

"उनकी पत्थर सी काया को भी /कुचल रहे हैं जब तब / बिचौलिए महाजन, दिक्कु सब / वहाँ कब तक यूं ही अलापती रहेंगी/ भग्न होती ये ह्रदयकंठ -वीणाएँ ?

"पहाड़ी नदी के बारे में " कहते हुए एक तारतम्य बैठाया है कवि ने स्त्री के जीवन और नदी में, जो बह रही हैं युगों से और दे  रही है अपनी तकलीफों और दुखो की आहुति नदी के गर्भ में तब जाकर उसके सुन्दरतम स्वरुप का दर्शन होता है जहाँ प्रेम , वात्सल्य आकार पाते हैं. अपने दर्द को अपने ही मिटटी के सकोरों में भरकर जब पहाड़ी स्त्री चलती है तो उस पीड़ा को सिर्फ पहाड़ या नदी ही महसूस कर सकते हैं क्योंकि नदी सा जीवन चलने को इंगित करता है फिर चाहे कैसी ही विषम परिस्थिति हो और होठों पर मुस्कराहट तभी थिरकती है जब स्त्री अपनी पीड़ा को किसी अँधेरे कोटर में सुरक्षित रख आगे बढ़ती है। 

"हरिया पूछता है कब लौटोगी सुगनी परदेस से " के माध्यम से पहाड़ी लड़की का किसी शहर में ब्याह के चले जाने के बाद कैसा महसूस करते हैं पहाड़ पर रहने वाले उसका बहुत ही मार्मिक चित्रण है जिसमे यूँ लगता है जैसे अगर सुगनी है तभी पहाड़ जीवंत हैं , वहाँ जीवन है अगर वो नहीं तो कुछ नहीं  जैसे एक ख़ामोशी ने अपना डेरा डाला हो , जैसे जीवन उसी मोड़ पर रुक गया हो जहाँ से सुगनी या कहो कोई लड़की विदा होती है बस वहीँ ज़िन्दगी रुक गयी हो :

" पूरा पहाड़ , नदी , झरना , ताल तलैया / यानि कि तराई पर का पूरा गाओं ही / उजाड़ सा दीखता है तुम बिन / सब के सब तुम्हारे लौटने की / बाट जोह रहे हैं कब से। "

"ठूँठ होते पहाड़ " में पहाड़ के भविष्य पर कवि ने प्रहार किया है कैसे कुछ राजनीतिज्ञ अपनी राजनीती की रोटी सेंकने के लिए लोकलुभावन वायदे करके पहाड़ों पर अपने विषैले दांत गड़ाते हैं और पहाड़ी लोगों का जीवन , लुप्त होती उनकी जातियाँ , क्या इन में से किसी पर भी किसी की निगाह होती है या ये सब कोरे सब्ज़बाग हैं और पहाड़ के दर्द हमेशा की तरह अंतहीन ही हैं।  एक गहरा , करारा कटाक्ष और पीड़ा का चित्रण किया है :

" मैं ठिठकता हूँ / पहाड़ के पक्ष में बने / क़ानून की / धाराओं से और पूछता हूँ स्वयं से / कि वैन संरक्षण अधिनियमों के / दलदल में हांफते पहाड़ के / सुख , स्वप्न और भविष्य क्या हैं ?

कवि ने कविताओं के माध्यम से अपना कवि धर्म पूरी शिद्दत से निभाया है और इस तरह वर्णन किया है मानो सब सामने ही घटित हो रहा हो और यही किसी भी लेखक के लेखन की सबसे बड़ी कसौटी होता है कि दृश्य हो या पीड़ा उसे जीवंत  कर दे और उसे पूरा करने में कवि पूरी तरह से सक्षम हैं।  


मिलती हूँ अगली कड़ी में एक और कवि के साथ ……… 

सोमवार, 2 दिसंबर 2013

बालार्क की चौथी किरण और मेरी नज़र


बालार्क की चौथी किरण हैं सरस दरबारी जी :

एक ज़िन्दगी और उसकी धूप छाँव कैसे करवटें बदलती है सभी वाकिफ होते हैं।  लेकिन ज़िन्दगी में बहुत कुछ जो पीछे छूटा करता है वो हमेशा साथ साथ चलता है , वो हमेशा एक दखल दिया करता है ख्वाबों की दरगाह में तब समेटना चाहते है तो यूँ लगता है मानो कोई धूप को मुट्ठी में बंद करना चाहता हो।  कहीं बचपन के गलियारों में जब अल्हड़ता कुलांचे भरा करती थी तब भी एक सुखद अनुभूति दिया करती थी धूप की तपिश और आज वो ही एक सवाल बन जब खड़ी हो जाती है तो क्यों सहम जाती हैं हमारी आज़ादियाँ , क्यों खुलकर सांस नहीं ले पाते , क्यों घबराये सिमटे से अपनी खोलियों में दुबक जाते हैं क्यों नहीं कोशिश करते "आज़ादी की धूप" में कुछ पल बिताने की ………उबरना होगा अब इस मनोदशा से यही तो सन्देश दे रही है ये कविता :

"आओ , खुलकर फिर जी ले हम / सूरज को मुट्ठी में ले लें / आगे बढ़कर उस धूप  के हम  / तेवर से भी बाजी ले लें "

सिर्फ दो कविताएं "आज़ादी की धूप " और " लहरे " मगर समस्त भावों का समावेश कर दिया कवयित्री ने।  

लहरें के माध्यम से चार दृष्टिकोणों को छुआ है मानो ज़िन्दगी के हर परिदृश्य से पर्दा ही हटा दिया हो , मानो चुनौतियों के सागर में गोते लगाने पर कुछ ना मिलने पर उपजी हताशा अपने संस्कार पर खीज रही हो , मानो दो प्रेमियों का युगल स्वर मौन के गह्वर से बाहर निकल मुखर होने को प्रयासरत हो , मानो ज़िन्दगी की भयावहता जब नकाब ओढ़ कर दस्तक देती हो तब किसी लोकोक्ति का स्वर रक्तरंजित हुआ हो।  कुछ ऐसे ही भावों को समेटे जब ज़िन्दगी के सागर में अनजान लहरे दस्तक देती हैं तो कहीं वो खुद नेस्तनाबूद होती हैं तो कहीं अभिशापित सी सिसकती हैं तो कहीं सपनों के महलों में ज़िद के आशियाने ढूंढती हैं सिर्फ अपने अस्तित्व को बचाने और पूर्ण रूपेण जीने की जद्दोजहद में।  मगर लहर का जीवन ही क्या और कितना सा मगर उसमे भी एक पूरा जीवन जीने की चाहत में किनारों से टकराती हैं , सागर के सीने पर सर पटकती हैं मगर अपने सपनों , अपनी हसरतों को पाने की ज़िद नहीं छोड़तीं फिर चाहे उसके लिए खुद के अस्तित्व को ही क्यों ना मिटाना पड़े।  यही तो इंसानी जिजीविषा है जो उसे ज़िन्दगी को हर हाल में जीने को प्रेरित करती है जिसकी बानगी इन कुछ पंक्तियों में देखिये : 

" कभी शोर सुना है लहरों का ..../दो छोटी छोटी लहरें -/हाथों में हाथ डाले -/ज्यूँ ही सागर से दूर जाने की /कोशिश करती हैं-/गरजती हुयी बड़ी लहरें / उनका पीछा करती हुयी / दौड़ी आती हैं / और उन्हें नेस्तनाबूत कर / लौट जाती हैं / बस किनारे पर रह जाते हैं / सपने/ख्वाहिशें/और ज़िद / साथ रहने की / फेन की शक्ल में "

आज जो हो रहा है जिससे आज हर अभिभावक डर रहा है , सहमा हुआ है , सो नहीं पाता , चिंतामुक्त हो नहीं पाता उस वातावरण की भयावहता उसे हर पल कैसे डंसती है और उसके परिणाम कैसे कलंकित करते हैं उसका चित्रण लहरों के माध्यम से करना आसान नहीं था यूँ लगा जैसे कवयित्री सागर के किनारे बैठी हो और हर आती जाती लहर उससे बतिया रही हो जीवन की विभिन्न  विभीषिकाओं को जैसे आईना दिखा रही हो तभी तो जो आज हर माँ बाप की चिंता है उसका इतना सटीक चित्रण कर पायी हैं :

"कभी कभी लहरें -/अल्हड़ युवतियों सी /एक स्वछन्द वातावरण में /विचरने निकल पड़तीं हैं ---/घर से दूर -/एल अनजान छोर पर !/तभी बड़ी लहरें /माता पिता की चिंताएं -/पुकारती हुई /बढ़ती आती हैं .../देखना बच्चों संभलकर /यह दुनिया बहुत बुरी है /कहीं खो न जाना /अपना ख़याल रखना -/लगभग चीखती हुई सी /वह बड़ी लहर उनके पीछे पीछे भागती है .../लेकिन तब तक -/किनारे की रेत -/सोख चुकी होती है उन्हें -/बस रह जाते हैं कुछ फेनिल अवशेष /यादें बन ...../आंसू बन ....../तथाकथित कलंक बन ....!!!!! "


यूं ही तो नहीं बना होगा ये रिश्ता लहरों से , कोई तो गीत गुनगुनाया होगा लहरों ने ,यूँ  ही नहीं अहसास बुलंद हुए होंगे।यूं ही नहीं दर्द के छींटे उड़े होंगे  क्योंकि कुछ भी कहने से पहले खुद वो हो जाना पड़ता है , उस अहसास से गुजरना पड़ता है तभी भावनाओं का सागर उमड़ा करता है और कवयित्री उन भावों को पकड़ने और जीवन दर्शन बयाँ करने में सक्षम रही हैं इसलिए बधाई की पात्र हैं।  

अगली कड़ी में मिलते हैं एक नए कवि से  ………। 

बुधवार, 27 नवंबर 2013

बालार्क की तीसरी किरण



बालार्क की तीसरी किरण कैलाश शर्मा :

बालार्क काव्य संग्रह के तीसरे कवि की अनुभूतियों और संवेदनाओं से मिलवाती हूँ। 

कैलाश शर्मा की रचना "अनुत्तरित प्रश्न" एक अशक्त से सशक्ति की और बढ़ती माँ के ह्रदय की वेदना है जिसमें बेटी के जन्म पर खड़े होते प्रश्न को शायद  अब उत्तर मिल गया है। 

"अब मैंने जीना सीख लिया " ज़िन्दगी की हकीकत बयां करती रचना है पीछे मुड़कर देखने की आदत कैसे आगत को दुखी कर देती है उससे कवि  ने मुक्ति पायी है जब उसे हकीकत समझ आयी है जो इन पंक्तियों में उद्धृत हुआ है :अब पीछे मुड़कर मैं क्यों देखूं /सूनी राहों पर चलना सीख लिया। 

बहुत बहाये हैं आंसू इन नयनों ने / अब तो बाकि कुछ तर्पण रहने दो /चाहत के बीज क्यों बपोये थे ? / क्यों फल पाने कि इच्छा कि ?/ कुछ समय दिया होता खुद को /मन होता आज न एकाकी /देख लिए हैं बहुत रूप तेरे जीवन /अब चिरनिद्रा में मुझे शांति से सोने दो………एकाकीपन की वेदना का सजीव चित्रण करती रचना "क्यों अधर न जाने रूठ गए ?" . ज़िन्दगी के आखिरी पड़ाव का एकांत कैसे घुन की तरह खाता जाता है और अंदर से कितना खोखला कर देता है कि इंसानी मन विश्राम की और कूच करने को आकृष्ट होने लगता है , जरूरी है वो वक्त आने से पहले कुछ वक्त खुद के लिए जीना या खुद के लिए कुछ ऐसा संजो लेना जो इस एकाकीपन से मुक्ति मिल सके का भाव देती रचना सोचने को मजबूर करती है। 

कल की तलाश में /निकल जाता आज /मुट्ठी से / रेत की तरह .... कविता "ख्वाहिशें " की चंद पंक्तियाँ मगर सब कुछ कहने में सक्षम जिसके बाद कुछ कहने की शायद जरूरत ही नहीं । सारी ज़िन्दगी कुछ ख्वाहिशों की डोर पकडे दौडते हम जान ही नही पाते कब वक्त हाथ से फ़िसला और सरक गया और ख्वाहिशों  की फ़ेहरिस्त में ना कोई कमी हुयी।

कीमोथेरपी का ज़हर /जब बहने लगता नस नस में /अनुभव होता जीते जी जलने का / जीने कि इच्छा मर जाती /सुखकर लगती इस दर्द से मुक्ति/ मृत्यु कि बाँहों में /जीवन और मृत्यु कि इच्छा का संघर्ष /हाँ, देखा है मैंने अपनी आँखों से ………… कैंसर की भयावहता का इससे इतर  सटीक चित्रण और क्या होगा ?"जीवन और मृत्यु का संघर्ष " कविता मानो खुद जी कर लिखी हो कवि ने , किसी अपने को पल पल उस पीड़ा से गुजरते देखा हो और कुछ ना करने में जब खुद को असमर्थ पाया हो तो उस दर्द की अनुभूति को शायद यूं लिख कर कुछ कम कर पाया हो तभी तो कविता के अंत में कवि ने आखिर स्वीकार ही लिया इस सत्य को कुछ इस तरह : आज भी जीवंत हैं / वे पल जीवन के / काँप जाती है रूह /जब भी गुजरता/ उस सड़क से। रौंगटे खड़े करने को काफी है कविता में उपजी दिल दहला देने  वाली पीड़ा। 


जीवन के विभिन्न आयामों से गुजरते  कवि ह्रदय ने अपने अनुभवों की पोटली से एक एक कर ज़िन्दगी की हर हकीकत से रु-ब -रु करवाया है।  जब तक कोई भुक्तभोगी ना हो नही व्यक्त कर सकता इतनी सहजता से ज़िन्दगी की तल्खियों, दुश्वारियों , खामोशियों , एकाकियों से।  यूँ ही नहीं प्रस्फुटित होते शब्दबंध जब तक ह्रदय में पीड़ा का समावेश ना हो , जब तक कोई खुद ना उन अनुभवों से गुजरा हो और कवि वो सब कहने में सक्षम है जो आम जीवन में घटित होता है मगर हम उन्हें पंक्तिबद्ध नहीं कर पाते। 


अगली कड़ी में मिलते है एक नए कवि से.…। 

शनिवार, 23 नवंबर 2013

मुझे तो महज तमाशबीन सा खड़ा रहना है

आजकल कुछ नहीं दिखता मुझे 
ना संसार में फैली आपाधापी 
ना देश में फैली अराजकता 
ना सीमा पर फैला आतंक 
ना समाज में फैला नफरतों का कोढ़ 
ना आरोप ना प्रत्यारोप 
कौन बनेगा प्रधानमंत्री 
किसकी होगी कुर्सी 
कौन दूध का धुला है 
किसने कोयले की दलाली में 
मूंह काला किया है 
किस पर कितने भ्रष्टाचार 
के मामले चल रहे हैं 
कौन धर्म की आड़ में 
मासूमों का शोषण कर रहा है 
कौन वास्तव में धार्मिक है 
कुछ नहीं दिखता आजकल मुझे 
जानते हैं क्यों 
देखते देखते 
सोचते सोचते 
रोते रोते 
मेरी आँखों की रौशनी जाती रही 
श्रवणरंध्र बंद हो गए हैं 
कुछ सुनाई नहीं देता 
यहाँ तक की अपने 
अंतःकरण की आवाज़ भी 
अब सुनाई नहीं देती 
फिर सिसकियों के शोर कौन सुने 
और मूक हो गयी है मेरी वाणी 
जब से अभिव्यक्ति पर फतवे जारी हुए 
वैसे भी एक मेरे होने या ना होने से 
कौन सा तस्वीर ने बदलना है 
जोड़ तोड़ का गुना भाग तो 
राजनयिकों ने करना है 
मुझे तो महज तमाशबीन सा खड़ा रहना है 
और हर जोरदार डायलोग पर तालियाँ बजाना है 
और उसके लिए 
आँख , कान और वाणी की क्या जरूरत 
महज हाथ ही काफी हैं बजाने के लिए 
तुम कहोगे 
जब हाथ का उपयोग  जानते हो 
तो उसका सदुपयोग क्यों नहीं करते 
क्यों नहीं बजाते कान के नीचे 
जो सुनाई देने लगे 
जुबान के बंध  खुलने लगें 
आँखों के आगे तारे दिखने लगें 
बस एक बार अपने हाथ का सही उपयोग करके देखो 
है ना …… यही है ना कहना 
क्या सिर्फ इतने भर से तस्वीर बदल जाएगी 
मैं तुमसे पूछता हूँ 
क्या फिर इतने भर से 
घोटालों पर ताले लग जायेंगे 
क्या इतने भर से 
हर माँ , बहन , बेटी सुरक्षित हो जाएगी 
रात के गहन अँधेरे में भी वो 
सुरक्षित घर पहुँच जायेंगी 
क्या इतने भर से 
हर भूखे पेट को रोटी मिल जायेगी 
क्या फिर कहीं कोई लालच का कीड़ा किसी ज़ेहन में नहीं कु्लबुलायेगा 
क्या हर अराजक तत्व सुधर जाएगा 
क्या कानून सफेदपोशों के हाथ की कठपुतली भर नहीं रहेगा 
क्या फिर से रामराज्य का सपना झिलमिलायेगा 
क्या सभी कुर्सीधारियों की सोच बदल जायेगी 
और उनमे देश और समाज के लिए इंसानियत जाग जायेगी 
गर मेरे इन प्रश्नों की उत्तर हों तुम्हारे पास तो बताना 
मैं हाथ का सदुपयोग करने को तैयार हूँ ………एक आज्ञाकारी वोटर की तरह 
जबकि जानता हूँ 
राजनीति के हमाम में सभी वस्त्रहीन हैं  और मैं महज एक तमाशबीन 

मंगलवार, 19 नवंबर 2013

बालार्क की दूसरी किरण


बालार्क की दूसरी किरण ज्योति खरे :

कवि की वास्तविक पहचान उसका लेखन होता है और उसका सबूत ज्योति खरे ने "आसमान , तुम चुप क्यों हो " नामक कविता के माध्यम से दिया है कि इंसान की इंसानियत के प्रति की गयी वादाखिलाफी एक दिन उसके सीने में जब शूल सी चुभती है तो कर देता है दोषारोपण खुद को मुक्त करने के लिए , बेसाख्ता उठा  देता है सवाल तुम चुप क्यों हो इन दुश्वारियों पर जो हर इंसानियत के पैरोकार को सोचने पर मजबूर कर देता है। 

"चिड़िया " कविता मानव के जाने कितने सपनो का चित्रण है जो उम्मीद की चिड़िया के पंखों पर उड़ान भरता है और निर्द्वन्द सा विचरता है शायद तभी उम्मीद पर दुनिया कायम है। 

ज़िन्दगी कितनी है कौन जानता है तो क्यों ना कुछ सत्यों को सहेजा जाए , कुछ ज़िन्दगी की खुश्गवारियों को चुना जाए , कुछ पल जो खिलखिलाते तो हैं आस पास मगर हैम नज़रअंदाज़ कर जाते हैं ऐसे में हमें चाहिए कि उनमे से थोड़ी से ख़ुशी की रोशनाई सहेज ली जाए तो जीवन सिर्फ दर्द की तहरीर ही नहीं बना रहता बल्कि एक खूबसूरत यादों की तस्वीर भी साथ साथ चलती है जो ज़िंदादिली कायम रखती है बस इतना सा तो कहना है कवता " पर अभी कुछ सत्य कह लें " का। 

पिता की यादों को समर्पित कविता " पापा अब " इस रिश्ते की ऊष्मा और गरिमा दोनों को सहेजती है वो सब देखती है जो सामने घटित हो रहा है मगर बेबसी की शाखें भी इर्द गिर्द होने का अहसास करा रही हैं।  संवेदनाओं से भरपूर रचना मन पर दस्तक देती है। 

गाँव के परिदृश्य को समेटती कविता " लौट चलो " की स्पन्दन्ता वो ही महसूस कर सकता है जो बिछड़ा हो अपने मूल से और कभी आ गया हो कुछ पल सहेजने……… अनुभव को शब्दों के माध्यम से व्यक्त करना और कल और आज के स्वरुप को इंगित करना ही इसकी विशेषता है। 

" सूख रहे आँगन के पौधे " नाम के अनुरूप आज के यथार्थ को चित्रित करती है जो हर घर की कहानी है , कैसे स्वार्थपरता और संवेदनहीनता ने रिश्तों को खोखला कर दिया है और जो इंसान के लहू में दीमक सी घुस गयी है जब तक खोखला ना करे छोड़ती ही नहीं।  

ज़िन्दगी के अनुभवों और सच्चाइयों को कोई सच्चा कवि जब महसूसता है तो रोके नहीं रुकता , कलम के माध्यम से छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी समस्या पर अपनी चिंताओं के फूल रख देता है कुछ ऐसी ही दीवानगी है ज्योति खरे के लेखन में जो हर पहलू पर दृष्टिपात करती है फिर समस्या देश की हो , समाज की या पारिवारिक सब पर उनकी कलम बराबर असर करती चलती है यही तो एक कवि के लेखन की , उसके मौन की मुखर अभिव्यक्ति होती है।  

मिलती हूँ अगले कवि के साथ :

शुक्रवार, 15 नवंबर 2013

बालार्क …………मेरी नज़र से

दोस्तों 
बालार्क यानि बाल सूर्य …… लेखन के क्षेत्र में हम सभी बालार्क ही तो हैं और उन सबको एकत्रित करके एक माला में पिरोने का श्रेय रश्मि प्रभा दी और किशोर खोरेन्द्र जी को जाता है और उसमें मुझे इतना सम्मान देना कि मेरे द्वारा लिखी प्रस्तावना को स्थान देना अन्दर तक अभिभूत कर गया साथ में आत्मविश्वास का संचार कर गया । इस संग्रह में मेरी तीन रचनाओं को भी स्थान मिला है जो मेरे लिये गौरव की बात है ।

बालार्क काव्य संग्रह यूँ तो अपने आप में अनूठा और बेजोड़ है जिसमे चुन चुन कर सुमनो को संजोया गया है और एक काव्य का गुलदस्ता बनाया गया है जिसे पढ़ने के बाद  सोच के जंगलों में उगी झाड़ियों को नए आयाम मिलते हैं , एक नयी दिशा मिलती है।कोशिश करती हूँ अपने नज़रिये से कवियों के लेखन को समझने की और आपके समक्ष प्रस्तुत करने की : 

आइये इस संग्रह के पहले कवि " देवेन्द्र कुमार पाण्डेय "  से मिलते हैं जिनकी पहली ही कविता "दंश" मन को झकझोरती है. इंसानी जीवन और पशु के जीवन में ना जहाँ कोई फर्क दिखता  है , एक कांटा सा  दिल में चुभता है और लहू भी नहीं निकलता ये है लेखन का व्यास तो दूसरी कविता "पिता " पिता के होने और ना होने के फर्क को यूं संजोती है जैसे कोई बच्चा अपने सबसे प्रिय खिलौने को सम्भालता है और उसके महत्त्व को जानता है मगर इंसान कहाँ जीते जी सारे सचों को जान पाता  है और जब जानता है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है. 

" धूप ,हवा और पानी " कविता एक ख़ामोशी की चीत्कार है , एक सच के मुँह से मुखौटा उतारता आईना है जिसे इंसानी भूख ने शर्मसार किया है , इंसानी कानूनों ने जहाँ पहरेदारी की मोहर लगाई है। ज़िन्दगी की जद्दोजहद का ऐसा  चित्रण जो रोज सामने होता है मगर किसी को फर्क नहीं पड़ता। 

" पानी " कविता जहाँ ना केवल संस्कारों पर वार करती है वहाँ पानी की किल्लत के साथ ज़िंदगी जीने को विवश इंसानी फितरत को भी बयां करती है।  ज़िन्दगी है तो जीना भी पड़ेगा मगर वक्त की बेरहमी कब किस रूप में उतर आये और खुद के आँखों का पानी भी जब सागर सा लगे , कह नहीं सकते।  वक्त के साथ कैसे बदल जाती हैं संस्कारों की परिभाषाएँ जो अंदर ही अंदर कचोटती तो हैं मगर इंसान विवश है इस सच के साथ जीने को क्योंकि कहीं ना कहीं वो खुद भी दोषी है , कहीं ना कहीं उन्होंने किया है खुद अपना दोहन तो फिर आज किस पर और कैसे करें दोषारोपण। 

देवेन्द्र पाण्डेय की कवितायेँ मन को तो छूती ही हैं साथ में सोचने को भी विवश करती हैं।  अपने आस पास घटित रोजमर्रा के जीवन से किरदारों सरोकारों को उठाना और उस दर्द को महसूसना जिसे आमतौर पर हम अनदेखा कर जाते हैं यही होती है कवि की दृष्टि , कवि की संवेदना , उसके ह्रदय की कोमलता जो उसे औरों से अलग करती है और उसका एक विशिष्ट स्थान बनाती है। 

 मिलती हूँ अगली बार अगले कवि के साथ ............

शुक्रवार, 8 नवंबर 2013

मेरे मन की मधुशाला


१ )
मेरे मन की मधुशाला का 
जो एक घूँट तुम भर लेते 
फिर चाहे उम्र भर होश में ना आते 
इक जीवन तो हम जी लेते ..........प्रिये !

२ )
मेरे तन के घाट पर 
जो तुमने शाहकार गढ़ा 
जीवन की मधुशाला में 
उसे अंतिम पड़ाव मिला ...............प्रिये!

३ )
नैनों के द्वारे से कभी 
जो उतरे होते निर्जन मन में 
वीराने भी गुलज़ार होते 
जो हाथ में हमारे हाथ होते ..........प्रिये ! 

४ )
देह की प्यास पर तुमने गर 
तरजीह जो ह्रदय को दी होती 
रूह की मधुशाला तुम्हारी 
लबालब भर गयी होती ...........प्रिये !

५ )
फिर न लफ़्ज़ों के मोहताज होते 
जो ककहरा प्रेम का पढ़ लेते 
फिर मधुशाला की एक ही घूँट में 
मौन की भाषा भी तुम गुन लेते ........प्रिये !

६ )
अधूरी अबूझी प्यास से 
न कदम तुम्हारे बोझिल होते 
जो मेरे मन की मधुशाला के 
तुम सजग प्रहरी होते ................प्रिये !

७ )
दो तन दो मन दो प्राण का 
जो एक एक घूँट हम भर लेते 
फिर न द्वी  के परदे में 
जीवन हमारे ढके होते ............प्रिये !

८ )
अपने एकांतवास से तुम 
जो बाहर  निकले होते 
हम की निर्झर मधुशाला में 
जीवन हमारे संवर गए होते ...........प्रिये !

९ )
गर अहम् की मीनारों के 
जो बुर्ज न इतने ऊंचे होते 
फिर तो मधुशाला के रस में 
मन रसायन हो गए होते ......प्रिये ! 

१ ० )
भोर की उजली धूप  में 
जो कुछ देर ठहरे होते 
तुम और मैं के बोझ तले दबे 
समीकरण सारे बदल गए होते ..........प्रिये ! 

१ १ )
घट भर भर कर पीया होता 
जो जाम न तेरा छलका होता 
फिर तो मधुशाला के मधु से तर 
तेरा रोम रोम हुआ होता ............प्रिये ! 

१ २ )
गर एक कोशिश की होती 
जो अपना सर्वस्व माना होता 
फिर मेरे मन की मधुशाला तक 
आना न था कठिन ......... प्रिये !

१ ३ )
खुद को न्योछावर करने की 
जो दलीलें थोपी थीं कल तुमने 
गर उन पर खुद भी चले होते 
फिर डगर कठिन न थी मधुशाला की .........प्रिये !

१ ४ )
इक बार सिर्फ मेरे हो गए होते 
जो दो घडी संग जी गए होते 
प्रेम की मधुशाला पर कुर्बान 
फिर मेरे मन की मधुशाला हो गयी होती ..........प्रिये ! 

१ ५ )
तुम न फिर तुम रहे होते 
मैं न फिर मैं रही होती 
इक दूजे में समायी हमारे 
मनों की मधुशाला होती ........प्रिये ! 

गुरुवार, 31 अक्टूबर 2013

मेरी आस का मौसम नहीं बदला…………सिर्फ़ तुम्हारे लिये


एक उम्र बीती
मेरे यहाँ
पतझड को ठहरे
यूँ तो मौसम बदलते हैं
साल दर साल
मगर
कुछ शाखों पर
कभी कोई मौसम ठहरता ही नहीं
शायद
उन मे अवशोषित करने के गुण
बचते ही नहीं किसी भी मिनरल को
देखो तो
ना ठूँठ होती हैं
ना ही फ़लती फ़ूलती हैं
सिर्फ़ एक ही रंग मे
रंगी रहती हैं
जोगिया रंग धारण करने के
सबके अपने कारण होते हैं
कोई श्याम के लिये करता है
तो कोई ध्यान के लिये
तो कोई अपनी चाहत को परवान चढाने के लिये
जोग यूँ ही तो नही लिया जाता ना
क्योंकि
पतझड के बाद चाहे कितना ही कोशिश करो
ॠतु को तो बदलना ही होता है
और जानते हो
मेरी ॠतु उसी दिन बदलेगी
जिस दिन हेमंत का आगमन होगा मेरे जीवन में ………सदा के लिये
ए ………आओगे ना हेमंत का नर्म अहसास बनकर
प्यार की मीठी प्यास बनकर
शीत का मखमली उजास बनकर
देखो ………इंतज़ार की दहलीजें किसी मौसम की मोहताज़ नहीं होतीं
तभी तो युग परिवर्तन के बाद भी
मेरी आस का मौसम नहीं बदला…………सिर्फ़ तुम्हारे लिये
क्योंकि
मैं नही बदलना चाहती 

अपनी मोहब्बत के मौसम को किसी भी जन्म तक
क्या दे सकोगे साथ मेरा ……अनन्त से अनन्त तक हेमंत बनकर
जानते हो ना………मोहब्बत तो पूर्णता में ही समाहित होती है

शनिवार, 26 अक्टूबर 2013

आवाज़ का भरम

सब कुछ टूटने पर भी 
जोड़े रखना है मुझे 
आवाज़ का भरम 
भाँय भाँय की आवाज़ का होना 
काफी है एक रिदम के लिए 
नहीं सहेज सकती अब 
सन्नाटों के शगल 
क्योंकि जानती हूँ 
सन्नाटे भी टूटा करते हैं………
मगर 
आवाजें घूमती हैं ब्रह्माण्ड में निर्द्वन्द ………. 
आवाज़ कहूं , ध्वनि या शब्द 
जिसका नहीं होता कभी विध्वंस 
इसलिए 
अब सिर्फ आवाज़ को माध्यम बनाया है 
जिसके जितने भी टुकड़े करो 
अणु का विद्यमान रहना जीवित रखेगा मुझे ……मेरे बाद भी 

मंगलवार, 22 अक्टूबर 2013

कुछ ख्याल

1)

ये कैसी विडम्बना है 
ये कैसी संस्कारों की धरोहर है 
जिसे ढो रहे हैं 
कौन से बीज गड गये हैं रक्तबीज से 
जो निकलते ही नहीं 
सब कुछ मिटने पर भी 
क्यों आस के मौसम बदलते नहीं 
करवा चौथ का जादू क्यूँ टूटता नहीं 
जब बेरहमी की शिला पर पीसी गयी 
उम्मीदों को नेस्तनाबूद करने की मेंहदी 
ये लाल रंग शरीर से बहने पर भी 
प्रीत का तिलिस्म क्यों टूटता नहीं 
उसी की उम्रदराज़ की क्यों करती है दुआ 
जिसकी हसरतों की माला में प्रीत का मनका ही नहीं 
दुत्कारी जाने पर भी क्यों करवाचौथ का तिलिस्म टूटता नहीं 
रगों में लहू संग बहते संस्कारों से क्यों पीछा छूटता नहीं……


2)



ये जो लगा लेती हूँ 
माँग मे सिंदूर और माथे पर बिन्दिया 
पहन लेती हूँ  पाँव मे बिछिया और हाथों में चूडियाँ 
और गले में मंगलसूत्र 
जाने क्यों जताने लगते हो तुम मालिकाना हक 
शौक हैं ये मेरे अस्तित्व के 
अंग प्रत्यंग हैं श्रृंगार के
पहचान हैं मुझमे मेरे होने के 
उनमें तुम कहाँ हो ? 
जाने कैसे समझने लगते हो तुम मुझे 
सिंदूर और बिछिया में बंधी जड़ खरीद गुलाम 
जबकि ……. इतना समझ लो 


हर हथकड़ी और बेडी पहचान नहीं होती बंधुआ मजदूरी की 

3

संभ्रांत परिवार हो या रूढ़िवादी या अनपढ़ समाज 
सबके लिए अलग अर्थ होते भी 
एक बिंदु पर अर्थ एक ही हो जाता है 
फिर चाहे वो सोलह श्रृंगार कर 
पति को रिझाने वाली प्रियतमा हो 
या रूढ़िवादी परिवार की घूंघट की ओट में 
दबी ढकी कोई परम्परावादी स्त्री 
या घर घर काम करके दो वक्त की रोटी का 
जुगाड़ करने वाली कोई कामगार स्त्री 
सुबह से भूखा प्यासा रहना 
कमरतोड़ मेहनत करना 
या अपने नाज नखरे उठवा खुद को 
भरम देने वाली हो कोई स्त्री 
अर्घ्य देने के बाद 
चाँद निकलने के बाद 
व्रत खोलने के बाद 
भी रह जाती है एक रस्म अधूरी 
वसूला जाता है उसी से उसके व्रत का कर 
फिर चाहे वो शक्तिहीन हो 
शारीरिक और मानसिक रूप से अस्वस्थ हो 
क्योंकि जरूरी होती है रस्म अदायगी 
फिर चाहे मन के मोर तेजहीन हो गए हों 
क्योंकि 
सुना है 
जरूरी है आखिरी मोहर का लगना 
जैसे मांग भरे बिना कोई दुल्हन नहीं होती 
वैसे ही रस्मों की वेदी पर आखिरी कील जरूरी है 
वैसे ही देहों के अवगुंठन बिना करवाचौथ पूर्ण नहीं होती 
वसूली की दास्ताँ में जाने कौन किसे जीतता है 
मगर 
दोनों ही पक्षों के लिए महज अपने अपने ही नज़रिए होते हैं 
कोई धन के बल पर 
कोई छल के बल पर 
तो कोई बल के बल पर 
भावनाओं का बलात्कार कर रस्म अदायगी किया करता है 
और हो जाता है 
करवाचौथ का व्रत सम्पूर्ण