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बुधवार, 31 अक्टूबर 2012

तेरी हसरत, तेरी कसम मेरी जाँ लेकर जायेगी

मेरी नज़रों के स्पर्श से 
नापाक होती तेरी रूह को
करार कैसे दूँ 
बता यार मेरे 
तेरी इस चाहत को
"कोई होता जो तुझे तुझसे ज्यादा चाहता"
इस हसरत को 
परवाज़ कैसे दूँ

तुझे तुझसे ज्यादा 
चाहने की तेरी हसरत को
मुकाम तो दे दूँ मैं
मगर
तेरी रूह की बंदिशों से
खुद को 
आज़ाद कैसे करूँ यार मेरे
प्रेम के दस्तरखान पर
तेरी हसरतों के सज़दे में
खुद को भी मिटा डालूँ
मगर कहीं तेरी रूह
ना नापाक हो जाये
इस खौफ़ से 
दहशतज़दा हूँ मैं
अस्पृश्यता के खोल से 
तुझे कैसे निकालूँ
इक बार तो बता जा यार मेरे
फिर तुझे 
"तुझसे ज्यादा चाहने की हसरत" पर
मेरी मोहब्बत का पहरा होगा
तेरे हर पल 
हर सांस 
हर धडकन पर
मेरी चाहत का सवेरा होगा
और कोई 
तुझे तुझसे ज्यादा चाहता है 
इस बात पर गुमाँ होगा
बस एक बार कसम वापस ले ले
"अस्पृश्यता"  की
वादा करता हूँ
नज़र का स्पर्श भी
तेरे अह्सासों को
तेरी चाहत को
तेरी तमन्नाओं को
मुकाम दे देगा
तेरी रूह की बेचैनियों को
करार दे देगा
तेरे अन्तस मे 
तुझे तू नही
सिर्फ़ मेरा ही 
जमाल नज़र आयेगा
कुछ ऐसे नज़रों को
तेरी रूह में उतार दूँगा
और मोहब्बत को भी
ना नापाक करूँगा
मान जा प्यार मेरे
वरना
तेरी हसरत, तेरी कसम
मेरी जाँ लेकर जायेगी ……………

शनिवार, 27 अक्टूबर 2012

मेरे पैर नही भीगे ……………देखो तो !!!

मेरे पैर नही भीगे
देखो तो
उतरे थे हम दोनों ही
पानी के अथाह सागर में
सुनो………जानते हो ऐसा क्यों हुआ?

नहीं ना …………नहीं जान सकते तुम
क्योंकि
तुम्हें मिला मोहब्बत का अथाह सागर
तुम जो डूबे तो
आज तक नहीं उभरे
देखो कैसे अठखेलियाँ कर रही हैं
तुम्हारी ज़ुल्फ़ें
कैसे आँखों मे तुम्हारी
वक्त ठहर गया है
कैसे बिना नशा किये भी
तुम लडखडा रहे हो
मोहब्बत की सुरा पीकर
और देखो………इधर मुझे
उतरे तो दोनों साथ ही थे
उस अथाह पानी के सागर मे ………
मगर मुझे मिली ………रेत की दलदल
जिसमें धंसती तो गयी
मगर बाहर ना आ सकी
जो अपने पैरों पर मोहब्बत का आलता लगा पाती
और कह पाती ………
देखो मेरे पैर भी गीले हैं ……भीगना जानते हैं
हर पायल मे झंकार का होना जरूरी तो नहीं …………
सिमटने के लिये अन्तस का खोल ही काफ़ी है
सुना है
नक्काशीदार पाँव का चलन फिर से शुरु हो गया है
शायद तभी
मेरे पैर नही भीगे ……………देखो तो !!!

सोमवार, 22 अक्टूबर 2012

इसलिये आखिरी नहान कर लिया है मैने



1)
देखो ना

आज जरूरत थी मुझे
चादर बदलने की
रंगों से परहेज़ जो हो गया है और तुम
इबादत के लिये माला ले आये
तुलसी की तुलसी के लिये
क्या अपना पाऊँगी मैं
तुम्हारे रंगों की ताब को
जो बिखरी पडी है
शीशम सी काली देह पर
जिसको जितना छीलोगे
उतनी स्याह होती जायेगी
यूँ भी ओस मे भीगे बिछोनों पर कशीदाकारी नही की जाती
फिर कैसे अल्हडता की डोरियों को साँस दोगे
जो हाँफ़ने से पहले एक ज़िरह कर सके
अब यही है तुम्हारी नियति शायद
उम्र भर का जागरण तो कोई भी कर ले
तुम्हें तो जागना है मेरी रुख्सती के बाद भी
पायलो को झंकार देने के लिये
घुंघरूओं का बजना सुना है शुभ होता है
.........

2)
आह! …………
कितनी बरसात होती रही
और चातक की ना प्यास बुझी
बस यही अधूरापन चाहिये मुझे
नही होना चाहती पूरा
जानते हो ना
पूर्णता की तिथि मेरी जन्मपत्री मे नही है
वैसे भी देह के आखिरी बीज पर
एक रिक्तता अंकित रहती है अगली उपज के लिये
फिर क्यों ट्टोलते हो खाली कनस्तरों मे इश्क के चश्मे
क्योंकि कुछ चश्मे ख्बाहिशों की रोशनाई के मोहताज़ नही होते
कभी डूबकर देखना भीगे ना मिलो तो कहना
पीठ पर मेरी उंगलियों की छाप मेरे होने का प्रमाण देगी
यहाँ प्यासों के शहर बारिशों के मोहताज़ नही होते............


3)
नमक वाला इश्क यूँ ही नही हुआ करता
एक कंघी, कुछ बाल और एक गुडिया तो चाहिये 

कम से कम  जिसकी तश्तरी मे
कुछ फ़ांक हों तरबूज़ की और कुछ फ़ांक हों मासूमियत की
डाल कर देखना कभी तेल सिर मे
आंसुओं के बालों मे तरी नही होगी, कोइ वट नही होगा
होगा तो बस सिर्फ़ और सिर्फ़ एक नमकीन अहसास
जो खूबसूरती का मोहताज़ नही होता ,
जो उसकी रंगत पर कसीदे नही पढता
बस इबादत करता है और ये जुनून यूँ ही नही चढता
इश्क की मेहराबदार सीढियाँ
देखा ना कितनी नमकीन होती हैं
दीवानगी की चिलम फ़ूँकना कभी मौसम बदलने से पहले


4)
इश्क की सांसों पर थिरकती हर महज़बीं
मीरा नही होती , राधा नही होती
और मैं आज भी खोज मे हूँ
उस नीले समन्दर मे खडे जहाज की
जिसका कोई नक्शा ही नहीं
सिर्फ़ लहरों की उथल पुथल ही पुल बन जाती है
धराशायी मोहब्बत के फ़ूलों की
जिसकी चादर पर पैर रख
कोई आतिश जमीन पर उतरे और खोल मेरा सिमट ले …………



5)

मोहब्बत के कोण
त्रिआयामी नही हुआ करते 

जिसे कोई गणित सुलझा ले
और नयी  प्रमेय बना दे

इसलिये आखिरी नहान कर लिया है मैने
अब मत कराना स्नान चिता पर रखने से पहले
............

बुधवार, 17 अक्टूबर 2012

यूँ ही तो नहीं स्त्री को खुदा ने जननी का अधिकार दिया होगा

मिथक है 
स्त्री पुरुष होना
या एक सरंचना का उद्भव 
किसी कारण से होना
युगों से बांचते रहे हम
स्त्री पुरुष में अधिकार और कर्त्तव्य
मगर ना जान पाए उनके
समूचे अस्तित्व के आंकड़े
यूँ ही स्त्री नही हुआ जाता
उसके लिए सिर्फ 
समर्पण ही काफी नहीं था
किया था उसने उस वक्त 
कितना बड़ा त्याग
जब इन्द्र को हुआ था 
ब्रह्म हत्या का श्राप
कौन सा पुरुष आगे आया
उसकी ब्रह्म हत्या को 
चार भागों में था बांटा गया
उसमे से एक भाग
स्त्री को दिया गया
और उसने स्वीकार भी किया
क्यूँकि जानती थी वो
जनने की शक्ति से हो जाएगी आप्लावित
मस्तक उसका हो जायेगा गौरान्वित 
जो कार्य पुरुष नहीं कर पायेगा
स्त्री का मुख तेज की लालिमा से
उदीप्त हो जायेगा 
फिर कैसे पुरुष कर सकता है समानता 
किसी भी युग में ?
किसी भी काल में 
वरना तो स्त्री भी थी उतनी ही सशक्त
उतनी ही लोह हृदय 
जितना आज का पुरुष दिखता है
फिर चाहे वो होता नहीं लोह्पुरुष
सिर्फ अपने दंभ में चूर 
अपने मान के लिए
श्रेष्ठ साबित करने पर आमादा हो जाता है
नहीं जानता स्त्री का सच
यूँ ही स्त्री नहीं करती
त्याग और समर्पण
आज भी स्त्री है हर हाल में श्रेष्ठ
मगर उसने ना कभी जताया
जानती है .........जताने वाले कमजोर होते हैं 
हो हिम्मत तो एक बार
उसके आकार तक आकर देखो
उसकी ऊँचाइयों को छूकर देखो
गर कर पाओ ऐसा तब कहना
पुरुष है श्रेष्ठ ..............
शक्ति यूँ ही हर किसी में आप्लावित नहीं होती
सामर्थ्यवान  को ही ज्योतिपुंज सौंपा जाता है 
शक्तिमान भी शक्ति के बिना अधूरा माना जाता है 
फिर कहो पुरुष ! तुम हो कैसे स्त्री से श्रेष्ठ ?
कोई तो कारण रहा होगा ना 
यूँ ही तो नहीं स्त्री को खुदा ने जननी का अधिकार दिया होगा 

शनिवार, 13 अक्टूबर 2012

अधूरी हसरतों का ताजमहल

जो तफ़सील से सुन सके
जो तफ़सील से कह सकूँ
वो बात , वो फ़लसफ़ा
एक इल्तिज़ा, एक चाहत
एक ख्वाहिश, एक जुनून
चढाना चाहती थी परवान
ढूँढती थी वो चारमीनार
जिस पर लिख सकती वो इबारत
मगर बिना छत की दीवारों के घर नही हुआ करते
जान गयी थी ……तभी तो
खामोशी की कब्रगाह मे सुला दिया हर हसरत को
क्योंकि
दीवानगी की हद तक चाहने वाले ताजमहल के तलबगार नही होते
और मुझे तुम कभी मिले ही नही
तो किसे सुनाती दास्तान-ए-दिल
पास होकर भी दूरियों ने कैसी लक्ष्मण रेखा खींची है
सोचती हूँ ..........
एक मकबरा बनवा दूं
और उस पर लिखवा दूं
अधूरी हसरतों का ताजमहल ............है ना सनम !!!!!!!!!!

मंगलवार, 9 अक्टूबर 2012

ओ प्रदीप्तनयन!

वक्त के उस छोर पर खड़े तुम
और इस छोर पर खडी मैं
फिर भी एक रिश्ता तो जरूर है
कोई ना कोई कड़ी तो जरूर है
हमारे बीच यूँ ही तो नहीं 
संवादों का आदान प्रदान होता 
चाहे बीच में गहन अंधकार है
नहीं है कोई साधन देखने का
जानने का एक दूजे को
मगर फिर भी 
कोई तो सिरा है 
जो स्पंदन के सिरों को जोड़ता है
वरना यूँ ही थोड़े ही 
सूर्योदय के साथ 
मिलन की दुल्हन साज श्रृंगार किये
प्रतीक्षारत होती 
कभी अपनी चूड़ियों की खन खन से 
तो कभी पायल की रून झुन से
अपनी भावनाओं का आदान प्रदान करती
वैसे भी सुना है 
स्पंदन शब्दों के मोहताज नहीं होते
देखो तो ज़रा 
ना तुमने मुझे देखा 
ना जाना ना चाहा
मगर फिर भी एक डोर तो है 
हमारे बीच
यूँ ही थोड़े ही रोज 
कोई किसी का 
वक्त के दूसरे छोर पर खड़ा
इंतज़ार करता है
मैं तो ज़िन्दगी गुज़ार देती यूँ ही 
मगर वक्त की कुचालें कोई कब समझा है 
यूँ ही थोड़े ही वक्त का पहरा रहा है 
ये स्पंदनों के शाहकार भी अजीब  होते हैं
लफ़्ज़ों को बेमानी कर 
अपनी मर्ज़ी करते हैं
देखो तो 
वक्त अब डूबने को अग्रसर है
और तुम ना जाने
कौन से दूसरे ब्रह्माण्ड में चले गए हो
जो समय की सीमा से भी मुक्त हो गए हो
मगर मैं आज भी
इंतज़ार की बैसाखियों पर खडी
तुम्हारे नाम की 
हाँ हाँ नाम की ..........जानती हूँ
ना तुम्हारा कोई नाम है 
ना मेरा 
ना तुमने मुझे जाना है 
ना मैंने
फिर भी एक नाम दिया है तुम्हें मैंने…ओ प्रदीप्तनयन!
बस उसी नाम का दीप जलाए बैठी हूँ
ओह ! आह ! उम्र के सिरे कितने कमज़ोर निकले
स्पंदनों की सांसें भी थमने लगीं
शायद शब्दों का अलगाव रास नहीं आया 
तभी धुंध के उस पार सिमटा तुम्हारा वजूद
किसी स्पंदन का मोहताज ना रहा 
और मैं अपनी साँसों को छील रही हूँ
शायद कोई कतरा तो निकले 
जिसमे कोई स्पंदन तो बचा हो 
और इंतज़ार मुकम्मल हो जाए 
ये वक्त की कसौटी पर इंतज़ार की रूहों का सिसकना देखा है कभी ?
ए .........एक बार हाथ तो बढाओ
एक बार गले तो लगाओ
और दम निकल जाए 
फिर मुकम्मल ज़िन्दगी की चाह कौन करे ?

शुक्रवार, 5 अक्टूबर 2012

वार्तालाप तुमसे या खुद से नही पता…………मगर

वार्तालाप तुमसे या खुद से नही पता…………मगर

आह ! और वक्त भी अपने होने पर रश्क करने लगेगा उस पल ………जानती हो ना मै असहजता मे सहज होता हूँ और तुम्हारे लि्ये लफ़्ज़ों की गिरह खोल देता हूँ बि्ल्कुल तु्म्हारी लहराती बलखाती चोटी की तरह …………बंधन ऐसा होना चाहिये जिसमे दोनो के लिये कुछ जगह बाकी हो क्योंकि मुझे पता है तुम उन्मुक्त पंछी हो मेरे ह्रदयाकाश की


स्पर्श की आर्द्रता के लिये जरूरी तो नही ना समीप होना ………देखो सिहरन की पगडंडी कैसे मेरे रोयों से खेल रही है और तुम्हारा नाम लिख रही है ………अमिट छाप मेरी असहजता मे तुम्हारे होकर ना होने की ………यूं कभी करवट नही बदली मैने ………आज भी खामोशी की दस्तक सुन रहा हूँ तुम्हारी धडकनों के सिरहाने पर बैठी मेरी अधूरी हसरत की………क्या तुमने उसे सहलाया है आज?

उम्र के रेगिस्तान मे मीलो फ़ैली रेत मे अक्स को ढूँढता कोई वजूद …………जहां ज़ब भी उम्र की झांझर झनकती है मेरी पोर पोर दुखती है तुम्हारी यादों की तलहटी मे दबी अपनी ही गहन परछाइयों से ………मुक्त नही होना मुझे , नही चाहिये मोक्ष …………इसीलिये स्वर का कम्पन कंपा देता है मेरी रूह की चिलम को……क्यों जरूरी नही हर कश मुकम्मल हो और उम्र गुज़र जाये


प्रेम को जोडना नही , वो जुडता नही है वो तो सिर्फ़ होता है और तुम हो इसलिये आवाज़ देती हूँ और कहती हूँ  .………आ जाओ बह जाओगे प्रेम के अथाह सागर मे जिसके किनारे नही होते , पतवार नही होती और ना ही कोई नाव होती …………बस बहते जाना ही नियति होती है ……क्या आ सकोगे उस छोर तक सीमित से असीमित होने तक्………अनन्त तक प्रवाहित होने के लिये ………बस मीठा होने के लिये इतना ही कर लो ………बह चलो मेरे संग मेरे आकाश तक

अब रेगिस्तान की रेत मे घरोंदे नही बनाना …………बस एक शाश्वत प्रश्रय स्थल तक पहुँचना है …जो अनन्त हो , असीम हो ………और उम्मीद है मिलेगा वो एक दिन

आन्दोलनों के लिये जरूरी तो नही वज़ूद का होना……………तो बन जाओ महादेव का हलाहल और बना लो मुझे विषकन्या ………काफ़ी है अदृश्य रेखा के विस्तार के लिये।

सोमवार, 1 अक्टूबर 2012

बेमेल विवाह ……एक त्रासदी


बेमेल विवाह ………एक त्रासदी
जो समाज को अभिशापित करती रही
स्त्री भोग्या है……इसी को इंगित करती रही


यूँ तो सदियों से समाज में

बेमेल विवाह होते आये
जो हमारे अस्वस्थ समाज की
अस्थिर नींव बने
जिसका दुष्परिणाम आज
अधिकाधिक देखने को मिलता है
पहले औरत ना जागृत हुई
ना कभी अपने अधिकार के लिए लड़ी
बस सहज स्नेह त्याग की प्रतिमूर्ति रही
तो कैसे सोच पाती अपने बारे में
जहाँ संस्कारों में ही बीज ऐसे रोपित हुए
आज क्रांति का बिगुल बजाया है
तब नारी को ये समझ आया है
और उसका स्वाभिमान जाग आया है
तभी तो आज इसके दुष्परिणाम दिख गए हैं
हर गली हर मोड़ पर सिसकते मिल रहे हैं 

ये सड़े - गले गलीज़ रिश्ते
समाज को दूषित कर रहे हैं



पहला दुष्परिणाम


अभी उम्र थी बाली मेरी

बापू क्या देखा तुमने
मुझमे और उसमे ………
जो ब्याह दी अपने हमउम्र संग
जिसे देख चाचा ताया मामा
कहने की इच्छा होती है
कैसे उस संग सो सकती हूँ
वैवाहिक जीवन के सुख भोग सकती हूँ
जहाँ मन तो कभी मिला ही नहीं
और तन तो जैसे बिछौना बना
रोज चादर की तरह बिछ गया
पर कभी ना पूर्ण समर्पण रहा
चाहे कितना कष्ट सहा
उस वासना के कीड़े पर ना फर्क पड़ा
वो तो अपने सुख को खोजता रहा
और मुँह ढांप कर सोता रहा
ना जाना कभी प्रीतम का सुख क्या होता है
कैसे प्रेम पुष्पित पल्लवित होता है
सिर्फ भोग्या सा ही जीवन रहा
उस पर मानसिकता का भी दबाव रहा
ना कभी विचार मिले
ना कभी मुझे सराहा गया
ना मेरे घर में मेरा कोई
निर्णय कभी माना गया
सब पर बस उसी का एकाधिकार रहा
बोलो बापू जवाब दो
तुमने ऐसा क्यों किया
मेरा और उसका ना फर्क देखा
सिर्फ अपनी जिम्मेदारी समझ
क़र्ज़ सा जीवन से उतार दिया
मगर कभी ना जाना
कैसे नारकीय जीवन मैंने जीया
बेमेल विवाह का सबसे बड़ा
यही दुष्परिणाम रहा
वो मेरे जीवन का सुनहरा पन्ना ना कभी बना
सिर्फ शरीर से शरीर का संयोग रहा
वो भी उसकी मर्ज़ी पर
जब चाहे जैसे चाहे उपभोग हुआ
ऐसे में कैसे ना कुंठा जागृत होगी
कैसे उसके लिए मन में कोई पीर उठेगी
जिसने ना कभी मेरी कोई पीर जानी
जिसने मुझे सिर्फ अपनी जरूरत का सामान समझा
रोज ओढ़ा
और बिछाया
फिर मुँह ढांप कर सो गया
इंसान हूँ मैं भी
उत्कट अभिलाषाएं हैं मेरी भी
मगर जब तक उन अभिलाषाओं का जागरण हुआ
उससे पहले तो उसका पौरुष ध्वस्त हुआ
अब कैसे उम्र यूँ गुजरेगी
क्या रोज काँटों पर ना सिसकेगी
मर्यादा की बेड़ियाँ मेरे पाँव ना जकडेगी
क्या अपोषित कुंठाएं जन्म नहीं लेंगी
हर कोई अंकुश ना रख पाता है
संयम का जीवन से गहरा नाता है
मगर उम्र और इच्छाओं के आगे
सब बेमानी हो जाता है
तब उपदेश ना कोई भाता है
अब ऐसे में यदि मैं कोई गलत कदम उठा लूं
उसका साथ छोड़ दूँ
या
कोई दूजा उपाय खोज लूं
कहो बापू .......क्या मैं दोषी कहलाऊंगी
जब उसे उस उम्र में मुझसे
ब्याहने में ना शर्म आई
अपनी जरूरत की पूर्ति को
उसने ये राह अपनाई
तो क्या आज वो ही राह
मैं नहीं अपना सकती
क्या मैं कुल कलंकी कहलाऊंगी
क्या तमाम दुनिया के अंकुश
मुझ पर ही लागू होते हैं
क्या मेरी जरूरतों का कोई मोल नहीं
जवाब दो बापू ...........आज तुम्हें जवाब देना होगा
बेमेल विवाह के इस दुष्परिणाम का  तुम्हें साक्षी रहना होगा


दूसरा दुष्परिणाम


यूँ तो होते हैं दुनिया में

ब्याह रोज ही
जोड़े बनते हैं सभी तरह के
कभी मन से तो कभी बेमन से
और मन से बने जोड़े तो
फिर भी साथ निबाह लेते हैं
मगर बेमन से बने जोड़े
या दबाव में बने जोड़े
एक दिन टूट ही जाते हैं
उस पर यदि प्रश्न
खूबसूरती बनी हो
सौंदर्य ही जहाँ पैमाना हो
और दूसरा साथी कुरूपता की पराकाष्ठा हो
कैसे वैवाहिक जीवन संपूर्ण हो
कैसे ना वहाँ अनिश्चितता हो
जहाँ विश्वास सबसे पहले धराशायी होता है
साथी को कोई प्रशंसनीय दृष्टि से देखे तो भी शक होता है
साथी की सुन्दरता ही अभिशाप बन जाती है
चाहे ज़माने में कितना ही सराही जाए
मगर अपने साथी से ही दुत्कारी जाती है
तब सुन्दरता भी श्रापित हो जाती है
बेमेल विवाह में ये एक कड़ी और जुड़ जाती है
जहाँ मानसिक और शारीरिक उपयोगिता गौण हो जाती है
बस अंतस पर तो जैसे धुंध सी पड़ जाती है
जीवन तहस नहस हो जाता है
विश्वास का दामन छूट जाता है
बस मन के आँगन में अविश्वास का पौधा ही लहराता है
तब बेमेल विवाह का भयानक दुष्परिणाम
नज़र आता है
साथी कुंठाग्रस्त हो जाता है
और अपनी कुंठा में
या तो खुद को नुक्सान पहुँचाता है
या फिर साथी को ही बर्बाद कर डालता है
या फिर
उसे मार खुद भी मर जाता है
या उसका जीवन तानों बाणों से
दुश्वार कर देता है
घर से निकलना , किसी से बोलना
हँसना सब पर पहरे लग जाते हैं
तब बेमेल विवाह का दुष्परिणाम सामने आता है
शक के बीज में दो जीवन तबाह हो जाते हैं
क्योंकि मन में ये विश्वास काबिज़ हो जाता है
मेरा साथी ना मुझसे वफादार रहता है
बस इसी कुंठा में एक और परिवार तबाह होता है
कोई दबाव सह लेता है तो कोई मानसिक रूप से विक्षिप्त हो जाता है

अन्य  दुष्परिणाम


यूँ तो हम  २१ वीं सदी में जीते हैं

फिर भी खून का घूँट पीते हैं
दबाव में आकर जीवन बर्बाद कर लेते हैं
कभी पारिवारिक स्थिति में अंतर
तो कभी दहेज़ की कमी
तो कभी शैक्षिक अंतर
तो कभी हीन भावना
तो कभी उच्च ओहदा होना
जीवन बर्बाद कर देते हैं
कहीं पारिवारिक हैसियत इतनी हावी होती है
साथी को दोयम दर्ज़ा देती है
जो ना सम्बन्ध मधुर रख पाती है
बात बात पर हैसियत का दर्शन होता है
जिस पर साथी कुंठाग्रस्त होता है
बस ऐसे अनुबंधों की परिणति
अंत में विलगाव पर ही ठहर जाती है
और उसमे सबसे ज्यादा सहना
औरत को ही पड़ता है
बेमेल विवाह की सबसे बड़ी पीड़ित वो ही होती है
जहाँ कभी अहसान उतारने के लिए
तो कभी बचपन का वादा निभाने के लिए
तो कभी अपना क़र्ज़ उतारने के लिए
वस्तु सम उपभोग की वस्तु बनती है
एक हाथ से दूसरे हाथ में गुजरती है
जहाँ शैक्षिक अंतर होता है
वहाँ तो और भी जीना दुश्वार होता है
बात बात पर गंवार के ताने सहती है
चाहे कितनी कोशिश कर ले
मगर कभी ना आदर्श सुयोग्य स्त्री होने का दर्जा पाती है
वहाँ भी वो सिर्फ एक भोग्या ही बन जाती है
और कहीं कहीं तो अलगाव की नौबत भी आ जाती है
जहाँ पारिवारिक, वैचारिक , शारीरिक , आर्थिक या शैक्षिक
अंतर होता है वहाँ तो बेमेल विवाह का दुष्परिणाम
अलगाव में ही परिणत होता है
बेमेल विवाह की परिणति
या तो आँसुओं में
या चिता पर ही होती है
कोई तलाकशुदा तो कोई विक्षिप्तता
का जीवन जीता है
और जो सह नहीं पाता
वो ख़ुदकुशी को प्रेरित होता है
ऐसे बेमेल विवाह जीवन भर का बोझ बन जाते हैं
जो ना ढोए जाते ना सहेजे जाते हैं
आखिर कब हम समझेंगे
आखिर कब हम ये जानेगे
कब हम बेटियों के भविष्य की सोचेंगे
कब हम अपनी मानसिकता को बदलेंगे
और समझेंगे हमारे निर्णय कैसे
समाज को दूषित कर रहे हैं
खोखले रीती रिवाजों की भेंट चढ़ रहे हैं
और अपनों के सुखो की ही बलि ले रहे हैं
कैसे एक स्वस्थ समाज का निर्माण हो
जब ऐसी अनदेखी हम करते रहेंगे
अब हमें ही नजरिया बदलना होगा
आपसी विश्वास और सहिक्ष्णुता ही
किसी रिश्ते की नींव होते हैं
ये बात अब सबको समझना होगा
और बेमेल विवाह के दुष्परिणामों का
आईना समाज को दिखाना होगा
तभी स्वस्थ भारत निर्माण होगा
तभी नया सूर्योदय होगा ..............