आह !मेरी रोटियाँ अब सिंकती ही नही
आदत जो हो गयी है तुम्हारे अंगारों की
हे! एक अंगार तो और जलाओ
अंगीठी थोड़ी और सुलगाओ
ज़रा फूंक तो मारो फूंकनी से
ताकि कुछ तो और तपिश बढे
देखो तो ज़रा रोटी मेरी अभी कच्ची है ……
पकने के लिये मन की चंचलता पर कुछ ज़ख्मों का होना जरूरी होता है ……देव मेरे!
अमर होने के लिए जरूरी नहीं अमृत ही पीया जाये