वक्त के उस छोर पर खड़े तुम
और इस छोर पर खडी मैं
फिर भी एक रिश्ता तो जरूर है
कोई ना कोई कड़ी तो जरूर है
हमारे बीच यूँ ही तो नहीं
संवादों का आदान प्रदान होता
चाहे बीच में गहन अंधकार है
नहीं है कोई साधन देखने का
जानने का एक दूजे को
मगर फिर भी
कोई तो सिरा है
जो स्पंदन के सिरों को जोड़ता है
वरना यूँ ही थोड़े ही
सूर्योदय के साथ
मिलन की दुल्हन साज श्रृंगार किये
प्रतीक्षारत होती
कभी अपनी चूड़ियों की खन खन से
तो कभी पायल की रून झुन से
अपनी भावनाओं का आदान प्रदान करती
वैसे भी सुना है
स्पंदन शब्दों के मोहताज नहीं होते
देखो तो ज़रा
ना तुमने मुझे देखा
ना जाना ना चाहा
मगर फिर भी एक डोर तो है
हमारे बीच
यूँ ही थोड़े ही रोज
कोई किसी का
वक्त के दूसरे छोर पर खड़ा
इंतज़ार करता है
मैं तो ज़िन्दगी गुज़ार देती यूँ ही
मगर वक्त की कुचालें कोई कब समझा है
यूँ ही थोड़े ही वक्त का पहरा रहा है
ये स्पंदनों के शाहकार भी अजीब होते हैं
लफ़्ज़ों को बेमानी कर
अपनी मर्ज़ी करते हैं
देखो तो
वक्त अब डूबने को अग्रसर है
और तुम ना जाने
कौन से दूसरे ब्रह्माण्ड में चले गए हो
जो समय की सीमा से भी मुक्त हो गए हो
मगर मैं आज भी
इंतज़ार की बैसाखियों पर खडी
तुम्हारे नाम की
हाँ हाँ नाम की ..........जानती हूँ
ना तुम्हारा कोई नाम है
ना मेरा
ना तुमने मुझे जाना है
ना मैंने
फिर भी एक नाम दिया है तुम्हें मैंने…ओ प्रदीप्तनयन!
बस उसी नाम का दीप जलाए बैठी हूँ
ओह ! आह ! उम्र के सिरे कितने कमज़ोर निकले
स्पंदनों की सांसें भी थमने लगीं
शायद शब्दों का अलगाव रास नहीं आया
तभी धुंध के उस पार सिमटा तुम्हारा वजूद
किसी स्पंदन का मोहताज ना रहा
और मैं अपनी साँसों को छील रही हूँ
शायद कोई कतरा तो निकले
जिसमे कोई स्पंदन तो बचा हो
और इंतज़ार मुकम्मल हो जाए
ये वक्त की कसौटी पर इंतज़ार की रूहों का सिसकना देखा है कभी ?
ए .........एक बार हाथ तो बढाओ
एक बार गले तो लगाओ
और दम निकल जाए
फिर मुकम्मल ज़िन्दगी की चाह कौन करे ?