तुम्हारे घर की
चौखट पर
आस का दीप
जलाये पड़ा
मेरा मन
और रसोई में
खनकती
चूड़ियों की खनक
घर के आँगन में
छम- छम करती
पायल की छनक
और बैठक में
गूंजती खिलखिलाहट
कभी चीखती
चिल्लाती , हँसती
मुस्कुराती
कभी ख़ामोशी
की आवाज़
और बिस्तर के
एक छोर पर
प्यार , मनुहार
और दूसरे छोर पर
सिसकते , तड़पते
पलों का हिसाब
ये तो कण -कण में
बिखरे अहसास
और इन सबसे अलग
तुम्हारे तसव्वुर में
तुम्हारे ख्यालों में
तुम्हारे मन में
बसी वो
जीती -जागती
प्रतिमा
जिसकी रौशनी
से रोशन
तुम्हारे दिल का
हर कोना
कैसे इतने सारे
भीगे मौसमों
में से अपना
मौसम ढूँढ
पाओगे
कैसे समेटोगे
उन यादों को
जो तुम्हारे
वजूद का
जीता -जागता
हिस्सा हैं
कैसे मेरी
यादों के
बिखरे सामान
को समेट
पाओगे
देखो तुम्हारा
घर मैंने कैसे
अपनी यादों से
भर दिया है
हर कोने में
मेरा ही अक्स
चस्पां है
तन के बँधन
भले ही टूट जायें
मन के बन्धनों
से कैसे खुद को
आज़ाद कर पाओगे
आखिर इक
उम्र गुजारी है
हमने साथ साथ
कुछ तो निशाँ पड़े होंगे .......................
पृष्ठ
गुरुवार, 30 सितंबर 2010
मंगलवार, 28 सितंबर 2010
"शब्द " और " काव्य "
काव्य शब्द है
या शब्द काव्य
या फिर भावों का
समन्वय
शब्द को
सौंदर्य प्रदान
कर काव्य
बनता है
या फिर
काव्य शब्द में
सिमटा एक
निर्विकार
निर्लेप
अनंत
आकाश है
जहाँ
शब्द ही शब्द है
निराकार में
आकार है
या फिर
आकारबद्ध हो
शब्द
काव्य सौष्ठव
बन अपने अनेक
अर्थ प्रस्तुत
करता है
एक में छिपे अनेक
भावों का समन्वय है
शब्द
या काव्य की उच्च
अवस्था को
प्राप्त करता
गरिमाबोध
करता है शब्द
या शब्द सिर्फ
सामाजिक सरोकारों
का प्रतीक है
या नितांत
व्यक्तिगत
अभिव्यक्ति का
माध्यम
या शब्द काव्य की
गुणवत्ता का
श्रेष्ठ परिचायक है
काव्य को
खुद में समेटता
शब्द
भावो के
प्रस्तुतीकरण का
माध्यम मात्र है
या फिर
प्रणव - सा
निनाद करता
दिशाओं को
गुंजार करता
शब्द
स्वयं में
समाहित करता
काव्यात्मकता का
लयबद्ध संगीत है
या शब्द काव्य
या फिर भावों का
समन्वय
शब्द को
सौंदर्य प्रदान
कर काव्य
बनता है
या फिर
काव्य शब्द में
सिमटा एक
निर्विकार
निर्लेप
अनंत
आकाश है
जहाँ
शब्द ही शब्द है
निराकार में
आकार है
या फिर
आकारबद्ध हो
शब्द
काव्य सौष्ठव
बन अपने अनेक
अर्थ प्रस्तुत
करता है
एक में छिपे अनेक
भावों का समन्वय है
शब्द
या काव्य की उच्च
अवस्था को
प्राप्त करता
गरिमाबोध
करता है शब्द
या शब्द सिर्फ
सामाजिक सरोकारों
का प्रतीक है
या नितांत
व्यक्तिगत
अभिव्यक्ति का
माध्यम
या शब्द काव्य की
गुणवत्ता का
श्रेष्ठ परिचायक है
काव्य को
खुद में समेटता
शब्द
भावो के
प्रस्तुतीकरण का
माध्यम मात्र है
या फिर
प्रणव - सा
निनाद करता
दिशाओं को
गुंजार करता
शब्द
स्वयं में
समाहित करता
काव्यात्मकता का
लयबद्ध संगीत है
शनिवार, 25 सितंबर 2010
तुम मुझे जानते हो ?
मुझे पढने के
बाद भी
मैं समझ
आने वाली नही
इसलिए कभी
मत सोचना
कि तुम मुझे जानते हो ?
कुछ दायरे
सोच से भी
उपर होते हैं
बहुत दूर हूँ
तुम्हारी सोच से
तुम्हारी सोच
सिर्फ मेरे
अस्तित्व तक ही
पहुंचेगी
मगर मेरी
सोच तक नहीं
मेरे ख्यालों तक नहीं
मेरे सीने में उठते
ज्वार भाटों तक नहीं
उन कसमसाते
सवालों तक नहीं
उन ख्वाब में बुनी
चादरों तक नहीं
उन दिल के खामोश
सूने तहखानो तक
कभी नहीं पहुँच पायेगी
तुम्हारी सोच
फिर कैसे कह सकते हो
तुम मुझे जानते हो ?
कुछ शख्सियत
कुछ किताबें
उसके कुछ अक्षर
गूढार्थ समेटे होते हैं
कहीं गूढार्थ
तो कहीं भावार्थ
हर अहसास
हर भाव
हर ख्वाब
का अर्थ
ना ढूँढ पाओगे
बाज़ार में
भावों की
कोई डिक्शनरी
नही मिलती
फिर कैसे कह सकते हो
तुम मुझे जानते हो ?
हर अनकहे
शब्द का अर्थ
हर जज़्बात का
भीगा टुकड़ा
हर याद की
अनकही चाहत
हर मौसम की
सर्द हवाओं और
लू के गर्म
थपेड़ों में
चकनाचूर हुए कुछ
बोझिल ख्यालात
कैसे इन सबसे
पार पाओगे
कहाँ तक इनके
अर्थ ढूँढ पाओगे
शायद सागर से तो
मोती ढूँढ भी लाओ
मगर मुझमे छुपी "मैं"
कहाँ ढूँढ पाओगे
कुछ ना जान पाओगे
सिर्फ उपरी आडम्बर है
यहाँ कोई किसी को
पहचान नहीं पाता
एक ज़िन्दगी साथ
गुजारने के बाद भी
फिर जानना तो
मुमकिन ही नहीं
इसलिए
अब फिर कभी ना कहना
तुम मुझे जानते हो ?
बाद भी
मैं समझ
आने वाली नही
इसलिए कभी
मत सोचना
कि तुम मुझे जानते हो ?
कुछ दायरे
सोच से भी
उपर होते हैं
बहुत दूर हूँ
तुम्हारी सोच से
तुम्हारी सोच
सिर्फ मेरे
अस्तित्व तक ही
पहुंचेगी
मगर मेरी
सोच तक नहीं
मेरे ख्यालों तक नहीं
मेरे सीने में उठते
ज्वार भाटों तक नहीं
उन कसमसाते
सवालों तक नहीं
उन ख्वाब में बुनी
चादरों तक नहीं
उन दिल के खामोश
सूने तहखानो तक
कभी नहीं पहुँच पायेगी
तुम्हारी सोच
फिर कैसे कह सकते हो
तुम मुझे जानते हो ?
कुछ शख्सियत
कुछ किताबें
उसके कुछ अक्षर
गूढार्थ समेटे होते हैं
कहीं गूढार्थ
तो कहीं भावार्थ
हर अहसास
हर भाव
हर ख्वाब
का अर्थ
ना ढूँढ पाओगे
बाज़ार में
भावों की
कोई डिक्शनरी
नही मिलती
फिर कैसे कह सकते हो
तुम मुझे जानते हो ?
हर अनकहे
शब्द का अर्थ
हर जज़्बात का
भीगा टुकड़ा
हर याद की
अनकही चाहत
हर मौसम की
सर्द हवाओं और
लू के गर्म
थपेड़ों में
चकनाचूर हुए कुछ
बोझिल ख्यालात
कैसे इन सबसे
पार पाओगे
कहाँ तक इनके
अर्थ ढूँढ पाओगे
शायद सागर से तो
मोती ढूँढ भी लाओ
मगर मुझमे छुपी "मैं"
कहाँ ढूँढ पाओगे
कुछ ना जान पाओगे
सिर्फ उपरी आडम्बर है
यहाँ कोई किसी को
पहचान नहीं पाता
एक ज़िन्दगी साथ
गुजारने के बाद भी
फिर जानना तो
मुमकिन ही नहीं
इसलिए
अब फिर कभी ना कहना
तुम मुझे जानते हो ?
बुधवार, 22 सितंबर 2010
कोपभाजन से कोखभाजन तक .................
तुम्हारे
कोपभाजन से
कोखभाजन तक
सिसकती मर्यादा
आहत हो जाती है
जब बर्बरता की
चरम सीमा को
लाँघ जाते हैं
अपने ही लहू
के दुश्मन
अपना ही लहू बहाते हैं
फिर भी
मुख पर न
मलाल लाते हैं
तब सड़ांध भरे
घुटते कमरों में
सिसकती ममता
आहत हो जाती है
मुखौटे पर
लगे मुखौटे
भयावहता का
दर्शन करा जाते हैं
फिर भी
मर्यादा की
हर सीमा को
लाँघ कर भी
इंसान कहाते हैं
कोपभाजन से
कोखभाजन तक
सिसकती मर्यादा
आहत हो जाती है
जब बर्बरता की
चरम सीमा को
लाँघ जाते हैं
अपने ही लहू
के दुश्मन
अपना ही लहू बहाते हैं
फिर भी
मुख पर न
मलाल लाते हैं
तब सड़ांध भरे
घुटते कमरों में
सिसकती ममता
आहत हो जाती है
मुखौटे पर
लगे मुखौटे
भयावहता का
दर्शन करा जाते हैं
फिर भी
मर्यादा की
हर सीमा को
लाँघ कर भी
इंसान कहाते हैं
शनिवार, 18 सितंबर 2010
पुरुष तुम अब भी कहाँ बदले हो?
पुरुष
तुम अब भी
कहाँ बदले हो?
अपने व्यंग्य बाणों
से कलेजा
बींध देते हो
उम्र के किसी
भी दौर में
तुम में ना
परिवर्तन आया
तुम्हारी कुंठित सोच
अवचेतन में बैठे
पौरुष के दंभ से
कभी ना बाहर
आ पायी है
हर बार ज़हर
बुझे नश्तर ही
चुभाते आये हो
अपने प्रगति पथ पर
नारी के त्याग ,
समर्पण ,सहयोग
को हमेशा
नकारते आये हो
उसके वजूद को
खिलौना समझ
खेलना ही तुमको
आता है
कहाँ नारी ह्रदय को
जीतना तुमको आता है
कल भी नारी को
दुत्कारा था
उसे त्याग, तपस्या
की मूरत बना
बलि वेदी पर
चढ़ाया था
आज भी नारी को
शोषित करते हो
कभी उसका
सौंदर्य भुनाते हो
कभी मानसिक
शोषण करते हो
प्रगति के नाम पर
हर बार
भावनाओं का
बलात्कार करते हो
कल भी तुम
नहीं बदलोगे
अपनी कुंठित
सोच से ना
उबरोगे
चाहे अन्तरिक्ष
भ्रमण कर आओ
चाहे प्रगति के
कितने सोपान
तुम चढ़ जाओ
पर अपनी पुरुषवादी
प्रवृत्ति से ना
मुक्त हो पाओगे
जब तक
अपने अंतस में
बैठे झूठे दंभ से
बाहर ना आओगे
तुम अब भी
कहाँ बदले हो?
अपने व्यंग्य बाणों
से कलेजा
बींध देते हो
उम्र के किसी
भी दौर में
तुम में ना
परिवर्तन आया
तुम्हारी कुंठित सोच
अवचेतन में बैठे
पौरुष के दंभ से
कभी ना बाहर
आ पायी है
हर बार ज़हर
बुझे नश्तर ही
चुभाते आये हो
अपने प्रगति पथ पर
नारी के त्याग ,
समर्पण ,सहयोग
को हमेशा
नकारते आये हो
उसके वजूद को
खिलौना समझ
खेलना ही तुमको
आता है
कहाँ नारी ह्रदय को
जीतना तुमको आता है
कल भी नारी को
दुत्कारा था
उसे त्याग, तपस्या
की मूरत बना
बलि वेदी पर
चढ़ाया था
आज भी नारी को
शोषित करते हो
कभी उसका
सौंदर्य भुनाते हो
कभी मानसिक
शोषण करते हो
प्रगति के नाम पर
हर बार
भावनाओं का
बलात्कार करते हो
कल भी तुम
नहीं बदलोगे
अपनी कुंठित
सोच से ना
उबरोगे
चाहे अन्तरिक्ष
भ्रमण कर आओ
चाहे प्रगति के
कितने सोपान
तुम चढ़ जाओ
पर अपनी पुरुषवादी
प्रवृत्ति से ना
मुक्त हो पाओगे
जब तक
अपने अंतस में
बैठे झूठे दंभ से
बाहर ना आओगे
बुधवार, 15 सितंबर 2010
दुनिया की अदालत में खड़े भगवान ?
कल कन्हैया
सपने में आया
उदास , हताश
बड़ा व्यथित था
दुनिया के
आरोपों से
प्रश्न उठाया
क्यूँ दुनिया
जीने नहीं देती है
किसी भी युग में
हर युग में
आरोप लगाया
और जनता की
अदालत में
मुझे ही दोषी
ठहराया
जब राम
बनकर आया
मर्यादा में रहा
मगर वो भी ना
किसी को भाया
नारी का
सम्मान किया
उसे यथोचित
स्थान दिया
एक पत्नी व्रत लिया
ता- उम्र उस
व्रत को निभाया
मगर फिर भी
खुद को ही
कटघरे में
खड़ा पाया
क्यूँ सीता को
बनवास दिया?
क्यूँ उस पर
अविश्वास किया?
क्यूँ उसकी
अग्निपरीक्षा ली?
ताने मारा
करती है
दुनिया
मगर इतना ना
समझ पाती है
मर्यादा में रहकर
राजा का कर्त्तव्य
भी निभाना था
प्रीत को एक बार
फिर सूली पर
चढ़ाना था
मेरा तो विशवास
अटल था
मगर दुनिया के
आरोपों से
सीता को मुक्त
करना था
और दुनिया में
रहकर
दुनिया का धर्म
भी निभाना था
इसीलिए
उस दर्द से
मुझे भी तो
गुजरना था
वो बनवास
महलों में रहकर
मुझे भी तो
भोगना था
जब कृष्ण बन
कर आया
तब भी
खुद को
दुनिया की
अदालत
में दोषी ही पाया
क्यूँ राधा के प्रेम
को ना स्वीकारा ?
उसे पत्नी का दर्जा
क्यूँ ना दिया?
क्यूँ उससे
विश्वासघात किया?
क्यूँ उसके प्रेम
को ना स्वीकार किया?
मगर मेरा दर्द
ना किसी ने जाना
संसार का दिया
वाक्य मुझे भी
निभाना था
"कर्त्तव्य हर
भावना से
बड़ा होता है "
इसी को ज़िन्दगी
भर निभाता रहा
प्रीत का दीया
अश्रुओं से
जलाता रहा
मगर कभी भी
कोई भी भाव
ना मुख पर
लाता रहा
निर्मोही, निर्लिप्त
भाव से हर
कार्य निभाता रहा
गर राधा को
पत्नी बना
लिया होता तो
ये ज़माना उसे भी
धरती में समा
जाने को विवश
कर देता
या फिर कोई
एक नया
इलज़ाम उस पर
भी लगा देता
और फिर एक बार
दो प्रेमी
विरह अगन में
जल रहे होते
मिल कर भी
ना मिले होते
तब भी तो दुनिया
ने ही विवश किया था
वो निर्णय लेने के लिए
एक आदर्श राजा के
फ़र्ज़ की खातिर
पति हार गया था
और ये दुनिया
जीत गयी थी
इसीलिए प्रण
किया था मैंने
अगले जन्म
अपने प्रेम को
दुनिया के हाथ
की कठपुतली
ना बनने दूँगा
वचन लिया था
सीता ने मुझसे
ना यूँ अगले जन्म
रुसवा करना
चाहे पत्नी का
दर्जा ना देना
मगर हमारे
प्रेम को
अमर कर देना
जो इस जन्म
अधूरा छूट गया
उसे अगले जन्म
पूरा कर देना
नहीं चाहिए
संग ऐसा जो
दुनिया दीवार बने
वो ही वादा
मैंने निभाया
मगर वो भी
दुनिया को
ना रास आया
ना पत्नी को
किसी ने जाना
ना ही प्रेम को
पहचाना
राधा संग
अपने प्रेम को
दिव्यता की
ऊँचाइयों तक
पहुँचाया
खुद से पहले
राधा को पुजवाया
संसार को
प्रेम करना सिखाया
मैंने और राधा ने
तो प्रेम की पूर्णता
पा ली थी
दूर होकर भी
कभी दूर ना हुए थे
ह्रदय तो हमारे
इक दूजे में ही
समाये थे
दिखने में ही
दो स्वरुप थे
असल में तो
एकत्त्व में
विलीन थे
फिर कहो कैसे
राधा को
धोखा दिया मैंने
उसी को दिया
वचन अगले
जन्म में
निभाया मैंने
मगर तब भी
दुनिया की कसौटी
पर खरा ना
उतर पाया मैं
अब बताओ
कैसे खुद को
निर्दोष साबित करूँ
अपनी ही बनाई
दुनिया के
इल्जामों से
कहो कैसे
खुद को
मुक्त करूँ
दुनिया ना
खुद जीती है
चैन से
ना मुझे
जीने देती है
आखिर क्या
चाहती है
दुनिया मुझसे ?
राधा अष्टमी पर राधा जी को समर्पित श्रद्धा सुमन .
सपने में आया
उदास , हताश
बड़ा व्यथित था
दुनिया के
आरोपों से
प्रश्न उठाया
क्यूँ दुनिया
जीने नहीं देती है
किसी भी युग में
हर युग में
आरोप लगाया
और जनता की
अदालत में
मुझे ही दोषी
ठहराया
जब राम
बनकर आया
मर्यादा में रहा
मगर वो भी ना
किसी को भाया
नारी का
सम्मान किया
उसे यथोचित
स्थान दिया
एक पत्नी व्रत लिया
ता- उम्र उस
व्रत को निभाया
मगर फिर भी
खुद को ही
कटघरे में
खड़ा पाया
क्यूँ सीता को
बनवास दिया?
क्यूँ उस पर
अविश्वास किया?
क्यूँ उसकी
अग्निपरीक्षा ली?
ताने मारा
करती है
दुनिया
मगर इतना ना
समझ पाती है
मर्यादा में रहकर
राजा का कर्त्तव्य
भी निभाना था
प्रीत को एक बार
फिर सूली पर
चढ़ाना था
मेरा तो विशवास
अटल था
मगर दुनिया के
आरोपों से
सीता को मुक्त
करना था
और दुनिया में
रहकर
दुनिया का धर्म
भी निभाना था
इसीलिए
उस दर्द से
मुझे भी तो
गुजरना था
वो बनवास
महलों में रहकर
मुझे भी तो
भोगना था
जब कृष्ण बन
कर आया
तब भी
खुद को
दुनिया की
अदालत
में दोषी ही पाया
क्यूँ राधा के प्रेम
को ना स्वीकारा ?
उसे पत्नी का दर्जा
क्यूँ ना दिया?
क्यूँ उससे
विश्वासघात किया?
क्यूँ उसके प्रेम
को ना स्वीकार किया?
मगर मेरा दर्द
ना किसी ने जाना
संसार का दिया
वाक्य मुझे भी
निभाना था
"कर्त्तव्य हर
भावना से
बड़ा होता है "
इसी को ज़िन्दगी
भर निभाता रहा
प्रीत का दीया
अश्रुओं से
जलाता रहा
मगर कभी भी
कोई भी भाव
ना मुख पर
लाता रहा
निर्मोही, निर्लिप्त
भाव से हर
कार्य निभाता रहा
गर राधा को
पत्नी बना
लिया होता तो
ये ज़माना उसे भी
धरती में समा
जाने को विवश
कर देता
या फिर कोई
एक नया
इलज़ाम उस पर
भी लगा देता
और फिर एक बार
दो प्रेमी
विरह अगन में
जल रहे होते
मिल कर भी
ना मिले होते
तब भी तो दुनिया
ने ही विवश किया था
वो निर्णय लेने के लिए
एक आदर्श राजा के
फ़र्ज़ की खातिर
पति हार गया था
और ये दुनिया
जीत गयी थी
इसीलिए प्रण
किया था मैंने
अगले जन्म
अपने प्रेम को
दुनिया के हाथ
की कठपुतली
ना बनने दूँगा
वचन लिया था
सीता ने मुझसे
ना यूँ अगले जन्म
रुसवा करना
चाहे पत्नी का
दर्जा ना देना
मगर हमारे
प्रेम को
अमर कर देना
जो इस जन्म
अधूरा छूट गया
उसे अगले जन्म
पूरा कर देना
नहीं चाहिए
संग ऐसा जो
दुनिया दीवार बने
वो ही वादा
मैंने निभाया
मगर वो भी
दुनिया को
ना रास आया
ना पत्नी को
किसी ने जाना
ना ही प्रेम को
पहचाना
राधा संग
अपने प्रेम को
दिव्यता की
ऊँचाइयों तक
पहुँचाया
खुद से पहले
राधा को पुजवाया
संसार को
प्रेम करना सिखाया
मैंने और राधा ने
तो प्रेम की पूर्णता
पा ली थी
दूर होकर भी
कभी दूर ना हुए थे
ह्रदय तो हमारे
इक दूजे में ही
समाये थे
दिखने में ही
दो स्वरुप थे
असल में तो
एकत्त्व में
विलीन थे
फिर कहो कैसे
राधा को
धोखा दिया मैंने
उसी को दिया
वचन अगले
जन्म में
निभाया मैंने
मगर तब भी
दुनिया की कसौटी
पर खरा ना
उतर पाया मैं
अब बताओ
कैसे खुद को
निर्दोष साबित करूँ
अपनी ही बनाई
दुनिया के
इल्जामों से
कहो कैसे
खुद को
मुक्त करूँ
दुनिया ना
खुद जीती है
चैन से
ना मुझे
जीने देती है
आखिर क्या
चाहती है
दुनिया मुझसे ?
राधा अष्टमी पर राधा जी को समर्पित श्रद्धा सुमन .
सोमवार, 13 सितंबर 2010
पीड़ा का मर्म
कभी
मर्यादा का हनन
किया होता
दोस्त बन कर
दिल का दर्द
पी लिया होता
तो कुछ लम्हों
के लिए ही सही
मुझे मुझसे
छीन लिया होता
रूह पर गिरते
अश्कों पर
लब अपने
रख दिए होते
अश्को का
ज़हर सारा
पी लिया होता
तो मेरी रूह को
कुछ देर ही सही
तू जी लिया होता
रूह में जलते
सुर्ख अंगारों की
तपिश पर
हाथ रखा होता
दिल के हर
अंगार पर अपना
नाम लिखा होता
कुछ अश्रु बूँद
टपकायीं होती
तो दिल जलने
की आवाज़
तुझ तक भी
आई होती
मेरे दर्द की
कोई सीमा नहीं
अंतहीन दर्द के
सफ़र में
हमसफ़र
बना होता
इस सीमा का
अतिक्रमण
किया होता
इस रेखा को लाँघ
अन्दर आया होता
तो मेरी पीड़ा का
मर्म जान पाया होता
मर्यादा का हनन
किया होता
दोस्त बन कर
दिल का दर्द
पी लिया होता
तो कुछ लम्हों
के लिए ही सही
मुझे मुझसे
छीन लिया होता
रूह पर गिरते
अश्कों पर
लब अपने
रख दिए होते
अश्को का
ज़हर सारा
पी लिया होता
तो मेरी रूह को
कुछ देर ही सही
तू जी लिया होता
रूह में जलते
सुर्ख अंगारों की
तपिश पर
हाथ रखा होता
दिल के हर
अंगार पर अपना
नाम लिखा होता
कुछ अश्रु बूँद
टपकायीं होती
तो दिल जलने
की आवाज़
तुझ तक भी
आई होती
मेरे दर्द की
कोई सीमा नहीं
अंतहीन दर्द के
सफ़र में
हमसफ़र
बना होता
इस सीमा का
अतिक्रमण
किया होता
इस रेखा को लाँघ
अन्दर आया होता
तो मेरी पीड़ा का
मर्म जान पाया होता
शुक्रवार, 10 सितंबर 2010
"सूरज है वो "
सूरज है वो
सबसे ज्यादा
चमकना चाहा
सबके जीवन
प्राण बनना चाहा
सबसे ऊपर
उठना चाहा
जो चाहा
सब मिला
दूसरों को
ज़िन्दगी देना
आसान कब होता है
किसी को
जीवन देने के लिए
खुद की आहुति
दी जाती है
हर अभिलाषा को
होम किया जाता है
ताउम्र इक आग में
जलना होता है
तब किसी जीवन में
रौशनी की जाती है
शायद नहीं
जानता था
इसीलिए
जीवन भर
जलते रहने का
अभिशाप लिया
सोचा तो
इसे वरदान था
मगर बन
अभिशाप गया
शायद अब
जाना होगा
सूरज
होने का अर्थ
किसने जहाँ में
तपन को
अपनाया है
कौन किसी की
तपिश में
कब साथ दे पाया है
ये सफ़र तो
स्वयं के साथ
ही तय हो पाया है
कोई साथी
नहीं बनता
जलने वालों का
जीवन भर
तनहा सफ़र
तय करते रहना
और जलते रहना
जलने की पीड़ा को
स्वयं में ही
समाहित करना
और फिर भी
उफ़ ना करना
अपनी चिता
स्वयं जलाकर
सबकी ज़िन्दगी
रोशन करना
शायद इसीलिए
"सूरज है वो "
बुधवार, 8 सितंबर 2010
प्राची के पार.......................
मोहब्बत की थी
हम दोनों ने
इश्क की सीढियां
चढ़ी थीं
हम दोनों ने
ज़माने से लड़ा था
दोनों के लिए
याद है तुम्हें
प्राची के पार
मिलने का
वादा किया था
डूबता सूरज
गवाह बना था
तेरी ज़ुल्फ़ से
अठखेलियाँ करती
पवन अपने
पंखों पर
हमारे प्रेम का
संदेस ले उड़
चली थी
सारा चमन
महका रही थी
और हम दोनों
मिलेंगे कभी
इसी चाह में
इसी विश्वास पर
इसी आस पर
जिए जा रहे थे
मोहब्बत के
ख्वाब बुने
जा रहे थे
ना जाने कहाँ से
वो बवंडर आया
ख्वाब के महल
को ढहा गया
ज़माने को ना
इश्क रास आया
तुम्हें मजबूर
किया गया
रिश्तों की
बेड़ियों में
जकड़ा गया
इज्ज़त के नाम
पर ठगा गया
लड़की होने की
मजबूरी पर
कुर्बान किया गया
और फिर उस दिन
जब तुम दुल्हन
बनीं किसी और की
मुझसे मेरी खुशबू ,
मेरी सांसें ,
मेरी जिंदा
रहने की
हर वजह छीन
ली गयी
जब तुम्हें देखा
आखिरी बार
दुल्हन के
लिबास में
विदाई के वक़्त
अंग सब
शिथिल हो गए
आँसू आँख में
जज़्ब हो गए
धडकनों ने जैसे
धडकना छोड़
दिया था
दिमाग
चेतनाशून्य
हो गया था
दिल तो तेरे
हवन कुंद की
आग में पहले ही
भस्म हो गया था
और रूह
तेरे क़दमों तले
कुचली गयी थी
जिस पर
पाँव रख
तू डोली में
चढ़ी थी
हर अंग
स्पन्दनहीन था
बस रूह का
ज़िंदा पिंजर
खड़ा था
तेरे एक
वादे की
सलीब पर
टंगा मेरा
वादा खड़ा था
कि
प्राची के पार
मिलन होगा
हमारा
मगर तूने
बता दिया
प्राची के पार
जहाँ और भी है
जहाँ और भी है.................
हम दोनों ने
इश्क की सीढियां
चढ़ी थीं
हम दोनों ने
ज़माने से लड़ा था
दोनों के लिए
याद है तुम्हें
प्राची के पार
मिलने का
वादा किया था
डूबता सूरज
गवाह बना था
तेरी ज़ुल्फ़ से
अठखेलियाँ करती
पवन अपने
पंखों पर
हमारे प्रेम का
संदेस ले उड़
चली थी
सारा चमन
महका रही थी
और हम दोनों
मिलेंगे कभी
इसी चाह में
इसी विश्वास पर
इसी आस पर
जिए जा रहे थे
मोहब्बत के
ख्वाब बुने
जा रहे थे
ना जाने कहाँ से
वो बवंडर आया
ख्वाब के महल
को ढहा गया
ज़माने को ना
इश्क रास आया
तुम्हें मजबूर
किया गया
रिश्तों की
बेड़ियों में
जकड़ा गया
इज्ज़त के नाम
पर ठगा गया
लड़की होने की
मजबूरी पर
कुर्बान किया गया
और फिर उस दिन
जब तुम दुल्हन
बनीं किसी और की
मुझसे मेरी खुशबू ,
मेरी सांसें ,
मेरी जिंदा
रहने की
हर वजह छीन
ली गयी
जब तुम्हें देखा
आखिरी बार
दुल्हन के
लिबास में
विदाई के वक़्त
अंग सब
शिथिल हो गए
आँसू आँख में
जज़्ब हो गए
धडकनों ने जैसे
धडकना छोड़
दिया था
दिमाग
चेतनाशून्य
हो गया था
दिल तो तेरे
हवन कुंद की
आग में पहले ही
भस्म हो गया था
और रूह
तेरे क़दमों तले
कुचली गयी थी
जिस पर
पाँव रख
तू डोली में
चढ़ी थी
हर अंग
स्पन्दनहीन था
बस रूह का
ज़िंदा पिंजर
खड़ा था
तेरे एक
वादे की
सलीब पर
टंगा मेरा
वादा खड़ा था
कि
प्राची के पार
मिलन होगा
हमारा
मगर तूने
बता दिया
प्राची के पार
जहाँ और भी है
जहाँ और भी है.................
सोमवार, 6 सितंबर 2010
चाहे हस्ती ही मेरी मिट जाये
कोई ऐसी शय खोजो यारों
दिल को मेरे सुकूँ आ जाये
धडकनों को गज़ल बनाओ यारों
शायद गुलाब कोई खिल जाये
उनके चौबारे को ऐसे सजा दो यारों
शायद् फिर कोई शहीद हो जाये
उसके लबों पर मुस्कुराहट सजा दो यारों
चाहे लहू मेरा बह जाये
दर्द के बिस्तर पर सुला दो मुझको
बस एक बार वो हँस जाये
कोई अहले -करम फ़रमाओ यारों
वो जी जाये और मैं मर जाऊँ
कुछ उसके भरम तोड दो यारों
चाहे मै शहर--ए-बदर हो जाऊँ
कुछ तो उसको सुकून मिलेगा यारों
चाहे हस्ती ही मेरी मिट जाये
दिल को मेरे सुकूँ आ जाये
धडकनों को गज़ल बनाओ यारों
शायद गुलाब कोई खिल जाये
उनके चौबारे को ऐसे सजा दो यारों
शायद् फिर कोई शहीद हो जाये
उसके लबों पर मुस्कुराहट सजा दो यारों
चाहे लहू मेरा बह जाये
दर्द के बिस्तर पर सुला दो मुझको
बस एक बार वो हँस जाये
कोई अहले -करम फ़रमाओ यारों
वो जी जाये और मैं मर जाऊँ
कुछ उसके भरम तोड दो यारों
चाहे मै शहर--ए-बदर हो जाऊँ
कुछ तो उसको सुकून मिलेगा यारों
चाहे हस्ती ही मेरी मिट जाये
रविवार, 5 सितंबर 2010
शिक्षा का स्तर ---------कल और आज ?
आज के वक्त में शिक्षा ने अपना एक अलग मुकाम बना लिया है .अब हर बच्चे के लिए शिक्षा का क्या महत्त्व है ये ज्यादातर सभी को पता है मगर कभी वो भी वक्त था कि सिर्फ लड़कों को ही शिक्षा के योग्य समझा जाता था और लड़कियों की दुनिया सिर्फ घर में काम काज तक सीमित थी .मगर जैसे- जैसे शिक्षा का प्रसार होता गया शिक्षा का महत्त्व समझ आता गया और लड़कियों को भी आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया जाने लगा .
आज लड़कियां हर क्षेत्र में लड़कों के कंधे से कन्धा मिलाकर चलती हैं और घर के कामकाज भी उतनी ही चुस्ती से करती हैं .शिक्षा ने देश और समाज को एक नयी दिशा दी है मगर फिर भी कल और आज के शिक्षा के स्तर में काफी फर्क आ चुका है.
कल शिक्षा बेशक सबके लिए अनिवार्य नहीं थी मगर तब भी जो लगन होती थी वो अद्भुत होती थी . देश के लिए, समाज के लिए और घर परिवार के लिए कुछ करने का जज्बा होता था मगर आज शिक्षा सिर्फ पैसे कमाने का साधन बन कर रह गयीं है .शिक्षा का स्तर दिन प्रतिदिन गिरता जा रहा है. कोई मूल्य , कोई सिद्धांत नहीं रहे ...........बस पैसे के आगे कोई रिश्ता -नाता नहीं , सब छोटे हो गए हैं, बेमानी हो गए हैं ........................ये आज की शिक्षा की देन है .बेशक बड़ी बड़ी डिग्रियां मिल जाती हैं खूब नाम ,दौलत और शोहरत मिल जाती है मगर संस्कार नाम की दौलत से वंचित रह जाता है आज का समाज. छात्र जव तक हाई स्कूल में होता है! माता पिता का आज्ञाकारी होता है . इंटर में आने पर माता पिता की अवहेलना करता है! ग्रेज्यूएशन कर लेने के बाद स्वच्छंद हो जाता है और उसके बाद माता पिता को दुत्कारता और गालियां देता है!
क्या कहें अब ...............कल ज्यादा बढ़िया था कि आज ..............सबका अपना -अपना दृष्टिकोण होता है मगर अगर देखा जाए तो कल शिक्षा सिर्फ कमाई का साधन नहीं थी व्यावहारिक ज्ञान के साथ व्याकरणीय ज्ञान भी उत्तम था मगर आज ना तो व्यावहारिक ज्ञान है और ना ही व्याकरणीय ज्ञान...............ऐसे में आज की पीढ़ी से क्या उम्मीद की जा सकती है ............सिर्फ कुछ शब्द अंग्रेजी के बोल लेने से कोई शिक्षा का स्तर उच्च नहीं हो जाता ............आज किसी साक्षात्कार में जाने से पहले हर बच्चे को व्यावहारिक ज्ञान की शिक्षा लेने के लिए कोचिंग में जाना पड़ता है जबकि पहले ये सब शिक्षा के साथ - साथ व्यवहार में भी शामिल था..........बेशक आज भी व्यावहारिक ज्ञान जरूरी है मगर उसकी उपयोगिता सिर्फ साक्षात्कार तक ही सीमित हो कर रह गयीं है ..........एक बार जॉब मिल जाये उसके बाद सब भुला दिया जाता है या कहो रद्दी की टोकरी में डाल दिया जाता है.
आज सिर्फ एक ही ज्ञान दिया जाता है कि पैसे कमाकर , दूसरे की टांग खींचकर कैसे आगे बढ़ा जा सकता है जबकि कल नम्रता , सहनशीलता और संतोष का ज्ञान भी बांटा जाता था .
आज शिक्षा अपना मूल स्वरुप खो चुकी है सिर्फ कमाई का साधन बन चुकी है .ऐसे में जो पौध निकलेगी वो भी तो वैसी ही निकलेगी जैसा बीज रोपित किया गया होगा.
कल की तुलना कभी भी आज से नहीं की जा सकती............कल हमारी धरोहर है मगर आज भविष्य ...............और आज यही भविष्य अंधकार की ओर बढ़ता नज़र आ रहा है.हमें आज को सुरक्षित करना होगा तभी भविष्य की इमारत सुदृढ़ बन सकेगी और इसके लिए पहल हमारे शिक्षकों को ही करनी पड़ेगी क्योंकि नींव तो वो ही रखते हैं .नींव पक्की होगी तो इमारत आने आप सुदृढ़ और खूबसूरत बनेगी.
आज लड़कियां हर क्षेत्र में लड़कों के कंधे से कन्धा मिलाकर चलती हैं और घर के कामकाज भी उतनी ही चुस्ती से करती हैं .शिक्षा ने देश और समाज को एक नयी दिशा दी है मगर फिर भी कल और आज के शिक्षा के स्तर में काफी फर्क आ चुका है.
कल शिक्षा बेशक सबके लिए अनिवार्य नहीं थी मगर तब भी जो लगन होती थी वो अद्भुत होती थी . देश के लिए, समाज के लिए और घर परिवार के लिए कुछ करने का जज्बा होता था मगर आज शिक्षा सिर्फ पैसे कमाने का साधन बन कर रह गयीं है .शिक्षा का स्तर दिन प्रतिदिन गिरता जा रहा है. कोई मूल्य , कोई सिद्धांत नहीं रहे ...........बस पैसे के आगे कोई रिश्ता -नाता नहीं , सब छोटे हो गए हैं, बेमानी हो गए हैं ........................ये आज की शिक्षा की देन है .बेशक बड़ी बड़ी डिग्रियां मिल जाती हैं खूब नाम ,दौलत और शोहरत मिल जाती है मगर संस्कार नाम की दौलत से वंचित रह जाता है आज का समाज. छात्र जव तक हाई स्कूल में होता है! माता पिता का आज्ञाकारी होता है . इंटर में आने पर माता पिता की अवहेलना करता है! ग्रेज्यूएशन कर लेने के बाद स्वच्छंद हो जाता है और उसके बाद माता पिता को दुत्कारता और गालियां देता है!
यही तो आजकल की शिक्षा का असर है.
बेशक आज अन्तरिक्ष ज्ञान प्राप्त कर लिया है मगर फिर भी कल की तुलना में कहीं ना कहीं कमजोर ही है आज का शिक्षा का स्तर.क्या कहें अब ...............कल ज्यादा बढ़िया था कि आज ..............सबका अपना -अपना दृष्टिकोण होता है मगर अगर देखा जाए तो कल शिक्षा सिर्फ कमाई का साधन नहीं थी व्यावहारिक ज्ञान के साथ व्याकरणीय ज्ञान भी उत्तम था मगर आज ना तो व्यावहारिक ज्ञान है और ना ही व्याकरणीय ज्ञान...............ऐसे में आज की पीढ़ी से क्या उम्मीद की जा सकती है ............सिर्फ कुछ शब्द अंग्रेजी के बोल लेने से कोई शिक्षा का स्तर उच्च नहीं हो जाता ............आज किसी साक्षात्कार में जाने से पहले हर बच्चे को व्यावहारिक ज्ञान की शिक्षा लेने के लिए कोचिंग में जाना पड़ता है जबकि पहले ये सब शिक्षा के साथ - साथ व्यवहार में भी शामिल था..........बेशक आज भी व्यावहारिक ज्ञान जरूरी है मगर उसकी उपयोगिता सिर्फ साक्षात्कार तक ही सीमित हो कर रह गयीं है ..........एक बार जॉब मिल जाये उसके बाद सब भुला दिया जाता है या कहो रद्दी की टोकरी में डाल दिया जाता है.
आज सिर्फ एक ही ज्ञान दिया जाता है कि पैसे कमाकर , दूसरे की टांग खींचकर कैसे आगे बढ़ा जा सकता है जबकि कल नम्रता , सहनशीलता और संतोष का ज्ञान भी बांटा जाता था .
आज शिक्षा अपना मूल स्वरुप खो चुकी है सिर्फ कमाई का साधन बन चुकी है .ऐसे में जो पौध निकलेगी वो भी तो वैसी ही निकलेगी जैसा बीज रोपित किया गया होगा.
कल की तुलना कभी भी आज से नहीं की जा सकती............कल हमारी धरोहर है मगर आज भविष्य ...............और आज यही भविष्य अंधकार की ओर बढ़ता नज़र आ रहा है.हमें आज को सुरक्षित करना होगा तभी भविष्य की इमारत सुदृढ़ बन सकेगी और इसके लिए पहल हमारे शिक्षकों को ही करनी पड़ेगी क्योंकि नींव तो वो ही रखते हैं .नींव पक्की होगी तो इमारत आने आप सुदृढ़ और खूबसूरत बनेगी.
बुधवार, 1 सितंबर 2010
प्रेम का अंजन
प्रेम का अंजन
लगाओ
सखी री
मेरी आँखों में
प्रेम का अंजन
लगाओ सखी री
मुझे उनकी
पुजारिन
बनाओ सखी री
ये प्रेम की
तिरछी डगर
है सखी री
इस पर
चलना सिखाओ
सखी री
कभी तो
मोहन को
बुलाओ सखी री
उनकी चाहत की
पैंजनिया
पहनाओ सखी री
विरह में उनके
नचाओ सखी री
श्याम को कहीं
से ढूँढ लाओ
सखी री
मुरलिया की
धुन सुनवाओ
सखी री
मुझे श्याम की
मुरली बनाओ
सखी री
उनके अधरों
से मुझको
लगाओ सखी री
कैसे भी अब तो
मुझे श्याम की
प्रिया बनाओ
सखी री
मोहे
प्रेम का अंजन
लगाओ सखी री ............
लगाओ
सखी री
मेरी आँखों में
प्रेम का अंजन
लगाओ सखी री
मुझे उनकी
पुजारिन
बनाओ सखी री
ये प्रेम की
तिरछी डगर
है सखी री
इस पर
चलना सिखाओ
सखी री
कभी तो
मोहन को
बुलाओ सखी री
उनकी चाहत की
पैंजनिया
पहनाओ सखी री
विरह में उनके
नचाओ सखी री
श्याम को कहीं
से ढूँढ लाओ
सखी री
मुरलिया की
धुन सुनवाओ
सखी री
मुझे श्याम की
मुरली बनाओ
सखी री
उनके अधरों
से मुझको
लगाओ सखी री
कैसे भी अब तो
मुझे श्याम की
प्रिया बनाओ
सखी री
मोहे
प्रेम का अंजन
लगाओ सखी री ............
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