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मंगलवार, 23 दिसंबर 2014

भाव समिधा

1
चुप की खाली ओखली में 

कूटने को नहीं बची 

कोई संवेदना अहसास या जज़्बात 

और सागर में न बचा हो पानी 

ऐसा भी नहीं 

फिर किस सुबह के इंतज़ार में 

भटक रही है रात्रि की त्रिज्या


एक अजीब सी कशमकश का शिकार है आज कोई !!!




2
अन्दर पसरा सन्नाटा जाने कब होगा प्रसवित 

मौन की विकल वेदना जाने कब होगी मुखरित 

ये कौन से जुनूनी इन्कलाब का साया है 

कि कुटिल गर्म हवाएं जाने कब होंगी अनुदित


3
एक शून्य जब 

अनंत की ओर 

विस्तार पाने लगे


तब खुद से मुखातिब होना भी दुष्कर लगे ..........



4
जरूरी तो नहीं रोज कुछ कहा जाए 

जरूरी तो नहीं रोज कुछ सुना जाए 

कहीं इसी कहने सुनने में ही 

ये ज़िन्दगी न हाथ से निकल जाए


5

कुछ सवालों के जवाब पहले से तैयार रखती है दुनिया 

जाने कैसे दूसरे को इतना नादान समझती है दुनिया 

कि भीड़ में भी पहचान हो जाती है कमज़र्फों की 

जाने कैसे रोज ढकोसले का नकाब बदलती है दुनिया



6
हैवानियत का कोहरा कब छंटेगा 

इंसानियत का सूरज कब उगेगा


कौन जाने ?


7

उन माओं के जाने कितने टुकड़े हो गए 

जिनके लाल वक्त से पहले कबों में सो गए


8

मेरे लिए बहुत सी बातें सिर्फ बातें थीं 

और तुम्हारे लिए 

सिर्फ बातें नहीं जाने कितने अर्थ थे


कोई शब्दकोष हो तो बताना 

आसान हो जायेगा समझना 

क्योंकि 

अब मैं उन अर्थों के अर्थ खोज रही हूँ ..........एक अरसे से

9
वो ख्वाब ही क्या जो बुना जाए 

वो इश्क ही क्या जो किया जाए

चलो किस्सा ही खत्म किया जाए 

न दिल दिया जाए न दर्द लिया जाए

शुक्रवार, 19 दिसंबर 2014

समय तुम अपंग हो गए हो

आज हैवानियत के अट्टहास पर 
इंसानियत किसी बेवा के सफ़ेद लिबास सी 
नज़रबंद हो गयी है 
ये तुम्हारे वक्त की सबसे बड़ी तौहीन है 
कि तुम नंगे हाथों अपनों की कब्र खोद रहे हो 
और तुम  मजबूर हो  ऐसा  तुम सोचते हो 
मगर क्या ये वाकई एक सच है ?
क्या वाकई तुम मजबूर हो  ?
या मजबूर होने की दुहाई की आड़ में 
मुंह छुपा रहे हो 
गंदले चेहरों के नकाब हटाने की हिम्मत नहीं 
या सूरत जो सामने आएगी 
उससे मुंह चुराने का माद्दा नहीं 

न न वक्त रहम नहीं किया करता कभी खुद पर भी 
तो तुम क्यों उम्मीद के धागे के सहारे उड़ा रहे हो पतंग 

सुनो 
अब अपील दलील का समय निकल चुका है 
बस फैसले की घडी है 
तो क्या है तुममे इतना साहस 
जो दिखा सको सूरज को कंदील 
हाँ हाँ .........आज हैवानियत के सूरज से ग्रस्त है मनुष्यता 
और तुम्हारी कंदील ही काफी है 
इस भयावह समय में रौशनी की किरण बनकर 
मगर जरूरत है तो सिर्फ 
तुम्हारे साहस से परचम लहराने की 
और पहला कदम उठाने की 
क्या तैयार हो तुम ...............?

या फिर एक बार 
अपनी विवशताओं की दुहाई देना भर है 
तुम्हारे पलायन का सुगम साधन ?

निर्णय करो 
वर्ना इस अपंग समय के जिम्मेदार कहलाओगे 
तुम्हारी बुजदिली कायरता को ढांपने को 
नहीं बचा है किसी भी माँ का आँचल 
छातियों में सूखे दूध की कसम है तुम्हें 
या तो करो क्रान्ति 
नहीं तो स्वीकार लो 
एक अपंग समय के साझीदार हो तुम 

जो इतना नहीं कर सकते 
तो फिर मत कहना 
समय तुम अपंग हो गए हो 



बुधवार, 17 दिसंबर 2014

देखो ये है बच्चों की बारात




आओ आओ 
देखो ये है बच्चों की बारात 
जहाँ बच्चे ही दूल्हा 
बच्चे ही बाराती 
किसी की चिरी है छाती 
किसी की आँख है निकली 
किसी की अंतड़ियाँ 
तो किसी के भेजे में 
गोली है फंसी 
किसी का चेहरा यूँ लहुलुहान हुआ 
कि माँ से न पहचाना गया 
पिता रोते रोते बेदम हुआ 
माँ ने तो होश ही खो दिया 
जिसका लाल आज लाल हुआ 

ये कैसे जांबाज सिपाही 
बिन सेहरा पहने ही चल दीये 
मौत की दुल्हन से मिलने गले 
कब्र भी कम पड़ गयीं 
जिन्हें देख कबिस्तान की भी जान सूख गई 
ये कैसी  बारात आई है 
जहाँ हर ओर  रुसवाई है  
हर चेहरे पर मुर्दनी छाई है 
देख खुदा भी सहम गया 

क्या अब भी सियासतदारों न तुम्हारी आँख खुली ?

अब प्रश्न तुम से है 

ओ मानवता के दुश्मनों 
ये कैसा संहार किया 
ओ ताकतवर सियासी ताकतों (पाकिस्तान , अमेरिका )
ये फसल तो तुम्हारी ही है बोई हुई 
कल तुमने पाला जिसे 
आज छीना निवाला उसी ने 
अब तो जाग जाओ 
बच्चों की शहादत से तो सबक सीख जाओ 
वर्ना 
कल के तुम जिम्मेदार होंगे 
जब इन्ही में से किसी के अपने 
हाथ में बन्दूक पकड़ेंगे 
और निशाने पर होंगे ........... तुम 

क्योंकि 
मासूमियत के हत्यारे हो तुम सिर्फ तुम 
और तुम्हारी एकछत्र राज करने की ख्वाहिश 



शुक्रवार, 12 दिसंबर 2014

'तुम्हारा तुमको अर्पण'

जो तुम्हें स्वीकार्य नहीं 
उस अस्तित्व की नकारता 
थोड़ी तुम्हारी आँखों की कलुषता 
और थोडा साम दाम दंड भेद 
के वो सारे बाण 
जिनसे घायल होती रही युगों से 
तुम्हारा  दिया तिरस्कार , उपेक्षा , व्यभिचार 
शिव के त्रिशूल से चुभते वेदना के शूल 
सब 'तुम्हारा तुमको अर्पण' की मुद्रा में लौटा रही हूँ 

क्योंकि  
गूंथ दिए है मैंने इस बार 
तुम्हारे सब बेशकीमती हथियार 
तो स्वाद तो किरकिरा होगा ही……… 

मत गुंधवाना आटा अब फिर मुझसे !!!

शनिवार, 6 दिसंबर 2014

तुम्हें कहानी का पात्र बनाऊँ

तुम्हें कहानी का पात्र बनाऊँ 
या रखूँ तुमसे सहानुभूति 

जाने क्या सोच लिया तुमने 
जाने क्या समझ लिया मैंने 
अब सोच और समझ दोनों में 
जारी है झगड़ा 
रस्सी को अपनी तरफ खींचने की कोशिश में 
दोनों तरफ बह रही है एक नदी 
जहाँ संभावनाओं की दलदल में 
फंसने को आतुर तुम 
पुरजोर कोशिशों के पुल बनाने में जुटे हो 
और इधर 
सूखी नदी में रेत के बिस्तर पर 
निशानों के चक्रवात में 
सूखा ठूँठ 
न हँस पाता है और न रो 

जानते हो क्यों ?

ईमानदार कोशिशें लहूलुहान ही हुआ करती हैं 
बंजर भूमि में न फसल उगा करती है 
सर्वमान्य सत्य है ये 
जिसे तुम नकारना चाहते हो 

मेरे खुले केशों पर लिखने को एक नयी कविता 
पहले तुम्हें होना होगा ख़ारिज खुद से ही 
और अतीत की बेड़ियों में जकड़ी स्मृतियों के साथ नहीं की जा सकती कोई भी वैतरणी पार 

सुनो 
ये मोहब्बत नहीं है 
और न ही मोहब्बत का कोई इम्तिहान 
बस तुम्हारी स्थिति का अवलोकन करते करते 
रामायण के आखिरी सम्पुट सी एक अदद कोशिश है 
तुम में चिनी चीन की दीवार को ढहाने की 
ताकि उस पार का दृश्य देख सको तुम बिना आईनों के भी 

समंदर होने को जरूरी तो नहीं न समंदर में उतरना 
क्यों न इस बार एक समंदर अपना बनाओ तुम 
जिसमे जरूरत न हो किसी भी खारे पानी की 
न ही हो लहरों की हलचल 
और न ही हो तुम्हारी आँख से टपका फेनिल आंसू 

हो जाओगे हर जद्दोजहद से मुक्त 
बस जरूरत है तो सिर्फ इतनी 
अपनी कोशिशों के पुल से मेरा नाम हटाने की 
क्योंकि 
मेरी समझ की तीसरी आँख जानती है 
तुम्हारी सोच की आखिरी हद ……… 

तोडना तो नहीं चाहती तुझे 
मगर जरूरी है सम्मोहन से बाहर निकालना 

कैसे कहूँ 
नाकाम कोशिशों का आखिरी मज़ार मत बना मुझे 
बुतपरस्ती को ढूँढ ले बस अब एक नया खुदा.........

सुकून की दहलीज को सज़दा करने को ले झुका दी मैंने गर्दन 
बस तू भी एक बार माथा रखकर तो देख 

वैसे भी 
सूखी नदी 
बंजर भूमि 
सूखे ठूँठ 
सम्भावना के अंत को दर्शाती लोकोक्तियों से 
कर रहे हैं आगाह 
ज़ख्मों की मातमपुर्सी पर नहीं बजा करती शहनाइयाँ .……

फिर क्यों फरहाद से होड़ करने को आतुर है तेरे मन की प्रीत मछरिया ???