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गुरुवार, 31 अक्टूबर 2013

मेरी आस का मौसम नहीं बदला…………सिर्फ़ तुम्हारे लिये


एक उम्र बीती
मेरे यहाँ
पतझड को ठहरे
यूँ तो मौसम बदलते हैं
साल दर साल
मगर
कुछ शाखों पर
कभी कोई मौसम ठहरता ही नहीं
शायद
उन मे अवशोषित करने के गुण
बचते ही नहीं किसी भी मिनरल को
देखो तो
ना ठूँठ होती हैं
ना ही फ़लती फ़ूलती हैं
सिर्फ़ एक ही रंग मे
रंगी रहती हैं
जोगिया रंग धारण करने के
सबके अपने कारण होते हैं
कोई श्याम के लिये करता है
तो कोई ध्यान के लिये
तो कोई अपनी चाहत को परवान चढाने के लिये
जोग यूँ ही तो नही लिया जाता ना
क्योंकि
पतझड के बाद चाहे कितना ही कोशिश करो
ॠतु को तो बदलना ही होता है
और जानते हो
मेरी ॠतु उसी दिन बदलेगी
जिस दिन हेमंत का आगमन होगा मेरे जीवन में ………सदा के लिये
ए ………आओगे ना हेमंत का नर्म अहसास बनकर
प्यार की मीठी प्यास बनकर
शीत का मखमली उजास बनकर
देखो ………इंतज़ार की दहलीजें किसी मौसम की मोहताज़ नहीं होतीं
तभी तो युग परिवर्तन के बाद भी
मेरी आस का मौसम नहीं बदला…………सिर्फ़ तुम्हारे लिये
क्योंकि
मैं नही बदलना चाहती 

अपनी मोहब्बत के मौसम को किसी भी जन्म तक
क्या दे सकोगे साथ मेरा ……अनन्त से अनन्त तक हेमंत बनकर
जानते हो ना………मोहब्बत तो पूर्णता में ही समाहित होती है

शनिवार, 26 अक्टूबर 2013

आवाज़ का भरम

सब कुछ टूटने पर भी 
जोड़े रखना है मुझे 
आवाज़ का भरम 
भाँय भाँय की आवाज़ का होना 
काफी है एक रिदम के लिए 
नहीं सहेज सकती अब 
सन्नाटों के शगल 
क्योंकि जानती हूँ 
सन्नाटे भी टूटा करते हैं………
मगर 
आवाजें घूमती हैं ब्रह्माण्ड में निर्द्वन्द ………. 
आवाज़ कहूं , ध्वनि या शब्द 
जिसका नहीं होता कभी विध्वंस 
इसलिए 
अब सिर्फ आवाज़ को माध्यम बनाया है 
जिसके जितने भी टुकड़े करो 
अणु का विद्यमान रहना जीवित रखेगा मुझे ……मेरे बाद भी 

मंगलवार, 22 अक्टूबर 2013

कुछ ख्याल

1)

ये कैसी विडम्बना है 
ये कैसी संस्कारों की धरोहर है 
जिसे ढो रहे हैं 
कौन से बीज गड गये हैं रक्तबीज से 
जो निकलते ही नहीं 
सब कुछ मिटने पर भी 
क्यों आस के मौसम बदलते नहीं 
करवा चौथ का जादू क्यूँ टूटता नहीं 
जब बेरहमी की शिला पर पीसी गयी 
उम्मीदों को नेस्तनाबूद करने की मेंहदी 
ये लाल रंग शरीर से बहने पर भी 
प्रीत का तिलिस्म क्यों टूटता नहीं 
उसी की उम्रदराज़ की क्यों करती है दुआ 
जिसकी हसरतों की माला में प्रीत का मनका ही नहीं 
दुत्कारी जाने पर भी क्यों करवाचौथ का तिलिस्म टूटता नहीं 
रगों में लहू संग बहते संस्कारों से क्यों पीछा छूटता नहीं……


2)



ये जो लगा लेती हूँ 
माँग मे सिंदूर और माथे पर बिन्दिया 
पहन लेती हूँ  पाँव मे बिछिया और हाथों में चूडियाँ 
और गले में मंगलसूत्र 
जाने क्यों जताने लगते हो तुम मालिकाना हक 
शौक हैं ये मेरे अस्तित्व के 
अंग प्रत्यंग हैं श्रृंगार के
पहचान हैं मुझमे मेरे होने के 
उनमें तुम कहाँ हो ? 
जाने कैसे समझने लगते हो तुम मुझे 
सिंदूर और बिछिया में बंधी जड़ खरीद गुलाम 
जबकि ……. इतना समझ लो 


हर हथकड़ी और बेडी पहचान नहीं होती बंधुआ मजदूरी की 

3

संभ्रांत परिवार हो या रूढ़िवादी या अनपढ़ समाज 
सबके लिए अलग अर्थ होते भी 
एक बिंदु पर अर्थ एक ही हो जाता है 
फिर चाहे वो सोलह श्रृंगार कर 
पति को रिझाने वाली प्रियतमा हो 
या रूढ़िवादी परिवार की घूंघट की ओट में 
दबी ढकी कोई परम्परावादी स्त्री 
या घर घर काम करके दो वक्त की रोटी का 
जुगाड़ करने वाली कोई कामगार स्त्री 
सुबह से भूखा प्यासा रहना 
कमरतोड़ मेहनत करना 
या अपने नाज नखरे उठवा खुद को 
भरम देने वाली हो कोई स्त्री 
अर्घ्य देने के बाद 
चाँद निकलने के बाद 
व्रत खोलने के बाद 
भी रह जाती है एक रस्म अधूरी 
वसूला जाता है उसी से उसके व्रत का कर 
फिर चाहे वो शक्तिहीन हो 
शारीरिक और मानसिक रूप से अस्वस्थ हो 
क्योंकि जरूरी होती है रस्म अदायगी 
फिर चाहे मन के मोर तेजहीन हो गए हों 
क्योंकि 
सुना है 
जरूरी है आखिरी मोहर का लगना 
जैसे मांग भरे बिना कोई दुल्हन नहीं होती 
वैसे ही रस्मों की वेदी पर आखिरी कील जरूरी है 
वैसे ही देहों के अवगुंठन बिना करवाचौथ पूर्ण नहीं होती 
वसूली की दास्ताँ में जाने कौन किसे जीतता है 
मगर 
दोनों ही पक्षों के लिए महज अपने अपने ही नज़रिए होते हैं 
कोई धन के बल पर 
कोई छल के बल पर 
तो कोई बल के बल पर 
भावनाओं का बलात्कार कर रस्म अदायगी किया करता है 
और हो जाता है 
करवाचौथ का व्रत सम्पूर्ण 

शुक्रवार, 18 अक्टूबर 2013

ज़िन्दगी जीने के सबके अंदाज़ जुदा हुआ करते हैं

मेरे फ़लक से तुम्हारे फ़लक तक 
विचरती आकाश गंगायें 
जरूरी तो नहीं 
माध्यम बने ही 
सम्प्रेक्षणता का 
जबकि जानते हो 
ध्वनियों में भी गतिरोध हुआ करते हैं 
उमस के दरवाज़ों पर भी ताले हुआ करते हैं 
खपरैलों के भी उडने के मौसम हुआ करते हैं 
यूँ भी बेवजह ढोलक पर थाप नही दी जाती 
तो फिर क्यों बेज़ार हो खटखटाऊँ मौन की कुण्डियाँ 
जब नक्काशी के लिए मौजूद ही नहीं सुलगती लकड़ियाँ 

अब कौन  दीवान-ए -आम और दीवान-ए -ख़ास की जद्दोजहद में उलझे 
जब नागवारियों की नागफनियों से गुलज़ार हो मोहब्बत का अंगना 

ज़िन्दगी जीने के सबके अंदाज़ जुदा हुआ करते हैं जानम !!!

बुधवार, 9 अक्टूबर 2013

एक जटिल प्रश्न उत्तर की चाह में


आज  फिर अंतस में एक प्रश्न कुलबुलाया है 
आज फिर एक और प्रश्नचिन्ह ने आकार पाया है 
यूं तो ज़िन्दगी एक महाभारत ही है 
सबकी अपनी अपनी 
लड़ना भी है और जीना भी सभी को 
और उसके लिए तुमने एक आदर्श बनाया 
एक रास्ता दिखाया 
ताकि आने वाली  पीढियां दिग्भ्रमित न हों 
और हम सब तुम्हारी  दिखाई राह का 
अन्धानुकरण करते रहे 
बिना सोचे विचारे 
बिना तुम्हारे कहे पर शोध किये 
बस चल पड़े अंधे फ़क़ीर की तरह 
मगर आज तुम्हारे कहे ने ही भरमाया है 
तभी इस प्रश्न ने सिर उठाया है 

महाभारत में जब 
अश्वत्थामा द्वारा 
द्रौपदी के पांचो पुत्रों का वध किया जाता है 
और अर्जुन द्वारा अश्वत्थामा को 
द्रौपदी के समक्ष लाया जाता है 
तब द्रौपदी द्वारा उसे छोड़ने को कहा जाता है 
और बड़े भाई भीम द्वारा उसे मारने को कहा जाता है 
ऐसे में अर्जुन पशोपेश में पड़ जाते हैं 
तब तुम्हारी और ही निहारते हैं 
सुना है जब कहीं समस्या का समाधान ना मिले 
तो तुम्हारे दरबार में दरख्वास्त लगानी  चाहिए 
समाधान मिल जायेगा 
वैसा ही तो अर्जुन ने किया 
और तुमने ये उत्तर दिया 
कि अर्जुन :
"आततायी को कभी छोड़ना नहीं चाहिए 
और ब्राह्मण को कभी मरना नहीं चाहिए 
ये दोनों वाक्य मैंने वेद में कहे हैं 
अब जो तू उचित समझे कर ले "
और अश्वत्थामा में ये दोनों ही थे 
वो आततायी भी था और ब्राह्मण भी 
उसका सही अर्थ अर्जुन ने लगा लिया था 
तुम्हारे कहे गूढ़ अर्थ को समझ लिया था 

मेरे प्रश्न ने यहीं से सिर उठाया है 
क्या ये बात प्रभु तुम पर लागू नहीं होती 
सुना  है तुम जब मानव रूप रखकर आये 
तो हर मर्यादा का पालन किया 
खास तौर से रामावतार में 
सभी आपके सम्मुख नतमस्तक हो जाते है 
मगर मेरा प्रश्न आपकी इसी मर्यादा से है 
क्या अपनी बारी में आप अपने वेद में कहे शब्द भूल गए थे 
जो आपने रावण का वध किया 
क्योंकि 
वो आततायी भी था और ब्राह्मण भी 
क्या उस वक्त ये नियम तुम पर लागू नहीं होता था 
या वेद  में जो कहा वो निरर्थक था 
या वेद में जो कहा गया है वो सिर्फ आम मानव के लिए ही कहा गया है 
और तुम भगवान् हो 
तुम पर कोई नियम लागू नही होता 
गर ऐसा है तो 
फिर क्यों भगवान् से पहले आम मानव बनने का स्वांग रचा 
और अपनी गर्भवती पत्नी सीता का त्याग किया 
गर तुम पर नियम लागू नहीं होते वेद के 
तो भगवान बनकर ही रहना था 
और ये नहीं कहना था 
राम का चरित्र अनुकरणीय होता है 
क्या वेदों की मर्यादा सिर्फ एक काल(द्वापर) के लिए ही थी 
जबकि मैंने तो सुना है 
वेद साक्षात् तुम्हारा ही स्वरुप हैं 
जो हर काल में शाश्वत हैं 
अब बताओ तुम्हारी किस बात का विश्वास करें 
जो तुमने वेद में कही या जो तुमने करके दिखाया उस पर 
तुम्हारे दिखाए शब्दों के जाल में ही उलझ गयी हूँ 
और इस प्रश्न पर अटक गयी हूँ 
आखिर हमारा मानव होना दोष है या तुम्हारे कहे पर विश्वास करना या तुम्हारी दिखाई राह पर चलना 
क्योंकि 
दोनों ही काल में तुम उपस्थित थे 
फिर चाहे त्रेता हो या द्वापर 
और शब्द भी तुम्हारे ही थे 
फिर उसके पालन में फ़र्क क्यों हुआ ? 
या समरथ को नही दोष गोसाईं कहकर छूट्ना चाहते हो 
तो वहाँ भी बात नहीं बनती 
क्योंकि 
अर्जुन भी समर्थ था और तुम भी 
गर तुम्हें दोष नहीं लगता तो अर्जुन को कैसे लग सकता था 
या उससे पहले ब्राह्मण का महाभारत में कत्ल नहीं हुआ था 
द्रोण भी तो ब्राह्मण ही थे ?
और अश्वत्थामा द्रोणपुत्र ही थे 
आज तुम्हारा रचाया महाभारत ही 
मेरे मन में महाभारत मचाये है 
और तुम पर ऊँगली उठाये है 
ये कैसा तुम्हारा न्याय है ?
ये कैसी तुम्हारी मर्यादा है ?
ये कैसी तुम्हारी दोगली नीतियाँ हैं ?


संशय का बाण प्रत्यंचा पर चढ़ तुम्हारी दिशा की तरफ ही संधान हेतु आतुर है 
अब हो कोई काट , कोई ब्रह्मास्त्र या कोई उत्तर तो देना जरूर 
मुझे इंतज़ार रहेगा 
ओ वक्त के साथ या कहूँ अपने लिए नियम बदलते प्रभु…………… एक जटिल प्रश्न उत्तर की चाह में तुम्हारी बाट जोहता है


रविवार, 6 अक्टूबर 2013

जिसका शायद कहीं कोई उत्तर नहीं


वो जो शक्ति है 
वो जो धारती है 
वो जो जननी है 
जब उसी का शोषण होता है 
तब मेरा स्त्रीत्व रोता है 


दूसरी तरफ 

वो जो आस्था है 
वो जो श्रद्धा है 
वो जो विश्वास है 
जब वो आहत होता है 
तब मेरा अंतस रोता है 


सही गलत से परे 
एक सोच कसमसाती है 
कैसे एक मछली सारे तालाब को 
कलंकित करती है 
किस पर विश्वास करूँ 
किसे नमन करूँ 


आज जब चारों तरफ 
झूठ और सच 
चंद  सिक्कों में बिक जाते हैं 
कहीं झूठे लांछन लगाए जाते हैं 
तो कहीं सच हारता दीखता है 
कहीं कोई सिर्फ पैसे , पद , प्रतिष्ठा के लिए 
कौड़ियों में बिक जाता है 
और किसी का मान सम्मान आहत हो जाता है 
ऐसे विरोधाभासी माहौल में 
कौन सा इन्साफ का तराजू उठाऊँ 
कौन  सा जहाँगीरी घंटा बजा न्याय की गुहार करूँ 
जहाँ चहुँ ओर अराजकता अव्यवस्था का बोलबाला है 
जहाँ न्याय भी अपनी ही बेड़ियों में जकड़ा 
बेबस नज़र आता है 
और दिमागी तौर से परिपक्व को भी 
जो अवयस्कता के आवरण में निर्दोष पाता है 
ऐसे कश्मकाशी माहौल में 
किस आश्वासन पर उम्मीद का दीप जलाऊँ 
जहाँ झूठ और सच के बीच ना कोई फर्क दिखे 
जहाँ मेरे अन्दर की स्त्री 
छटपटाती तमाशबीन सी सिर धुनती है 
आखिर किस खोल में छुप गयी सभ्यता 
जो सच और झूठ के परदे ना खोल पाती है 


क्या सच क्या झूठ है 
जहाँ रोज गवाह भी मुकरते हों 
जहाँ रोज कुछ अवसरवादी 
सच को झूठ और झूठ को सच में बदलते हों 
ऐसे माहौल में 
मेरे अन्दर की स्त्री मुझसे ही उलझती है 
किसे मानूँ किसे ना मानूँ 
ना स्त्री का शोषण झुठला सकती हूँ 
ना आस्था की वेदी पर बलि होते 
विश्वास और श्रद्धा से आँख मिला पाती हूँ 
और सच और झूठ के हवन में होम होती 
अपने अन्दर की स्त्री से प्रश्न उठाती हूँ 

क्या श्रद्धा और विश्वास की कीमत यूं चुकाई जाती है 
क्या स्त्रीत्व के शोषण की जो तस्वीर सामने है 
उसका कोई दूसरा रुख तो नहीं 

विश्वास अन्धविश्वास की खाई में 
मेरी वेदना पड़ी कराहती है 
जिसका शायद कहीं कोई उत्तर नहीं , कहीं कोई उत्तर नहीं