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शुक्रवार, 20 अक्टूबर 2023

जिसका न कोई नाम है न चेहरा

 

मुझे नहीं दिखती 

किसी की भूख बेरोजगारी या शापित जीवन 
नहीं दिखता किसी स्त्री पर अत्याचार बलात्कार 
नहीं दिखता बाल शोषण 
नहीं दिखता गरीबी एक अभिशाप का 
बोल्ड अक्षरों में लिखा अदृश्य बोर्ड 
नहीं होते व्यथित अब 

जानते हो क्यों 
सूख चुका है मेरी संवेदनाओं का पानी 
मर चुकी है शर्म लिहाज आँख से 
बेशर्मी का टैग चस्पा किये 
शव के साथ फोटो खींच 
एक सेल्फी लगा 
करते हैं अब दुःख व्यक्त 
यहीं तक हैं मेरी संवेदनाएं 
न न दुखी होकर क्या होगा?
कौन दुखी नहीं यहाँ 
जब से जाना है इस सत्य को 
जीना सीख लिया है मैंने 

विसंगति विकृति और विडंबना 
आजकल दूर से करती हैं हैलो 
ये नया दौर है 
नए लोग हैं 
नयी सोच है 
समय के साथ जो चलता है सुखी रहता है 
कह गए हैं बड़े बूढ़े 
और मैंने गाँठ बाँध ली है उनकी नसीहत 

आप बघारो अपना दर्शन 
दो अपनी नैतिकता की दुहाई 
करो सत्यता का सत्यापन 
लिखो भाईचारे के स्लोगन 
मगर मैंने देखा है 
दुनिया से मिटते हुए मनुष्यता 
फिर किस बिनाह पर चलूँ संग तुम्हारे 
तुम्हारे बनाए मार्ग पर 
जहाँ हर कदम मेरी मान्यताओं का हो चीरहरण 
न हो सांस लेने के लिए ऑक्सीजन 

मुझे जिंदा रहना है अपने लिए 
हाँ तुम कह सकते हो मुझे स्वार्थी 
लेकिन बताओ तो ज़रा 
यहाँ कौन है परमार्थी 
सभी स्व स्वार्थ हेतु जीवित हैं 
किसी को मान चाहिए किसी को सम्मान 
किसी को पद चाहिए किसी को पैसा 
किसी को शौर्य चाहिए किसी को पराक्रम 
किसी को यश चाहिए किसी को क्रश 
किसी को भक्त चाहिए किसी को भगवान् 

ऐसे में यदि मुझे केवल मैं दिखता हूँ 
तो क्या बुरा है 
मैंने मोतियाबिंद का ऑपरेशन करवा लिया है 
अब लेंस से साफ़ देख पाता हूँ 
मैं उस पगडण्डी पर चल रहा हूँ 
जिसके दोनों ओर खाई है 
और पग के नीचे अंगार 
समय के एक ऐसे दौर का गवाह हूँ मैं 
जहाँ वर्चस्व की लड़ाई में 
होम मुझे ही होना पड़ता है 
फिर वो इजरायल हो या हमास 
युक्रेन हो या रूस 
भारत हो या पकिस्तान 
जीवन हो या संघर्ष 
जाति हो या धर्म 

जीवन उधार का नहीं मिला करता जो गंवाने पर भी मुस्कुराता रहूँ 
हाँ, ये मैं हूँ 
आम आदमी 
जिसका न कोई नाम है न चेहरा 
लेकिन आहुति में समिधा मैं ही बना करता हूँ 







सोमवार, 16 अक्टूबर 2023

साधो मन को ओ मनुज!

 

वक्त की आवाज़ कितनी पथरीली नुकीली कंटीली 
तुम जान नहीं पाओगे
कल तक जो तुम सहेजते थे
धरोहरों के बीज
परंपराओं की ओढ़ते थे चादर
धार्मिक कृत्यों
स्वर्ग नरक
पाप पुण्य की अवधारणा से थे बंधे
एक क्षण में हो गए निर्वासित
समस्त कृत्यों से
केवल आँख बंद होने भर से

ये वर्तमान का चेहरा है
जिसमें बेटी हो या बेटा
समय की सुइयों से बंधा
नहीं दे सकता तुम्हें
तुम्हारे मुताबिक श्रद्धांजलि

क्या औचित्य जीवन भर के कर्मकांड का
विचारो ज़रा
ओ जाने वाले
और वो भी जो पीछे बचे हैं
अर्थात समस्त संसार
जिसने जीवन रूपी वैतरणी पार करने को
पकड़ रखी है रूढ़ियों परंपराओं की पूँछ

वास्तव में
यही है समय विचार करने योग्य
न कुछ साथ जाना है न कभी गया
जो करोगे यहीं छोड़ जाओगे
फिर किसलिए इतनी उठापटक?
क्यों कर्मकांड की खेती में खुद को झोंका
क्यों मृत्यु के बाद के कर्मकांडों बिना मुक्ति नहीं
की अवधारणा को पोसते रहे
अब तुम्हें कौन बताए
तुम तो चले गए

आज समय का चेहरा धुँधला गया है
और समयाभाव ने सोख ली हैं तमाम संवेदनाएं
तेरह दिन को फटककर समय के सूप में
एक दिन में सिमटना कोई क्रांति है न भ्रांति
यथार्थ की पगडण्डी पर चलकर ही मिलेंगे जीवन और मृत्यु के वास्तविक अर्थ
क्योंकि
न तेरह दिन में मुक्ति का उद्घोष कोई कृष्ण करता है
और न ही एक दिन में

बस मन का बच्चा ही है
जो बहलता है
कभी एक दिन में तो कभी तेरह दिन में

साधो मन को ओ मनुज!


 

शुक्रवार, 21 जुलाई 2023

बनो स्त्रियों रणचंडी बनो

 


बनो स्त्रियों रणचंडी बनो
काली खप्पर वाली बनो
महिषासुर मर्दिनी बनो
किन्तु चुप मत रहो
समय की प्रचंड पुकार है
धरा पर मचा हाहाकार है

खामोश चीत्कारों से ही सुलगा करता है धरती का सीना,
ये मंद मंद सुगबुगाहटें कहर बन लील लें वजूद
उससे पहले
एक चिंगारी बने मशाल
उठाओ शिव का त्रिशूल
करो तांडव
करो संहार व्यभिचारी सोच का, व्यभिचारियों का
बता दो अच्छे दिनों का सपना दिखाने वालों को
नहीं मिलेगी पनाह किसी को भी
ब्रह्माण्ड के अंतिम छोर पर भी
नहीं बख्शेंगी किसी को भी
सोयी शेरनियां जागने पर बहुत खूँखार हुआ करती हैं

कहीं थाम ने लें समाज और सत्ता की कमान
हो जाए इन्हीं का वर्चस्व कायम
वो वक्त आये
उससे पहले हो जाओ

सावधान
सावधान
सावधान

स्त्रियों की चुनौती से तो थरथरा उठता है समस्त ब्रह्माण्ड - वाकिफ हो न 


#मणिपुर 

शनिवार, 1 जुलाई 2023

चिंतातुर कवि बैठे हैं

 चिंतातुर कवि बैठे हैं

सोचते हुए
ये कहाँ आ गए हम
अब जाएंगे कहाँ
कि आज सँवरा नहीं
फिर कल कैसे संवरेगा
किस चिड़िया के हाथों भेजें संदेसा
जो गगन हो जाये थोड़ा और नीला
कि बाधित न हो उड़ान पंछियों की
कोयल की कुहू कुहू
पपीहे की पीहू पीहू से
होती थी जब सुबहें
वो सुबह कब आएगी
कब सूरज शरमा कर
बादलों के आगोश में सिमट जाएगा
हर मन केवल एक ही फसाना गायेगा
प्रतीक्षा की पाँखें कुम्हला न जाएं
कैसे इस दौर से मुक्ति पाएं
जहाँ राम और रहीम बेबसी की कैद में
एक दूजे को केवल देखने को विवश हैं
कैसे बोलें, प्रश्न मुँह बाए खड़ा है
कोई होता सुनने वाला
तो सुनाते हाल-ए-दिल
जब बदला जाता है इतिहास
तब समय की मूक आवाज़ के क्रंदन से ठहर जाती है पृथ्वी अपनी धुरी पर
और हो जाते हैं कवि चिंतित
कौन सी लिखें कविता
जो हो एक नया सवेरा...



Yatish Kumar जी की वाल पर ये फोटो देखी। फ़ोटो देख पसंद की और आगे बढ़ने लगी किंतु उनके भावों ने जकड़ लिया और इन भावों का जन्म हो गया - गगन गिल जी व् यतीश कुमार जी

मंगलवार, 2 मई 2023

एक औरत बदहवास सी

 

एक औरत बदहवास सी
सड़कों पर रोती डोल रही है
जाने किस गम की परछाईं से जूझ रही है
पूछने पर केवल इतना कहती है
जाने किस जन्म की उधारियाँ हैं
चुकती ही नहीं
ऐसा भी नहीं चुकाते न हों
जितनी चुकाई
मूलधन और ब्याज बढ़ते ही गए
गमों के दौर पहले से ज्यादा मुखर हुए
अब न आस बची न रौशनी की किरण
रूह खलिश का रेगिस्तान बनी
ढूँढ़ रही है दो बूँद नीर

अपनी लाश अपने कंधे पर ढोती औरत के पास
आँसुओं की थाती के सिवा होता ही क्या है
कहा और आगे बढ़ गयी

दुनिया चल रही थी
दुनिया चलती रहेगी
औरत इसी प्रकार बदहवास हो
सड़कों पर रोती हुई डोलती रहेगी
कोई नहीं पूछेगा उसके गम की वजह
पूछ लिया तब भी
ठहरायेगा उसे ही दोषी
नियति के पिस्सू काट रहे हैं
और वो है कि मरती भी नहीं
स्वर्णिम अक्षरों में
उम्रकैद लिखा है आज भी उसके माथे पर
फिर वो आज की जागरूक कही जाने वाली स्त्री ही क्यों न हो



शुक्रवार, 6 जनवरी 2023

मंगलाचरण

 

मैंने अक्सर छोड़ा हर वो रास्ता
जिससे दूसरे को तकलीफ हुई
छवि मेरी यूँ बनती बिगड़ती रही
क्योंकि
छवियाँ बनती ही टूटने के लिये हैं

पलायन नहीं था ये और न होगा
बस फितरत है
खुद को बदलने की
एक नयी राह पर चलने की
अकेले, बिल्कुल अकेले
कि
नहीं निभाए जाते झूठ फरेब के रिश्ते
कि
पेट में उगी दाढ़ियों से नहीं बना सकती द्वार पर तोरण
कि
तुम्हारे गणित से नहीं मिल सकता कभी मेरा गणित

तुम्हारी भीड़ से भरा है हर गली मोहल्ला हर चौराहा
मुझे नहीं चाहिए तुम्हारे मध्य अपने लिये स्थान
मैं बनाती हूँ हर बार अपने लिये अपना स्थान
पाती हूँ एक नया मुकाम
और तुम हर बार
चेहरे बदल काटते हो मेरी राहें
सिलसिला है कि खत्म ही नहीं होता

मैंने न सड़क पर चलना छोड़ा है और न ही पकड़ी है पगडंडी
मेरी अपनी गति है और अपना लक्ष्य
चयनित मार्ग ही तय करते हैं अक्सर मंज़िलें मगर
तुम काटोगे जितनी बार मेरे हाथ
बंद करोगे जितनी बार द्वार
मंज़िलें स्वयं बनाएंगी मेरे लिये नयी राहें
जाना है जब से
मुस्कुराहट के फूल उछाल देती हूँ आसमाँ की तरफ

ये मेरी यात्रा है
अंतिम पड़ाव नहीं
जो दो दो हाथ करने पर निर्धारित हो जीत हार
जीने का हुनर जरूरी नहीं मरकर ही सीखा जाए
मैंने यथार्थ के गिट्टों से जीती हैं बाजियाँ
और इस बार भी विदाईगीत मुझे ही गाना है
नियति ने पकड़ी हुई है मेरी ऊँगली
तय कर रही है दिशा
हर बार की तरह
मुड़ना है फिर मुझे एक नए मोड़ पर
एक नयी यात्रा का मुसाफिर बन

सुप्रभात से आरम्भ दिन का अंत शुभरात्रि ही हुआ करता है एक नए आरम्भ हेतु
मंगलाचरण इसे ही कहते हैं