मुझे नहीं दिखती
मुझे नहीं दिखती
वक्त की आवाज़ कितनी पथरीली नुकीली कंटीली
तुम जान नहीं पाओगे
कल तक जो तुम सहेजते थे
धरोहरों के बीज
परंपराओं की ओढ़ते थे चादर
धार्मिक कृत्यों
स्वर्ग नरक
पाप पुण्य की अवधारणा से थे बंधे
एक क्षण में हो गए निर्वासित
समस्त कृत्यों से
केवल आँख बंद होने भर से
ये वर्तमान का चेहरा है
जिसमें बेटी हो या बेटा
समय की सुइयों से बंधा
नहीं दे सकता तुम्हें
तुम्हारे मुताबिक श्रद्धांजलि
क्या औचित्य जीवन भर के कर्मकांड का
विचारो ज़रा
ओ जाने वाले
और वो भी जो पीछे बचे हैं
अर्थात समस्त संसार
जिसने जीवन रूपी वैतरणी पार करने को
पकड़ रखी है रूढ़ियों परंपराओं की पूँछ
वास्तव में
यही है समय विचार करने योग्य
न कुछ साथ जाना है न कभी गया
जो करोगे यहीं छोड़ जाओगे
फिर किसलिए इतनी उठापटक?
क्यों कर्मकांड की खेती में खुद को झोंका
क्यों मृत्यु के बाद के कर्मकांडों बिना मुक्ति नहीं
की अवधारणा को पोसते रहे
अब तुम्हें कौन बताए
तुम तो चले गए
आज समय का चेहरा धुँधला गया है
और समयाभाव ने सोख ली हैं तमाम संवेदनाएं
तेरह दिन को फटककर समय के सूप में
एक दिन में सिमटना कोई क्रांति है न भ्रांति
यथार्थ की पगडण्डी पर चलकर ही मिलेंगे जीवन और मृत्यु के वास्तविक अर्थ
क्योंकि
न तेरह दिन में मुक्ति का उद्घोष कोई कृष्ण करता है
और न ही एक दिन में
बस मन का बच्चा ही है
जो बहलता है
कभी एक दिन में तो कभी तेरह दिन में
साधो मन को ओ मनुज!
बनो स्त्रियों रणचंडी बनो
काली खप्पर वाली बनो
महिषासुर मर्दिनी बनो
किन्तु चुप मत रहो
समय की प्रचंड पुकार है
धरा पर मचा हाहाकार है
खामोश चीत्कारों से ही सुलगा करता है धरती का सीना,
ये मंद मंद सुगबुगाहटें कहर बन लील लें वजूद
उससे पहले
एक चिंगारी बने मशाल
उठाओ शिव का त्रिशूल
करो तांडव
करो संहार व्यभिचारी सोच का, व्यभिचारियों का
बता दो अच्छे दिनों का सपना दिखाने वालों को
नहीं मिलेगी पनाह किसी को भी
ब्रह्माण्ड के अंतिम छोर पर भी
नहीं बख्शेंगी किसी को भी
सोयी शेरनियां जागने पर बहुत खूँखार हुआ करती हैं
कहीं थाम ने लें समाज और सत्ता की कमान
हो जाए इन्हीं का वर्चस्व कायम
वो वक्त आये
उससे पहले हो जाओ
सावधान
सावधान
सावधान
स्त्रियों की चुनौती से तो थरथरा उठता है समस्त ब्रह्माण्ड - वाकिफ हो न
#मणिपुर
चिंतातुर कवि बैठे हैं
एक औरत बदहवास सी
सड़कों पर रोती डोल रही है
जाने किस गम की परछाईं से जूझ रही है
पूछने पर केवल इतना कहती है
जाने किस जन्म की उधारियाँ हैं
चुकती ही नहीं
ऐसा भी नहीं चुकाते न हों
जितनी चुकाई
मूलधन और ब्याज बढ़ते ही गए
गमों के दौर पहले से ज्यादा मुखर हुए
अब न आस बची न रौशनी की किरण
रूह खलिश का रेगिस्तान बनी
ढूँढ़ रही है दो बूँद नीर
अपनी लाश अपने कंधे पर ढोती औरत के पास
आँसुओं की थाती के सिवा होता ही क्या है
कहा और आगे बढ़ गयी
दुनिया चल रही थी
दुनिया चलती रहेगी
औरत इसी प्रकार बदहवास हो
सड़कों पर रोती हुई डोलती रहेगी
कोई नहीं पूछेगा उसके गम की वजह
पूछ लिया तब भी
ठहरायेगा उसे ही दोषी
नियति के पिस्सू काट रहे हैं
और वो है कि मरती भी नहीं
स्वर्णिम अक्षरों में
उम्रकैद लिखा है आज भी उसके माथे पर
फिर वो आज की जागरूक कही जाने वाली स्त्री ही क्यों न हो