मुझमे ज़हर भर चुका है और वो भी इतना कि अब संभालना मुश्किल हो रहा है इसलिए आखिरी हथियार के तौर पर मैंने विष वमन करने का रास्ता अख्तियार किया . क्योंकि यहाँ तो चारों तरफ विष का नाला बह रहा है . दुनिया में सिवाय विष के और कुछ दिख ही नहीं रहा . हर चेहरे पर एक जलती आग है , हर मन में एक उबलता तूफ़ान है , चारों तरफ मचा हाहाकार है , जिसने जितना मंथन किया उतना ही विष निकला और उसे उगल दिया फिर चाहे व्यवस्था से नाराज़गी हो या घर से मिली उपेक्षा हो , फिर चाहे अपनी पहचान बनाने के लिए जुटाए गए हथकंडे हों या खुद को पाक साफ़ दिखाने की कवायद में दूसरे को नीचा दिखाने की कोशिश , या फिर बेरोजगारी , भ्रष्टाचार , दरिंदगी, व्यभिचार , घोटालों से घिरा आम आदमी हो या उच्च पदासीन या उच्च वर्ग को देख खुद को कमजोर समझने की लिप्सा हो विष ने जकड लिया है चारों तरफ से ........सभी को चाहे नेता हो या राजनेता या आम आदमी , उच्च वर्गीय या मध्यम या निम्न वर्गीय सबकी अपनी अपनी परेशानियों से उपजी अव्यवस्था विष का कारण बनी ...............और मैं कैसे अछूता रह सकता था ..........नाम कमाने की लिप्सा ने मुझे भी आंदोलित किया , जल्द से जल्द अपनी पहचान बनाने की चाह में मैंने न जाने कितने सह्रदयों के ह्रदयों को दुख दिया , अवांछित हस्तक्षेप किया उनकी ज़िन्दगी में , सिर्फ खुद की पहचान बनाने के लिए ........उनके खिलाफ विष वमन किया और हल्का हो गया .................और मुझे एक स्थान मिल गया ....... और आज मैं खुश हो गया बिना परवाह किये कि जिसके खिलाफ विष वमन किया उसकी ज़िन्दगी में या उस पर क्या प्रभाव पड़ा ..............बस इस सोच ने ही आज ये स्थिति ला खडी की है और हम ना जाने क्यों चिंतित नहीं हैं …………खुश हैं व्यवस्था की असमाजिकता से,इस अव्यवस्था से………आदत हो चुकी है और जो आदतें पक जाती हैं वो जल्दी बदली नहीं जातीं फिर चाहे मानसिक गुलामी हो या शारीरिक …………फिर क्या फ़र्क पडता है समाजिक व्यवस्था सुधरे ही या नहीं ………अब कौन करे चिन्तन या मनन।
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रविवार, 30 मार्च 2014
गुरुवार, 27 मार्च 2014
एक आम चेहरा भर ही तो हूँ
एक आम चेहरा भर ही तो हूँ
नहीं लिखनी मुझे बनारस की सुबह , नहीं लिखनी मुझे दिल्ली की सर्दी , नहीं लिखनी मुझे मुंबई की शाम ...........बहुत हो चुका लिखना ये सब तो ........कब से इसी के आस पास तो घूम रही है ज़िन्दगी और ज़िन्दगी के दर्शन ...........मैं हूँ कौन लिखने वाला ..........एक आम चेहरा भर ही तो हूँ ........अपने मौन के मगध में भ्रमण करता .............दर्शक दीर्घा का एक अंजान चेहरा जो वो देखता है जो तुम दिखाते हो , वो जानता है जो तुम जनाते हो और वो करता है जो तुम करवाते हो ............तुम कौन ? कुछ अदद सरपरस्त जिन्हें शौक है सरपरस्ती का , जिन्हें शौक है खुद को सिद्ध करने का , जिन्हें शौक है विश्व पटल पर छाये रहने का और मैं दौड़ पड़ता हूँ तुम्हारी दिखाई झबरीली राहों पर बिना जाने , बिना सोचे , बिना विचारे ............क्योंकि मेरा कोई गणित है ही नहीं .............मैं वो इकाई हूँ जो है तो बस सिर्फ इसलिए क्योंकि संख्या बढाई जा सके .........एक वाकया लिखा जा सके या एक समूह बनाया जा सके .........इतना भर है मेरा कोना , इतनी भर है मेरी पहचान, इतनी भर है मेरी अहमियत .............जिसे बताया ही नहीं जाता उसका उपयोग .............बस पढाया जाता है इतना पाठ तुम्हें लड़ना नहीं है जीना है एक सादी सुकून भरी ज़िन्दगी और इसी को लक्ष्य बनाता मैं चल पड़ता हूँ भीड़ का हिस्सा बनकर ..........फिर कैसे मैं कुछ कह सकता हूँ या लिख सकता हूँ .............जब आँख होते हुए अँधा हूँ , जुबान होते गूंगा हूँ, कान होते बहरा हूँ .............नौ से पांच की ड्यूटी करता मेरा ढांचा दूसरा कोई दायरा जानता ही नहीं या जानना ही नहीं चाहता ............
मैं करता हूँ भ्रमण अपने विचारों के जंगल में जहाँ हवा किलोल कर रही होती है और कान में फुसफुसा जाती है कभी राजनितिक गलियारों की हलचलों को और मैं निकल पड़ता हूँ बिना जाने भीड़ का हिस्सा बनने के लिए आखिर देश मेरा है , चलो एक आन्दोलन का हिस्सा बन जाने से शायद कोई अवार्ड मिल जाए , शायद व्यवस्था सुधर जाए , शायद कल आज़ादी की लडाई की तरह इसकी भी चर्चा हो और उन्हें सम्मानित करने का बीड़ा उठाया जाए तो मैं भी सम्मान की एक तश्तरी अपने सर पर रख सकूँ और गर्व से छाती ठोंककर कह सकूँ .....हाँ , हमने देखे हैं वो आन्दोलन , हम थे उसका हिस्सा .............आह ! कपोल कल्पना के रथ पर सवार मेरी विचारधारा का भ्रमण बिना आधार के कैसे धार पाए जब आँख मूंदकर चलना मैंने अपनी नियति बना लिया है , सवाल करना मैंने सीखा ही नहीं , सिर्फ भीड़ का हिस्सा बनकर रहना ही मेरा लक्ष्य है ..........
मैंने सीखा ही नहीं चीत्कार करना ............क्या हुआ अगर हो गया कहीं कोई बलात्कार .........रोज का वाकया भर ही तो है ............क्या हुआ जो हो रही है रोज छेड़छाड़ ...........मुझे अपना पेट भरना है क्योंकि मेरे साथ कुछ नहीं हुआ .............आखिर किस किस से लड़ते रहे ............ ऐसे थोड़े जीया जाता है कि कुछ हुआ और चल पड़ो झंडा बुलंद करने ............अरे , मुझे अपने बीवी बच्चे , घर परिवार देखना है कहाँ है मेरे पास इतना वक्त जो इन बातों के लिए परेशां होता फिरूँ ...........ये काम तो नेताओं का है, ये काम तो स्वयंसेवी संगठनों का है , ये काम तो मानवाधिकार आयोग का है ...........और मैं इन सबसे परे हूँ ............आम चेहरा भर ही तो हूँ जिसे अपने दाल रोटी के अलावा सिर्फ वो ही दिखता है जो उसे दिखाया जाता है , वो ही सुनता है जो सुनाया जाता है और कहने भर को वो होता है जो पढवाया जाता है ...............अब ऐसे में कैसे आवाज़ बुलंद करूँ ?
मैं नियति का खेल हूँ , विधना का विधान हूँ जिसकी कोई पहचान नहीं ...............चल पड़ता हूँ जिधर हाँक दिया जाऊँ ............शोर जहाँ सुनाई दे , भीड़ जहाँ दिखाई दे , लहुलुहान जहाँ कोई दिखाई दे , बम विस्फोटों में मरा जहाँ कोई दिखाई दे ..............बस वो ही तो एक चेहरा हूँ जो सीख गया हूँ हालातों से समझौता करना , आज मरे कल दूजा सवेरा को अपने जीवन का दर्शन बनाना सीख गया हूँ ...........उधार के सिन्दूर से मांग भरना सीख गया हूँ क्योंकि मैं नहीं बदल सकता तस्वीर को , क्योंकि हालात मेरे वश में नहीं, क्योंकि सिर्फ कोसना मेरी आदत है , क्योंकि सिर्फ जिरह करने पर मेरा अख्तियार है , क्योंकि लकीर का फ़क़ीर भर हूँ मैं जो वक्त के आईने में कोई तस्वीर देखना ही नहीं चाहता सिवाय अपने , क्योंकि मैं मान बैठा हूँ अकेला चना क्या भाड़ फोड़ेगा , क्योंकि अपनी संगठित होने की शक्ति को मैं पहचान नहीं पाया , अपने अधिकार जान नहीं पाया , अपने कर्त्तव्य निभा नहीं पाया ............इसलिए कोई शिकायत नहीं , कोई गिला नहीं ..............मुझे पता है मेरा धर्म ..........हाँ धर्म पर चलने वाला ही मोक्ष पाता है इसलिए कर आता हूँ हर 12 साल में कुम्भ स्नान और छोड़ आता हूँ पापों की गठरी गंगा के तट पर या कभी भीड़ का हिस्सा बन हादसे का शिकार बन जाता हूँ तो मुक्त कहलाता हूँ क्योंकि तीर्थस्थल पर प्राणों का जाना मुक्ति का संकेत है धर्मग्रंथों में वर्णित है और मैं बन जाता हूँ उस भीड़ का हिस्सा , मिल जाता है मेरी रूह को सुकून फिर चाहे वहां गंडे ताबीजों के चक्कर में फंस जाऊं या हादसों का शिकार होकर मर जाऊँ ...........मोक्ष पक्का है और यही मेरा धर्म है अब चाहे उसके लिए व्यवस्था पर दोष लगाना पड़े मगर मैं खुद को धर्म विरुद्ध कैसे सिद्ध कर सकता हूँ ...........आखिर धर्म पर ही तो ये धरा टिकी है , आखिर धर्म ही तो हमारी संस्कृति की पहचान है और मैं उससे विमुख होने का पाप कैसे अपने सर ले सकता हूँ ...............फिर चाहे वहाँ कितनी ही अव्यवस्था फैले, चाहे सुगम साधन न हों तब भी मेरी धार्मिकता में कोई कमी नहीं आती , मैं पढ़ा लिखा होकर भी धर्मभीरु हूँ ............पढाई तो पेट भरने की विद्या है और धर्म मुक्ति की इतना तो जानता हूँ इसलिए कैसे अपने धर्म को तज सकता हूँ ..............मैं इस समाज की वो इकाई हूँ जिसके दम पर ही ये संस्कृति फूल फल रही है ऐसे में कैसे मैं इसमें दोष देख सकता हूँ और अपने सिर पाप ले सकता हूँ .............यही तो है मेरा चेहरा
मुझे पता भी चल जाए अपने अधिकारों का तब भी शॉर्टकट अपनाने से बाज नहीं आता क्योंकि वक्त नहीं है , क्योंकि सीधे रास्ते जाने पर बहुत सी मुश्किलें हैं इसलिए रिश्वत देने और लेने में विश्वास रखता हूँ और जीवन सुचारू रूप से चलाता हूँ ..........आदि हो गया हूँ इन बातों का इसलिए फर्क नहीं पड़ता ..............क्या फायदा उस राह जाने का जो वक्त पर काम ही न हो पाए उससे अच्छा है इस हाथ दे और उस हाथ ले .............कोई झंझट ही नहीं और वक्त पर काम भी हो गया सीख चुका हूँ काम निकलवाना ............. अब एक मेरे कुछ करने से सारी व्यवस्था तो बदलने वाली है नहीं जो मैं उसके खिलाफ चलकर अपना समय बर्बाद करूँ ..............मेरी आवाज़ तो नक्कारखाने में तूती की आवाज़ भर है किसी के खिलाफ शिकायत लेकर जाऊँगा तो उलटे मुझे ही अपना गला छूडाना महंगा पड़ेगा और जिसके खिलाफ लेकर जाऊँगा वो चैन से सोयेगा तो क्या फायदा ऐसा कदम उठाने का जिसमे खुद की जान ही सांसत में पड़ जाए इसलिए अपने अधिकारों को जानता हूँ और अपना कर्त्तव्य निभा देता हूँ एक अंगूठा लगाकर क्योंकि तस्वीर का जमा गुना तय करने वाला मैं कौन ............राजनितिक परिदृश्य के पीछे का चेहरा मैं नहीं होता , मैं नहीं लगाता वहाँ बोलियाँ, मैं नहीं खरीदता वहाँ वोट तो क्यों सोचूँ और अपना वक्त बर्बाद करूँ ............मैं तो अधिकार और कर्त्तव्य निभा देता हूँ बाकि तो खरीद फरोख्त की दुनिया में मुझे क्या लेना देना कोई आये कोई जाए .........मेरी तस्वीर नहीं बदलनी, मेरा मुकाम नहीं बदलना , मेरा चेहरा नहीं बदलना ,,,,,,,,,,,,,मैं भीड़ हूँ, भीड़ का हिस्सा हूँ जो भीड़ में गुम हो जाता हूँ और भीड़ के साथ ही चलता हूँ ..............फिर क्या फर्क पड़ता है मैं कुछ बोलूँ, कहूँ या लिखूँ क्योंकि वक्ता नहीं, श्रोता हूँ ...........त्रासदियों , नाकामियों, हताशाओं का वाहक !!!
मैं करता हूँ भ्रमण अपने विचारों के जंगल में जहाँ हवा किलोल कर रही होती है और कान में फुसफुसा जाती है कभी राजनितिक गलियारों की हलचलों को और मैं निकल पड़ता हूँ बिना जाने भीड़ का हिस्सा बनने के लिए आखिर देश मेरा है , चलो एक आन्दोलन का हिस्सा बन जाने से शायद कोई अवार्ड मिल जाए , शायद व्यवस्था सुधर जाए , शायद कल आज़ादी की लडाई की तरह इसकी भी चर्चा हो और उन्हें सम्मानित करने का बीड़ा उठाया जाए तो मैं भी सम्मान की एक तश्तरी अपने सर पर रख सकूँ और गर्व से छाती ठोंककर कह सकूँ .....हाँ , हमने देखे हैं वो आन्दोलन , हम थे उसका हिस्सा .............आह ! कपोल कल्पना के रथ पर सवार मेरी विचारधारा का भ्रमण बिना आधार के कैसे धार पाए जब आँख मूंदकर चलना मैंने अपनी नियति बना लिया है , सवाल करना मैंने सीखा ही नहीं , सिर्फ भीड़ का हिस्सा बनकर रहना ही मेरा लक्ष्य है ..........
मैंने सीखा ही नहीं चीत्कार करना ............क्या हुआ अगर हो गया कहीं कोई बलात्कार .........रोज का वाकया भर ही तो है ............क्या हुआ जो हो रही है रोज छेड़छाड़ ...........मुझे अपना पेट भरना है क्योंकि मेरे साथ कुछ नहीं हुआ .............आखिर किस किस से लड़ते रहे ............ ऐसे थोड़े जीया जाता है कि कुछ हुआ और चल पड़ो झंडा बुलंद करने ............अरे , मुझे अपने बीवी बच्चे , घर परिवार देखना है कहाँ है मेरे पास इतना वक्त जो इन बातों के लिए परेशां होता फिरूँ ...........ये काम तो नेताओं का है, ये काम तो स्वयंसेवी संगठनों का है , ये काम तो मानवाधिकार आयोग का है ...........और मैं इन सबसे परे हूँ ............आम चेहरा भर ही तो हूँ जिसे अपने दाल रोटी के अलावा सिर्फ वो ही दिखता है जो उसे दिखाया जाता है , वो ही सुनता है जो सुनाया जाता है और कहने भर को वो होता है जो पढवाया जाता है ...............अब ऐसे में कैसे आवाज़ बुलंद करूँ ?
मैं नियति का खेल हूँ , विधना का विधान हूँ जिसकी कोई पहचान नहीं ...............चल पड़ता हूँ जिधर हाँक दिया जाऊँ ............शोर जहाँ सुनाई दे , भीड़ जहाँ दिखाई दे , लहुलुहान जहाँ कोई दिखाई दे , बम विस्फोटों में मरा जहाँ कोई दिखाई दे ..............बस वो ही तो एक चेहरा हूँ जो सीख गया हूँ हालातों से समझौता करना , आज मरे कल दूजा सवेरा को अपने जीवन का दर्शन बनाना सीख गया हूँ ...........उधार के सिन्दूर से मांग भरना सीख गया हूँ क्योंकि मैं नहीं बदल सकता तस्वीर को , क्योंकि हालात मेरे वश में नहीं, क्योंकि सिर्फ कोसना मेरी आदत है , क्योंकि सिर्फ जिरह करने पर मेरा अख्तियार है , क्योंकि लकीर का फ़क़ीर भर हूँ मैं जो वक्त के आईने में कोई तस्वीर देखना ही नहीं चाहता सिवाय अपने , क्योंकि मैं मान बैठा हूँ अकेला चना क्या भाड़ फोड़ेगा , क्योंकि अपनी संगठित होने की शक्ति को मैं पहचान नहीं पाया , अपने अधिकार जान नहीं पाया , अपने कर्त्तव्य निभा नहीं पाया ............इसलिए कोई शिकायत नहीं , कोई गिला नहीं ..............मुझे पता है मेरा धर्म ..........हाँ धर्म पर चलने वाला ही मोक्ष पाता है इसलिए कर आता हूँ हर 12 साल में कुम्भ स्नान और छोड़ आता हूँ पापों की गठरी गंगा के तट पर या कभी भीड़ का हिस्सा बन हादसे का शिकार बन जाता हूँ तो मुक्त कहलाता हूँ क्योंकि तीर्थस्थल पर प्राणों का जाना मुक्ति का संकेत है धर्मग्रंथों में वर्णित है और मैं बन जाता हूँ उस भीड़ का हिस्सा , मिल जाता है मेरी रूह को सुकून फिर चाहे वहां गंडे ताबीजों के चक्कर में फंस जाऊं या हादसों का शिकार होकर मर जाऊँ ...........मोक्ष पक्का है और यही मेरा धर्म है अब चाहे उसके लिए व्यवस्था पर दोष लगाना पड़े मगर मैं खुद को धर्म विरुद्ध कैसे सिद्ध कर सकता हूँ ...........आखिर धर्म पर ही तो ये धरा टिकी है , आखिर धर्म ही तो हमारी संस्कृति की पहचान है और मैं उससे विमुख होने का पाप कैसे अपने सर ले सकता हूँ ...............फिर चाहे वहाँ कितनी ही अव्यवस्था फैले, चाहे सुगम साधन न हों तब भी मेरी धार्मिकता में कोई कमी नहीं आती , मैं पढ़ा लिखा होकर भी धर्मभीरु हूँ ............पढाई तो पेट भरने की विद्या है और धर्म मुक्ति की इतना तो जानता हूँ इसलिए कैसे अपने धर्म को तज सकता हूँ ..............मैं इस समाज की वो इकाई हूँ जिसके दम पर ही ये संस्कृति फूल फल रही है ऐसे में कैसे मैं इसमें दोष देख सकता हूँ और अपने सिर पाप ले सकता हूँ .............यही तो है मेरा चेहरा
मुझे पता भी चल जाए अपने अधिकारों का तब भी शॉर्टकट अपनाने से बाज नहीं आता क्योंकि वक्त नहीं है , क्योंकि सीधे रास्ते जाने पर बहुत सी मुश्किलें हैं इसलिए रिश्वत देने और लेने में विश्वास रखता हूँ और जीवन सुचारू रूप से चलाता हूँ ..........आदि हो गया हूँ इन बातों का इसलिए फर्क नहीं पड़ता ..............क्या फायदा उस राह जाने का जो वक्त पर काम ही न हो पाए उससे अच्छा है इस हाथ दे और उस हाथ ले .............कोई झंझट ही नहीं और वक्त पर काम भी हो गया सीख चुका हूँ काम निकलवाना ............. अब एक मेरे कुछ करने से सारी व्यवस्था तो बदलने वाली है नहीं जो मैं उसके खिलाफ चलकर अपना समय बर्बाद करूँ ..............मेरी आवाज़ तो नक्कारखाने में तूती की आवाज़ भर है किसी के खिलाफ शिकायत लेकर जाऊँगा तो उलटे मुझे ही अपना गला छूडाना महंगा पड़ेगा और जिसके खिलाफ लेकर जाऊँगा वो चैन से सोयेगा तो क्या फायदा ऐसा कदम उठाने का जिसमे खुद की जान ही सांसत में पड़ जाए इसलिए अपने अधिकारों को जानता हूँ और अपना कर्त्तव्य निभा देता हूँ एक अंगूठा लगाकर क्योंकि तस्वीर का जमा गुना तय करने वाला मैं कौन ............राजनितिक परिदृश्य के पीछे का चेहरा मैं नहीं होता , मैं नहीं लगाता वहाँ बोलियाँ, मैं नहीं खरीदता वहाँ वोट तो क्यों सोचूँ और अपना वक्त बर्बाद करूँ ............मैं तो अधिकार और कर्त्तव्य निभा देता हूँ बाकि तो खरीद फरोख्त की दुनिया में मुझे क्या लेना देना कोई आये कोई जाए .........मेरी तस्वीर नहीं बदलनी, मेरा मुकाम नहीं बदलना , मेरा चेहरा नहीं बदलना ,,,,,,,,,,,,,मैं भीड़ हूँ, भीड़ का हिस्सा हूँ जो भीड़ में गुम हो जाता हूँ और भीड़ के साथ ही चलता हूँ ..............फिर क्या फर्क पड़ता है मैं कुछ बोलूँ, कहूँ या लिखूँ क्योंकि वक्ता नहीं, श्रोता हूँ ...........त्रासदियों , नाकामियों, हताशाओं का वाहक !!!
सोमवार, 24 मार्च 2014
वो जो ढाँप कर नकाब मिलते हैं
वो जो ढाँप कर नकाब मिलते हैं
दोस्त बन कर ही मुझे ठगते हैं
प्याज की परत से जिनके छिलके उतरते हैं
एक चेहरे में उनके हजार चेहरे दिखते हैं
सत्य के फेरों से जब गुजरते हैं
मेरे अपने बन मुझे ही ठगते हैं
रोने को न जब आँसू बचते हैं
हम गिर गिर कर तब संभलते हैं
मेरे पाँव से जो कालीन सरकाते हैं
वो ही मुस्कुराकर गले अब मिलते हैं
क़त्ल करने को तीर न तलवार चलाते हैं
अपनेपन की बर्छियों से ही आस्तीनें काटे जाते हैं
भरी दुनिया में गैर से खुद को लगते हैं
जब अपनों द्वारा नकारे जाते हैं
शनिवार, 22 मार्च 2014
इश्क की जुबाँ से
इश्क की जुबाँ से काला धागा उतरता ही नहीं
जाने किस मौलवी ने बाँधा है
कौन सा मन्त्र फूँका है
जितना खोलने की कोशिश करूँ
उतना ही मजबूत होता है
सुना है
काले धागे में बंधे ताबीज़ों की तासीर
परेशान आत्माओं की मुक्ति का
या फिर नज़र न लगने का सन्देश होती हैं
और
इश्क की नज़रें भला कब उतरी हैं
इश्क में तो जिए या मरें
आत्माएं न कभी मुक्त हुयी हैं
शायद इसीलिए
इश्क की जुबाँ पर काले धागों की नालिश हुयी है
मंगलवार, 18 मार्च 2014
वो जो दहकते हैं मुझमें पलाश
ए
सुलगती आग
तुझे और दहकाऊँ कैसे
झुलस तो चुकी हूँ
और भडकाऊँ कैसे
और जो आँच
बिना आग के सुलगा करती हैं
वो उम्र भर न बुझा करती हैं
फिर जलने के भी अपने नियम हुआ करते हैं
मजबूरियों के पाँव भी सुलगा करते हैं
वो जो दहकते हैं मुझमें पलाश
वो न किसी सागर से बुझा करते हैं
जलने के भी अपने शऊर हुआ करते हैं
हर बार चूल्हे की आग से ही जलना जरूरी तो नहीं होता ना
सुलगती आग
तुझे और दहकाऊँ कैसे
झुलस तो चुकी हूँ
और भडकाऊँ कैसे
और जो आँच
बिना आग के सुलगा करती हैं
वो उम्र भर न बुझा करती हैं
फिर जलने के भी अपने नियम हुआ करते हैं
मजबूरियों के पाँव भी सुलगा करते हैं
वो जो दहकते हैं मुझमें पलाश
वो न किसी सागर से बुझा करते हैं
जलने के भी अपने शऊर हुआ करते हैं
हर बार चूल्हे की आग से ही जलना जरूरी तो नहीं होता ना
शनिवार, 15 मार्च 2014
लागा चुनरी में दाग मिटाऊँ क्यों कर …
एक खूँखार वक्त में जीते हैं हम या खूँखार हैं हम तो वक्त सहम गया है हमारी खूँखारी तबियत से क्योंकि वक्त की आँख में आँसू नहीं होते मगर निशान बहुत दूर तक साथ साथ चलते हैं , कुछ गुनाह किसी कसौटी पर न तुलते हैं ऐसे में आम आदमी जाए कहाँ किधर देखे , किसे अपना समझे , कहाँ आवाज़ बुलन्द करे जब उसे कुचलने को धारदार हथियार तैयार हों , शब्दों के बाणों से धराशायी करने को , चरित्र की उज्ज्वलता को लहुलुहान करने को तैयार हों सारे रावण एक साथ क्योंकि कैसे किसी राम ने किसी रावण की बनायी लंका में प्रवेश किया , कैसे उसके बनाए प्रतिमानों को ध्वस्त किया आखिर इतने वक्त से जो घडा भरा था लहू से कैसे उससे वंचित हों , ये तो रावण के वंशजों का अधिकार है , कैसे कलई खुल जाए , कैसे रावण के वंशजों का समापन हो जाए आखिर एकजुटता से ही तो साम्राज्य बना करते हैं , आखिर घोटालों के लिये अपने ही तो काम आया करते हैं , ये दाग ही तो उनकी पहचान बनते हैं ऐसे में यदि बेदागों को स्थान दे दिया जाये तो कैसे संभव है आतंक के साम्राज्य का कायम रहना , आखिर इतनी मेहनत से सफ़ेद दामन पर दाग लगाया जाता है नज़र के टीके की तरह और उसी से वंचित रहना पडे तो सारी मेहनत पर पानी न फ़िर जाए , आखिर एक मुकम्मल स्थान पाने के लिये तो ये सारी जद्दोजहद की जाती है और फिर जब वो वक्त आता है जब अलग अलग स्थान देने के तो उस समय यही दाग काम आते हैं , आखिर दागी होना ही तो आज के युग मे ईमानदारी , सच्चाई की मिसाल बन कर सामने आया है तभी तो हर रावण अपने मंत्रिमंडल में हर दागी को स्थान देने को लालायित रहता है , आखिर पहचान दाग से ही बना करती है , लागा चुनरी में दाग मिटाऊँ क्यों कर ………जाके मंत्रिमंडल में स्थान पाऊँ अब तो ………जब तालाब मे सिर्फ़ खराब मछलियों का ही साम्राज्य हो तो कैसे कोई अच्छी मछली भला टिक सकती है , दागी मगरमच्छों की भेंट चढना ही उसकी नियति है ………आखिर इतना बडा साम्राज्य अनाडी नये नये पैदल मार्च करने वालों को तो नहीं सौंपा जा सकता इसलिये अलग अलग प्रान्तों के रावणों का एकजुट होना लाज़िमी है , सभी दागियों तो मंत्रिमंडल में स्थान देना लाज़िमी है आखिर मंत्रिमंडल के विस्तार में यही तो काम आयेंगे तभी तो जनता के बीच खौफ़ के बादल लहरायेंगे और फिर सब ठीक है की तर्ज पर रावण राज में सभी सुखी हो जायेंगे क्योंकि चुनने की , कुछ कहने या करने की हिम्मत आम जनता में कहाँ होती है , सारी राजनीति तो रावण के घर से शुरु होकर वहीं खत्म होती है , जनता तो मूकदर्शक होती है बस मूकदर्शक जिसका कोई कद नहीं , कोई परिमाण नहीं , कठपुतलियों की न दिशा होती है न दशा बस डोर खींचने वालों के हाथ में रहना ही उनकी नियति होती है क्योंकि जागकर क्या होना है आज के युग में तो राम का ही कत्ल होना है सच की चिता पर तो राम को ही जलना है और रावण ने राम के मरण पर अट्टहास ही करना है ……हा हा हा
बुधवार, 12 मार्च 2014
ले तेरे शहर से आज हम अंजान हो गये
कोई भीगा हो तो जानेगा गीलेपन का अहसास
और यहां तो जंगल के जंगल रेगिस्तान हो गये
ना तुम वो रहे ना मैं वो रही
बस सब उम्र के बियाबान हो गये
जाने हुये अजनबी और दर्द की लकीरें
सब के सब खुद से अंजान हो गये
जो बोये थे कभी तुमने बबूल के बोर
सब के सब आज मेरी जान हो गये
कभी जीये थे जो इश्क की दास्तानों में
लम्हे वो सभी मेरे बेजुबान हो गये
क्या करे कोई फ़रमाईश क्या करे कोई शिकायत
जितने रकीब थे सभी मेरे मेहमान हो गये
अब जीने की आरज़ू ना मरने का रहा गम
जिस भी कूचे से गुजरे वहीं बदनाम हो गये
जिन रहबरोंसे गुजरा करते थे रात दिन
ले तेरे शहर से आज हम अंजान हो गये
और यहां तो जंगल के जंगल रेगिस्तान हो गये
ना तुम वो रहे ना मैं वो रही
बस सब उम्र के बियाबान हो गये
जाने हुये अजनबी और दर्द की लकीरें
सब के सब खुद से अंजान हो गये
जो बोये थे कभी तुमने बबूल के बोर
सब के सब आज मेरी जान हो गये
कभी जीये थे जो इश्क की दास्तानों में
लम्हे वो सभी मेरे बेजुबान हो गये
क्या करे कोई फ़रमाईश क्या करे कोई शिकायत
जितने रकीब थे सभी मेरे मेहमान हो गये
अब जीने की आरज़ू ना मरने का रहा गम
जिस भी कूचे से गुजरे वहीं बदनाम हो गये
जिन रहबरोंसे गुजरा करते थे रात दिन
ले तेरे शहर से आज हम अंजान हो गये
शुक्रवार, 7 मार्च 2014
यूँ ही नहीं नरक के दरोगा का तमगा खुद को दिया है उसने ..............
वो
मर्यादा की दहलीज पर
आस्था के बीज उगाती है
फिर
रोज झाड़ू लगाती है
कूड़ा कचरा साफ़ करती है
और
रोज चौखट को लीपा करती है
रंगोलियाँ बनाया करती है
फिर
उस पर पानी फेरा करती है
हर रंग मिटाया करती है
यूँ ही रोज वो
एक नया जन्म दिया करती है
मगर किसे ?
खुद को या ज़िन्दगी को ?
शायद यूँ ही वो
ज़िन्दगी से मुखातिब होती है
और
सिलसिला चलता रहता है
बनने मिटने का
आस के दीप जलने बुझने का
मौसम के बदलने का
वक्त के कपडे बदलने का
दिनचर्या
चाहे कितनी बदली जाये
वक्त की सीढियां चढ़ती
अपनी ज़िन्दगी की पगडण्डी पर
रौशन चिराग बुझाया करती है
वो यूँ इठलाया करती है
और
ज़िन्दगी से बतियाया करती है
गर दे सकती है तू
तो दे एक बार इम्तिहान
कसम है
पास नहीं होगी ........ए ज़िन्दगी
तलवार की नोक पर नृत्य करना
जो सीखा होता
तुझे भी धारों पर चलना आया होता
यूँ ही नहीं नरक के दरोगा का तमगा खुद को दिया है उसने ..............
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