अपनी गाथा आज स्वंय मै गाती हूँ
हाँ ......कौन सी उर्मिला हूँ
आज मैं बतलाती हूँ
ना जाने क्यूँ
स्त्री को तुमने
अबला ही माना
उसका सिर्फ एक
रूप ही जाना
इतिहास गवाह है
स्त्री ने ही
इतिहास बनाया
अपने अनेक रूपों से
जग को महकाया
चलो आज तुम्हें बतलाती हूँ
अपना गौरव गान
खुद मैं गाती हूँ
इतिहास की वो
अमर नारी हूँ
जिसकी छवि
तुमने बिगाड़ी है
और मेरी महिमा
ना जानी है
हाँ मैं हूँ उर्मिला
लक्ष्मण पत्नी
उर्मिला
जिसके जीवन को
तुमने तोडा मरोड़ा है
मैं वो लौह स्तम्भ हूँ
जिसने ईंट- ईंट को जोड़ा है
कैसे कमजोर जाना मुझको
कैसे ना पहचाना मुझको
चलो आज वो
गाथा बतलाती हूँ
तुम्हें तुम्हारा इतिहास
अपने आईने में दिखाती हूँ
जब लक्ष्मण माँ की आज्ञा ले
राम संग जाने को उद्यत हुए
राह में उर्मिला का
महल पड़ता था
मगर लक्ष्मण का मन
हिलोरें खाता था
गर पत्नी के पास जाता हूँ
तो कैसे भातृधर्म निभाऊंगा
उसकी आँखों से बहते
अश्रु बिन्दुओं में ना बह जाऊँगा
वो भी तो ये कह सकती है
जब माँ सीता राम संग
वन में रह सकती हैं
तो मैं भी पिया
संग संग तुम्हारे चलूंगी
वन का हर कष्ट
तुम संग सहूँगी
और यदि ये साथ जायेंगी
तो सेवक की मर्यादा ही
सारी ढह जायेगी
कैसे भातृधर्म फिर निभेगा
कैसे निद्रा पर वश चलेगा
कैसे भूख को नियंत्रित करूंगा
और माँ को दिया वचन
"राम की अहर्निश रक्षा का "
कैसे पूरा करूंगा
क्योंकि तब तो पत्नी का भी
ख्याल रखना होगा
उसकी भूख प्यास का भी
ध्यान रखना होगा
कुछ तो पति धर्म का
मुझे भी पालन करना होगा
मेरे खाने से पहले ना वो खाएगी
मेरे सोने से पहले ना वो सोएगी
और यदि ऐसा हुआ तो ये तो उस पर
कुठाराघात होगा
पत्नीधर्म के नाम पर
उसके संग अन्याय होगा
इस तरह ना पत्नी धर्म
और ना भातृधर्म निभेगा
और दूसरी तरफ यदि
बिना मिले मैं जाता हूँ
तब भी घोर अन्याय होगा
पतिधर्म की मर्यादा खंडित होगी
वो राह मेरी तक रही होगी
प्रतीक्षा में देहरी पर खडी होंगी
गर मिलकर नहीं जाता हूँ
ये सरासर अपमान होगा
पत्नी के साथ एक नारी के
स्वाभिमान का तिरस्कार होगा
और राम ने हमेशा मर्यादा
को ऊंचा स्थान दिया
फिर मैं कैसे ना उनके
पदचिन्हों पर नहीं चल सकता
गर उनका ना अनुसरण
कर पाता हूँ तो
कैसा सेवक धर्म निभाता हूँ
इसी उहापोह में डूबे
लक्ष्मण उर्मिला के
द्वार पर पहुंचे
और द्वार खटखटा दिया
उधर आज उर्मिला ने
दुल्हन सा सोलह श्रृंगार किया
थाली पूजा की सजाई है
प्रेम की बाती जलाई है
खबर तो उन तक भी
पहुँच चुकी थी
सत्य सारा वो जान चुकी थीं
मगर उनमे ना कमजोर
नारी छिपी थी
वो तो आज बहुत
हर्षित हुई थी
मेरे पति को आज
प्रभु सेवा में जाना है
मुझे उनका मान बढ़ाना है
उनसे बढ़कर कौन बडभागी होगा
जिसे प्रभु चरणों की सेवा का
ये अनुपम सुख मिलेगा
ये सोच -सोच उर्मिला
अति हर्षाती हुई
और प्रियतम के स्वागत को
उद्यत हुई
पति की प्रतीक्षा कर रही है
सोलह श्रृंगार किये दुल्हन खडी है
तभी लक्ष्मण जी ने
द्वार खटखटाया है
और उर्मिला जी ने हर्षित हो
द्वार खोला है
अपने प्रियतम को देख
हर्षित हुई
मगर लक्ष्मण जी की
आँखें नीची हुईं
ये देख उर्मिला बोल पड़ी
प्रिये ! यूँ ना तुम
निगाहें चुराओ
मुझे ना अपराधिनी बनाओ
और मुझसे ज़रा
नज़र तो मिलाओ
क्षत्राणी हूँ , धर्म से
ना डिगने दूँगी
तुम्हारे हर धर्म और कर्म में
संग- संग रहूँगी
तुम ना संकोच करो
ज़रा मेरे मुखकमल पर
नज़र करो
यहाँ ना कोई
विषय- विकार नज़र आएगा
ना ही तुम्हारे विरह की कोई
विषाद रेखा दिखेगी
क्या जानते नहीं
मैंने किसी भोगी के घर का
अन्न नहीं खाया है
मैं परम योगी जनक के
अन्न से पली हूँ
बस यही तो फर्क होता है
योग में और भोग में
भोगी को भोग विकार
के सिवा ना कुछ दिखता है
मगर योगी की तपस्या
ना उसे डिगने देती है
बल्कि हर कदम पर
उसे संबल देती है
कैसे तुमने सोच लिया
तुम्हारी पथबाधा बन जाऊंगी
और तुच्छ भोग विलास के
भंवर में तुम्हें फंसाऊंगी
शायद तुमने अभी मुझे जाना नहीं
अपनी अर्धांगिनी को ढंग से
पहचाना नहीं
अरे प्रिय ! तुम राघव की सेवा करना
मेरी ना कोई चिंता करना
जैसे अंतिम वाक्य सुना
लक्ष्मण ने मुख ऊपर किया
उर्मिला के सतित्व से
देदिप्त मुख की तरफ़
आश्चर्यमिश्रित नेत्रों से निहार
उर्मिला को गले लगा लिया
आज लक्ष्मण के नेत्रों में भी
अश्रुओं को स्थान मिला
बोले धन्य हो देवी !
जो तुम सी अर्धांगिनी मिली
तुमने आज पत्नीधर्म निभा दिया
और तुम्हारे तेज के आगे
मेरा मस्तक नत हुआ
तब उर्मिला बोली , प्रिये !
बस एक वादा करते जाओ
१४ वर्ष की अवधि पूर्ण होने पर
सही सलामत वापस आओ
बस इतना वचन देते जाओ
रघुवंशी वचन के पाबंद होते हैं
ये मैंने जान लिया है
मैंने जो ये दीपक जलाया है
मैं ना इसे बुझने दूँगी
१४ वर्ष तक यूँ ही जलने दूँगी
द्वार यूँ ही खुला रखूंगी
श्रृंगार मेरा यूँ ही सजा मिलेगा
चौखट पर आरती का थाल
लिए खडी मिलूंगी
अपने सतीत्व पर इतना
भरोसा है मुझको
ना मेरा दीपक बुझेगा
ना ही कोई फूल हार का मुरझायेगा
और ना ही मेरा श्रृंगार फीका पड़ेगा
अवधि पूर्ण होने पर
इसी आरती के थाल से
तुम्हारा स्वागत करूंगी
और यही तुम्हारा संबल बनेगा
बस अवधि की आस मत तोडना
साजन बस यही वचन निभा देना
इतना कह हँसते हँसते
उर्मिला ने लक्ष्मण को विदा किया
परम सती वो नारी थी
जिसकी अविचल श्रद्धा ने ही
लक्ष्मण को बचाया था
उसके सतीत्व का प्रमाण
इस प्रसंग में दिखता है
जब हनुमान संजीवनी लेकर आते थे
और भरत के बाण से
घायल अयोध्या में जा गिरे थे
तब सब माताएं और उर्मिला भी
वहाँ पधारी थीं
लक्ष्मण का हाल जान
सुमित्रा ने संदेस दिया
हनुमान राम को मेरा संदेस देना
कहना घबराये नहीं
लक्ष्मण को कुछ होता है
तो मेरा दूसरा पुत्र आता है
भाई की सेवा तो
कोई सौभाग्य से पाता है
कैसी वो माँ थी
जिसे प्रभु सेवा में
अपने किसी भी पुत्र की
न कोई परवाह थी
इधर कौशल्या कहती थीं
हनुमान राम को कह देना
गर मेरे लक्ष्मण
को कुछ हुआ
तो कभी ना
अयोध्या का रुख करना
मैं ना उसका मुख देखूँगी
लक्ष्मण बिना अयोध्या
ना आने दूँगी
वात्सल्य की अनुपम
मिसाल हैं दोनों
एक दूसरे से
त्याग में माताएं
बढ़ चढ़ कर है दोनों
सब अपनी अपनी कहते हैं
पर उर्मिला मुख पर
मुस्कान लिए चुप बैठी है
ये देख हनुमान ने पूछ लिया
माता ऐसी घडी में
तुम्हारे मुख पर
मुस्कान कैसे खेल रही है
जरा कारण तो बतलाओ
बिना कारण तो ये संभव नहीं
हो सकता है
कोई यूँ ही नहीं इन हालात में
धैर्य धारण कर हँस सकता है
और फिर ये तो वैसे भी
राम की मर्यादा स्थली है
जहाँ मर्यादा कदम कदम पर
धरती का माथा चूमती है
हर इंसान में सिर्फ और सिर्फ
मर्यादा ही अठखेलियाँ करती है जहाँ
वहाँ कैसे संभव हो सकता है
जिसके पति पर जीवन का
इक इक पल भारी हो
सूर्य निकलने तक ही
जिसका जीवन लिखा हो
कैसे कोई नारी अविचल रह सकती है
ऐसे वक्त में तो धैर्य भी
धैर्यहीन हो जाए
जरा जल्दी बतलाओ माँ
मुझे बहुत दूर जाना है
वरना लक्ष्मण को बचाना
मुश्किल होगा
ये सुन उर्मिला बोल पड़ीं
हनुमान मेरे पति को ना कुछ होगा
तुम जानते हो
वो शेषनाग का अवतार हैं
जिनके सिर पर
सारी पृथ्वी का भार है
और पापियों के बोझ से
पृथ्वी का बोझ बढ़ गया है
इसलिए मेरा पति थक गया है
ये देख राघव को दुःख हुआ है
वैसे भी १४ वर्ष से
ना उन्होंने विश्राम किया है
इसलिए राघव ने उन्हें
अपनी गोद में लिया है
आज उनकी गोद में
आराम फरमाते हैं
दूसरी बात जिसे
भगवान की गोद मिली हो
उसका कोई क्या
बिगाड़ सकता है
काल भी जिसके आगे
हाथ जोड़कर खड़ा होता है
जो कालों के भी महाकाल हैं
उन भगवान की गोद में
मेरा पति दुलार पाता था
तीसरे मेरे पति तो
खुद शेषनाग हैं
काल भी जहाँ शीश झुकाता है
भला वहाँ कैसे
उन्हें कुछ हो पाता है
इतना सुन हनुमान बोले
अभी सूर्यदेव के निकलने में
देरी है
माते फिर प्राण ना बच पाएंगे
सुन उर्मिला बोली
हनुमान सूर्य को
मैं ना निकलने दूँगी
मैं उस कुल की
पुत्रवधू हूँ
जिसके कुलदेवता
खुद सूर्य देव हैं
गर मेरे पति को कुछ हुआ
तो अगले दिन कैसे
अपनी विधवा बहू का
सूर्य देवता सामना करेंगे
इसलिए हनुमान तुम
निश्चिन्त रहो
और सबसे बड़ी बात सुनो
मेरा दीपक आज भी
प्रज्ज्वलित है
ना ही पूजा के फूल
मुरझाये हैं
ना ही मेरा श्रृंगार
फीका पड़ा है
जो बतलाता है
मेरे स्वामी को ना
कुछ हुआ है
ना ही कुछ हो सकता है
जब तक मेरे सतीत्व का
दीपक जलता है
ये प्रमाण है इस बात का
मेरा सुहाग सदा अटल है
साथ ही रघुवंशी ना
अपने वचन से पीछे हटते हैं
और उन्होंने मुझे वचन दिया है
ये देख हनुमान नतमस्तक हुए
अब कहो दुनियावालों
तुमने मुझमे कैसे
प्रिय के वियोग के
चिन्ह दिखे
धर्मपत्नी वो ही कहाती है
जो पति को भी
धर्म के मार्ग पर लगाती है
खुद भी चलती है
और मैंने वो ही धर्म निभाया है
जो मेरे पति को
सकुशल वापस लाया है
ज़रा इतिहास पढ़ लिया करो
सत्य को जान लिया करो
यूँ ही ना सत्य का दोहन करो
जनक पुर की चार बेटियां
अयोध्या की नींव बनी हैं
राम ने तो सिर्फ
सत्य के कलश को
आरोहित किया
तभी सत्य का
रामराज्य का डंका बजा
मगर अयोध्या के इतिहास में
जनकपुर की चार बेटियों ने
नींव की ईंट का काम किया
यूं ही नहीं इतिहास स्वर्णिम बना .........