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सोमवार, 29 अक्टूबर 2018

बुरा वक्त कहता है

बुरा वक्त कहता है
चुप रहो
सहो
कि
अच्छे दिन जरूर आयेंगे

सब मिटा दूँ, हटा दूँ
कि
आस की नाव पर नहीं गुजरती ज़िन्दगी

छोड़ दूँ सब कुछ
हो जाऊँ गायब
समय के परिदृश्य से
अपने दर्द की लाठी पकड़

फिर
वक्त खोजे मुझे और कहे
आओ न
मैंने संजोये हैं तुम्हारे लिए अच्छे दिन
तुम्हारे मनचाहे दिन
करो जो तुम करना चाहती हो
जियो जैसे जीना चाहती हो
हँसो जैसे हँसना चाहती हो
उडो जैसे उड़ना चाहती हो
और एक पूरी ज़िन्दगी जी जाऊँ मैं जीभर के
अपनी तमन्नाओं हसरतों और चाहतों का कोलाज बनाकर
सपना अच्छा है न ...
लड़की जो सिर्फ स्वप्न देखना ही जानती है बस

मंगलवार, 23 अक्टूबर 2018

जिसकी लाठी उसकी भैंस की तरह

हुआ करते थे कभी
चौराहों पर झगडे
तो कभी सुलह सफाई
वक्त की आँधी सब ले उड़ी

आज बदल चुका है दृश्य
आपातकाल के मुहाने पर खड़ा देश
नहीं सुलझा पा रहा मुद्दे
चौराहों पर सुलग रही है चिंगारी
नफरत की
अजनबियत की
आतंक की
जाति की
धर्म की
फासीवाद की

गवाह सबूत और वायरल विडियो
हथियार हैं आज के समय में
घटनाओं को पक्ष या विपक्ष में करने के
फिर झगडे पैदा करना कौन सा मुश्किल काम है

अब तयशुदा एजेंडों पर होता है काम
मानक तय कर दिए जाते हैं
देखकर मौसम का रुख
सत्ता और कुर्सी के खेल में
चौराहे शरणस्थली हैं
जमा भीड़ स्वयम कर देती है हिसाब किताब

सुलह सफाई बदल चुकी है
जोर जबरदस्ती में
जिसकी लाठी उसकी भैंस की तरह

ये बदलते वक्त के साथ बदलते देश का नया मानचित्र है ...



मंगलवार, 2 अक्टूबर 2018

चौराहे हमारी आरामस्थली हैं

आजकल हम उस चौराहे पर खड़े हैं
जिससे किसी भी ओर
कोई भी रास्ता नहीं जाता

एक दिशाहीन जंगल में
भटकने के सिवा
जैसे कुछ हाथ नहीं लगता
वैसे ही
अब न कोई पथ प्रदर्शक मिलता
यदि होता भी तो
हम नहीं रहे सभ्य
जो उसकी दिखाई दिशा में बढ़ लें आगे

लम्पटता में प्रथम स्थान पाने वाले हम
आजकल ईश्वर को भी
कटघरे में खड़ा कर देते हैं
तो कभी
उसके मंदिर के लिए लड़ लेते हैं
ऐसे सयानों के मध्य
कहाँ है सम्भावना किसी पथ प्रदर्शक की

पथ आजकल हम बनाते हैं
और हम ही जानते हैं
कितने घर चलेगा इस बार घोड़ा अपने कदम
बदल चुकी है चाल
आज घोड़े के ढाई घर की
फिर किस रीत पर रीझ
कोई बनेगा पथ प्रदर्शक

आज प्रासंगिक हो या नहीं
तुम स्वयं ही तय कर लेना
तुम और तुम्हारे विचारों से किसी को क्या लेना देना
हाँ, नोटों पर चमकती तुम्हारी तस्वीर
तोडती है आज प्रासंगिकता के हर कायदे को
जिसके दम पर
पैदा कर लिए जाते हैं आज
चवन्नी चवन्नी में बिकने वाले पथ प्रदर्शक

और हम
न इस ओर होते हैं न उस ओर
हम एक मोहरे से खड़े हैं
राजनीति के चौराहे पर
जिन्हें दशा का ज्ञान है न दिशा का
फिर चलना या जाना
जैसी क्रियायों से कैसे हो सकते हैं अवगत

चौराहे हमारी आरामस्थली हैं



हम कौन हैं -----तुमसे बेहतर कौन जानता होगा बापू !!!

©वन्दना गुप्ता vandana gupta