जाने कब गूंगे हुए
एक अरसा हुआ
अब चाहकर भी जुबाँ साथ नहीं देती
अपनी आवाज़ सुने भी गुजर चुकी हैं
जैसे सदियाँ
ये बात
न मुल्क की है
न उसके बाशिंदों की
लोकतंत्र लगा रहा है उठक बैठक
उनके पायतानों पर
और उनके अट्टहास से गुंजायमान हैं
दसों दिशाएँ
उधर
निश्चिन्त हो
आज भी
राघव पकड़ रहा है
बंसी डाले पोखर में मछलियाँ ........