सर्वस्व समर्पण किया था तुम्हें
सात फेरों के सात वचनों के साथ
सात जन्म के लिए
बांध ली थी तुम संग जीवन डोर
उम्र की सीढियां चढ़ती रही
रोज एक नयी आग सुलगती रही
अपना प्रेम अपना विश्वास अपना वजूद
सब तुम पर ही लाकर ठहरा दिया था
और तुम्हारे लिए
मेरा वजूद क्या था
या क्या है
बस यही ना जान पाई
सिर्फ तन का ही संगम हुआ
जीवन भागीरथी में
कभी मतभेद बढे
तो कभी चाहतें परवान चढ़ीं
कभी तुम्हारे फरेब ने
आत्मा को कचोट दिया
कभी तुम्हारे झूठ ने
मुझे छलनी किया
फिर भी सात जन्मों के बँधन
की हर रस्म निभाती रही
कभी मन से तो कभी तन से
और था भी क्या मेरे पास
सिवाय मन और तन के
मगर तुम्हारे अहम् ने
हर जगह मुझे प्रताड़ित किया
फिर भी ना उफ़ किया
लेकिन नहीं पता था
तुम अपने अहम् को
पोषित करने के लिए
हर सीमारेखा लाँघ जाओगे
जिसमे मेरे वजूद को भी
ढहा जाओगे
मेरे स्वाभिमान की लाश पर
अपने नपुंसक अहम् की
दीवार खडी कर जाओगे
एक सीमा होती है ना
सागर की भी
उसमे भी सुनामियां आती हैं
जब समवायी हद से बाहर हो जाये
और लगता है शायद
अब वो वक्त आ गया है
आखिर कब तक तुम्हारे
तुच्छ अहम् की खातिर
खुद की आहुति देती
एक ही चीज तो मेरी अपनी थी
मेरा स्वाभिमान..................
और तुमने उसे भी रौंद दिया
सिर्फ गैरों की खातिर
और अपने अहम् के पोषण के लिए
असत्य संभाषण का सहारा लिया
कहो कब तक और क्यों
तुम्हारी ही खातिर जीती रहूँ
और बेइज्जती के कडवे घूँट पीती रहूँ
इसलिए आज एक निर्णय ले ही लिया
वरना शायद खुद की नज़रों में गिरकर
जीना आसान नहीं होता
मैंने तुम्हें रस्मो रिवास के
हर बँधन से मुक्त किया
अब ना तुम से
तन का रिश्ता रहा ना मन का
लो मैंने पानी पर दीवार बना दी है
इस पार मेरा जहान
उस पार तुम्हारा
एक छत के नीचे रहते हुए भी
जो दिखाई नहीं देतीं
वो अदृश्य दीवारें बहुत मजबूत होती हैं
हाँ मैंने आज तुम्हें तन और मन से त्याग दिया है
क्या जरूरी है हर बार त्याग राम ही करे
लो आज सीता ने तुम्हारा त्याग किया ................