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गुरुवार, 29 नवंबर 2012

गुस्ताखियों को कहो ज़रा

गुस्ताखियों को कहो ज़रा 
मेरे शहर के कोने मे ठहर जायें
रात को घूंघट तो उठाने दो ज़रा

कहीं सुबह की नज़ाकत ना रुसवा हो जाये

एक पर्दानशीं का वादा है
चन्दा भी आज आधा है
लबों पर जो ठिठकी है
वो कमसिनी ज्यादा है
ऐसे मे क्यों ना गुस्ताखी हो जाये
जो सिमटी है शब तेरे आगोश मे
उसे जिलावतन किया जाये
एक तस्वीर जो उभरी थी ख्यालों मे
क्यों ना उसे तस्दीक किया जाये

यूँ ही बातों के पैमानों मे

एक जाम छलकाया जाये

रात की सरगोशी पर

चाँदनी को उतारा जाये
फिर दीदार तेरा किया जाये
कि चाँदनी भी रुसवा हो जाये
ये किस हरम से गुज़री हूँ 
इसी पशोपेश में फँस जाये

पर्दानशीनों की महफ़िल में

बेपर्दा ना कोई शब जाए

गुस्ताखियों को कहो ज़रा 
मेरे शहर के कोने मे ठहर जायें............

सोमवार, 26 नवंबर 2012

बस मूक हूँ .............पीड़ा का दिग्दर्शन करके



मुझमे उबल रहा है एक तेज़ाब
झुलसाना चाह रही हूँ खुद को
खंड- खंड करना चाहा  खुद को
मगर नहीं हो पायी
नहीं ....नहीं छू पायी
एक कण भी तेजाबी जलन की
क्योंकि
आत्मा को उद्वेलित करती तस्वीर
शायद बयां हो भी जाए
मगर जब आत्मा भी झुलस जाए
तब कोई कैसे बयां कर पाए
देखा था कल तुम्हें 

नज़र भर भी नहीं देख पायी तुम्हें
नहीं देख पायी हकीकत
नहीं मिला पायी आँख उससे
और तुमने झेला है वो सब कुछ
हैवानियत की चरम सीमा
शायद और नहीं होती
ये कल जाना
जब तुम्हें देखा
महसूसने की कोशिश में हूँ
नहीं महसूस पा रही
जानती हो क्यों
क्योंकि गुजरी नहीं हूँ उस भयावहता से
नहीं जान सकती उस टीस को
उस दर्द की चरम सीमा को
जब जीवन बोझ बन गया होगा
और दर्द भी शर्मसार हुआ होगा
कहते हैं "चेहरा इन्सान की पहचान होता है "
और यदि उसी पहचान
पर हैवानियत ने तेज़ाब उंडेला हो
और एक एक अंग गल गया हो
मूंह , आँख , नाक , कान
सब रूंध गए हों
न कहना
न सुनना
न बोलना
जीवन की क्षणभंगुरता ने भी
उस पल हार  मान ली हो
नहीं , नहीं , नहीं
कोई नहीं जान सकता
कोई नहीं समझ सकता
उस दुःख की काली रात्री को
जो एक एक पल को
युगों में तब्दील कर रही हो
एक एक सांस
खुद पर बोझ बन रही हो
और जिंदा रहना
एक अभिशाप समझ रही हो
कुछ देर खुद को
गर गूंगा , बहरा और अँधा
सोच भी लूं
तो क्या होगा
कुछ नहीं
नहीं पार पा सकती उस पीड़ा से
नहीं पहुँच सकती पीड़ा की
उस भयावहता के किसी भी छोर तक
जहाँ जिंदा रहना गुनाह बन गया हो
और गुनहगार छूट गया हो
जहाँ हर आती जाती सांस
पोर पोर में लाखों करोड़ों
सर्पदंश भर रही हो
और शरीर से परे
आत्मा भी मुक्त होने को
व्याकुल हो गयी हो
और मुक्ति दूर खड़ी अट्टहास कर रही हो
नहीं ..........शब्दों में बयां हो जाये
वो तो तकलीफ हो ही नहीं सकती
जब रोज खौलते तेज़ाब में
खुद को उबालना पड़ता है
जब रोज नुकीले भालों की
शैया पर खुद को सुलाना पड़ता है
जब रोज अपनी चिता को
खुद आग लगाना पड़ता है
और मरने की भी न जहाँ
इजाज़त मिलती हो
जिंदा रहना अभिशाप लगता हो
जहाँ चर्म , मांस , मज्जा
सब पिघल गया हो
सिर्फ अस्थियों का पिजर ही
सामने खड़ा हो
और वो भी अपनी भयावहता
दर्शाता हो
भट्टी की सुलगती आग में
जिसने युगों प्रवास किया हो
क्योंकि
जिसका एक एक पल
युगों में तब्दील हुआ हो
वहां इतने वर्ष बीते कैसे कह सकते हैं
क्या बयां की जा सकती है
शब्दों के माध्यम से ?
पीड़ा की जीवन्तता
जिससे छुटकारा मिलना
आसान  नहीं दीखता
जो हर कदम पर
एक चुनौती बनी सामने खड़ी दिखती है
क्या वो पीड़ा , वो दर्द
वो तकलीफ
वो एक एक सांस के लिए
खुद से ही लड़ना
मौत को हराकर
उससे दो- दो हाथ करना
इतना आसान है जितना कहना
"जिस पर बीते वो ही जाने "
यूँ ही नहीं कहा गया है
शब्द मरहम तभी तक बन सकते हैं
जहाँ पीड़ा की एक सीमा होती है
अंतहीन पीडाओं के पंखों में तो सिर्फ खौलते तेज़ाब ही होते हैं
जो सिर्फ और सिर्फ
आत्मिक शक्ति और जीवटता के बल पर ही जीते जा सकते हैं
और तुम उसकी मिसाल हो कहकर
या तुम्हें नमन करके
या सहानुभूति प्रदर्शित करके
तुम्हारी पीड़ा को कमतर नहीं आंक सकती
बस मूक हूँ .............पीड़ा का दिग्दर्शन करके


दोस्तों कल कौन बनेगा करोडपति में धनबाद की सोनाली को देखा और जिस पीड़ा से वो गुजरी उसे जाना , उसे देखा तो मन कल से बहुत व्यथित हो गया और सोच में हूँ तब से कैसे उसने इतने साल एक एक पल मौत से लड़कर गुजारा है ?
विकृत मानसिकता ने एक जीवन को कैसे बर्बाद किया ये देखकर मन उद्वेलित हो गया और उसकी पीडा को सोच सोच कर ही दिल कसमसा रहा है क्या थी और क्या हो गयी और कैसे उसने पिछले दस सालों से जीवन को जीया है ……मुझे सिर्फ़ और सिर्फ़ उसकी पीडा ही तडपा रही है जिसे शब्दों में व्यक्त करना नामुमकिन है।

गुरुवार, 22 नवंबर 2012

अम्बर तो श्वेताम्बर ही है

रंगों को नाज़ था अपने होने पर
मगर पता ना था
हर रंग तभी खिलता है
जब महबूब की आँखों में
मोहब्बत का दीया जलता है
वरना तो हर रंग 
सिर्फ एक ही रंग में समाहित होता है
शांति दूत बनकर .........
अम्बर तो श्वेताम्बर ही है 
बस महबूब के रंगों से ही
इन्द्रधनुष खिलता है
और आकाश नीलवर्ण दिखता है ...........मेरी मोहब्बत सा ...है ना !!

सोमवार, 19 नवंबर 2012

"कन्यादान" ............एक सामाजिक कुरीति

"कन्यादान" ............एक सामाजिक कुरीति

 "कन्यादान" सुनने में तो बहुत अच्छा लगता है मगर यदि गौर से देखा जाये तो ये भी एक सामाजिक कुरीति है जिसने स्त्री की दशा को दयनीय  बनाने में अहम् भूमिका निभाई .  आज कन्यादान जैसी  कुरीतियों ने स्त्री को वस्तु बना दिया या कहिये गाय ,बकरी बना दिया जिसे जैसे चाहे प्रयोग किया जा सकता है , जिसे जब तक जरूरत हो प्रयोग करो और उसके बाद चाहो तो दूसरे  को दे दो या फेंक दो उसी तरह का व्यवहार चलन में आ गया जिसके लिए कुछ हद तक हमारे ऐतिहासिक पात्र  भी जिम्मेदार हैं जिन्होंने अपनी बेटी की विदाई के वक्त ये कह दिया कि  ये तुम्हारे घर की दासी है इसे अपने चरणों में जगह देना .........आखिर क्यों ? क्या विवाह दो इंसानों में नहीं होता ? क्या एक खरीदार होता है और दूसरा विक्रेता ? क्या सन्देश दे रहे हैं हमारे ऐतिहासिक पात्र  ? और जो परम्पराएं बड़े घरों से  चलती हैं वो ही समाज में गहरे जडें जमा लेती हैं जिनका  दूरगामी परिणाम बेहद दुष्कर होता है जिसका उदाहरण आज की स्त्री की दुर्दशा  है .

पहले के पात्रों में देखो सीता की विदाई में  यही दृश्य उपस्थित  हुआ तभी तो सीता का प्रयोग एक वस्तु की तरह हुआ . जिसने कदम कदम पर अपने पति का साथ देकर पत्नीधर्म निभाया उसे ही गर्भावस्था में एक धोबी के कहने पर त्यागना क्या उदाहरण पेश करता है समाज के सामने कि  वो एक वस्तु ही है जिसे जैसे चाहे प्रयोग करो और जरूरत न हो तो फेंक दो ,त्याग दो और उसे राजधर्म का नाम दे दो ............क्या वो उनकी प्रजा में नहीं आती थी ? राम को  भगवान की दृष्टि से न देखकर यदि साधारण इन्सान की दृष्टि से देखा जाये तो ये प्रश्न उठना लाजिमी है और देखिये इस कुप्रथा का दुष्परिणाम पांडवों ने भी तो यही किया अपनी पत्नी को वस्तु की तरह प्रयोग किया ,पहले तो माँ के कहने पर आपस में बाँट लिया और उसके बाद  द्युत क्रीडा में दांव पर लगा दिया , ये कहाँ का न्याय हुआ ? उसकी मर्ज़ी का कोई महत्त्व नहीं , उसे जो चाहे जीत ले और जैसे चाहे उपयोग करे , इन्ही कुप्रथाओं ने तो आज के मनुष्य को ये कहने का हक़ दे दिया कि  क्या हुआ अगर मैंने ऐसा किया पहले भी तो ऐसा होता था  .........और वो ही सब आज भी चला आ रहा है . आज भी हम कन्यादान करते हैं और गंगा नहाते हैं ...........आखिर क्यों?

क्या बिगाड़ा है कन्या ने जो उसे दान किया जाए और कौन सा खुदा होता है दामाद जो उसे पूजा जाये ?क्यों उसके पैर छुए जायें ? क्या वो हमसे बड़ा है या खुदा है ? अरे वो भी तो बच्चा ही है जैसे हमारी बेटी वैसे ही उसे भी बेटा माना  जाये तो क्या कुछ फर्क आ जायेगा ?

हम क्यों ये नहीं सोचते कि जैसे हमारे बेटा  है वैसे ही बेटी भी है . दोनों को हमने ही तो जन्म दिया है तो कैसे उनमे भेदभाव कर सकते हैं और कैसे अपनी बेटी को वस्तु के समान दान कर सकते हैं . अगर हम ऐसा करेंगे तो सामने वाले को तो मौका मिल जाता है कि तुम्हारे पिता ने तुम्हें दान किया है न कि विवाह . विवाह में तो बराबरी होती है दोनों पक्षों की .

अब सोचने वाली बात है जैसे हमारे लिए बेटी वैसे ही तो दामाद होना चाहिए और जिस घर वो जाये उनके लिए बहू  का भी वो ही स्थान होना चाहिए लेकिन ऐसा नहीं होता . दामाद को तो भगवान बना देते हैं और बहू को दासी ..........आखिर क्यों नहीं उसे भी उसी तरह का सम्मान दिया जाता अगर बराबरी का रिश्ता है तो ? अगर दामाद पूज्य है तो बहू को भी पूज्य माना जाये और अगर ऐसा नहीं है तो उन दोनों से  ही अपने बच्चों की तरह ही व्यवहार  किया जाये न कि  उन्हें पूजा जाये और अपने घर परिवार में बराबर का सम्मान दिया जाये तो क्या इससे समाज में कोई अंतर आ जायेगा या रिश्ते में अंतर आ जायेगा ? ऐसा कुछ नहीं होगा . होगा तो सिर्फ इतना कि  दोनों परिवारों में , उनमे रहने वालों की सोच में एक दूसरे  के लिए मान सम्मान पैदा होगा जिससे एक स्वस्थ समाज का निर्माण होगा और यदि हम पुरानी  परिपाटियों पर ही चलते रहे तो हमारी बेटियां यूँ ही कुचली मसली जाएँगी या जला दी जाएँगी मगर वो सम्मान नहीं पाएंगी जिसकी वो हक़दार हैं .

कभी उन्हें सामान्य इन्सान नहीं माना गया . या तो देवी बनाकर पूजा गया वो भी सिर्फ नौ दिन और या फिर दुत्कारा गया मगर कभी आम इन्सान की तरह नहीं देखा गया . एक जानकार कहते हैं मैं बेटियों से झूठे बर्तन नहीं उठवाता दूसरी तरफ बेटे बेटी को बराबर मानता हूँ तो ये कैसी बराबरी हुई पूछने पर कहने लगे अरे मर्यादा भी तो कोई चीज होती है और बेटी तो बेटी होती है . जब हमारे पढ़े लिखे समाज की ऐसी सोच होगी तो कैसे उसमे सुधार  संभव है जहाँ एक तरफ बराबरी की बात हो और दूसरी तरफ उसे देवी बना दो। बराबरी भी देनी है तो हर स्तर पर देनी चाहिए न की सिर्फ कथनी में बल्कि  करनी में भी .

हमें इसी जड़ता को बदलना है और इसे बदलने के लिए पहल तो हमें अपने घर से , अपनी बेटियों के जीवन से ही करनी होगी तभी समाज और देश में उनकी दशा में सुधार आएगा बेशक ये प्रथाएँ बदलने में वक्त लगे मगर फिर भी आज का समझदार युवा तो कम से कम इस बात को समझेगा और उसे अपने जीवन में स्थान देगा और शादी से पहले यदि ये कहेगा कि मैं कन्यादान जैसी रस्म का बहिष्कार करता हूँ/करती हूँ तो भी इस दिशा में ये एक क्रांतिकारी व आशान्वित कदम होगा .


आज क्या होता है कि कुछ सामाजिक संगठन गरीब कन्याओं के विवाह के नाम पर "कन्यादान" का लालच देते हैं और कन्यादान को मोहरे की तरह प्रयोग करते हैं जो कि  किसी भी तरह उचित नहीं है . यदि गरीब कन्याओं का विवाह ही कराना है तो उसे कन्यादान का नाम क्यों दिया जाए और उनकी भावनाओं से क्यों खेला जाये . करना क्या है सिर्फ इतना ही कन्यादान शब्द और इस रीती का प्रयोग बंद किया जाये बाकि सारे कार्य किये जायें तो इससे गरीब कन्याओं के विवाह में या उनके लिए सहयोग  देने वालों में तो फर्क नहीं आएगा और साथ ही समाज में भी स्वस्थ सन्देश जायेगा ऊंचे तबसे से लेकर निचले तबके तक कि  कन्या दान की वस्तु नहीं है . वो भी एक जीती जागती इंसान है और उसे भी समाज में बराबरी से रहने का हक़ है और उसे भी समाज में एक इन्सान की तरह स्थान मिले .

अब ये हम पर है कि हम अपनी बेटियों को क्या देना चाहते हैं . बेशक किसी समाजसुधारक का ध्यान आज तक इस तरफ नहीं गया मगर कन्यादान भी किसी कुरीति से कम नहीं जिसने समाज में स्त्री के दर्जे को दोयम बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी . यदि नयी पीढ़ी और हम सब मिलकर ऐसी कुरीतियों का प्रतिकार करें और फिर चाहे बेटे की शादी हो या बेटी की इस कुप्रथा का बहिष्कार करें तो जरूर समाज की सोच में बदलाव आएगा और ऐसी कुप्रथाएं जड़ से समाप्त हो जाएँगी और बेटियों को उनका सम्मान व उचित स्थान मिल जायेगा।



अंत में एक बार फिर से यही कहूँगी………



कन्यादान या अभिशाप


दान करने के नाम पर
रहन रखने की
ये अजब रस्म देखी
बेटी ना हुई
कोई जमीन हुई
जिस पर जो चाहे 
जैसे चाहे हल चलाये
या मकान बनाए
या कूड़े का ढेर लगाये
मगर वो सिर्फ 
बेटी होने की कीमत चुकाए
उफ़ भी ना कर सके
दहलीज भी पार कर ना सके 
ना इस दर को
ना उस दर को
अपना कह सके 
जब दुत्कारी जाये
जब जीवन उसका
नरक बन जाये
जब साथ रहना दूभर हो जाये
कहो तो .........ओ ठेकेदारों
किस दर पर जाए
कहाँ जाकर गुहार लगाये?

अब बदलना होगा 
ऐसी रस्मों को
समझना होगा
बेटी कोई वस्तु नहीं
जो दान दे दी जाये
बेटियां तो जान होती हैं
दो घरों की आन होती हैं
फिर कैसे कर देते हो 
कन्यादान के नाम पर दान
क्या कभी नहीं 
तुम्हारे अंतस ने 
ये सवाल उठाया ?
क्या कभी नहीं 
तुम्हारा जमीर जागा?
जिसे इतने नाजों से पाला पोसा
और एक ही पल में
उसे सारे हकों से 
महरूम कर दिया
ब्याह के बाद 
ना वो घर अपना बना
और ना मायका अपना रहा
दोनों ही घरों से
उसका हक़ तोड़ दिया
कन्यादान प्रथा ने 
समाज को अभिशापित किया
कन्या का जीवन दूभर किया
सब जानते हैं
अब उस घर से इसके 
सभी हक़ ख़त्म हुए
और मायके वाले भी
बाद में बोझ समझते हैं
फिर अत्याचारों का सिलसिला 
कहर ढाता है
कभी दहेज़ के नाम पर 
तो कभी लड़की जन्मने के नाम पर
उसी का शोषण किया जाता है
कभी  ज़िन्दा जलाया जाता है
तो कभी बच्चा जनते जनते ही
उसका दम निकल जाता है
बेटी को हर अधिकार से वंचित कर दिया
दान दी जाने वाली चीज  से
कोई हक़ ना रखना
इस प्रथा ने ही ऐसी 
कुरीतियाँ फैलाई हैं 
ज़रा सोचो
अगर ऐसा तुम्हारे साथ होने लगे
पुरुष का दान होने लगे
और किसी भी घर में
उसका कोई स्थान ना हो
कहीं कोई मान ना हो
अपनी कोई पहचान ना हो
कैसे तुम जी पाओगे?


ओ समाज के ठेकेदारों
जागो .........समझो
मत लकीर के फकीर बनो
जो रस्मे जज्बातों  से खेलती हों
जिनसे कोई सही शिक्षा ना मिलती हो
जो विकास में बाधक बनती हों
उन रस्मों को , उन परिपाटियों को 
बदलना बेहतर होगा
एक नए समाज का 
निर्माण करना होगा
कन्यादान की रस्म को 
बदलना होगा
लिंग भेद ना करना होगा
बल्कि कन्या को भी 
सम स्तर का समझना होगा
कन्यादान को अभिशाप ना बनने देना होगा

शुक्रवार, 16 नवंबर 2012

आखिर कब तक कोई उधेडे और बुने स्वेटरों को ???

जब सारा पानी चुक जाये………कहीं ठहरने को जी चाहता है मगर्………कोई है जो भरमाता है ………असमंजस की सीमा पर खडा राह रोकता है ………ना जाने कौन आवाज़ लगाता है …………और चल पडता है फिर दिशाहीन सा आवाज़ की दिशा में ……………जो छलावे सी छल जाती है और फिर सफ़र एक मोड पर आकर फिर चुक जाता है …………ये अनवरत चलता सिलसिला………कहीं रेगिस्तान की जलकुंभी तो नहीं …………आखिर कब तक कोई उधेडे और बुने स्वेटरों को ???


हलक मे फ़ँस रहा है ………आँख से नही बहता ………वो खामोश पल ………गुमनाम अंधेरों की दहलीज पर ठिठकता तो है मगर ………सहूलियतों की रौशनियाँ रास नहीं आतीं ………मिटने की हसरत में जी उठता है और सलीब पर लटक जाता है …………इम्तिहान की बेजारियाँ और क्या होंगी???



सीमाहीन  दिशाहीन कतरे समेटने को जो हाथ बढे ………सारी रौशनियाँ गुल हो गयीं …………साज़िशों के दौर में वक्त बेज़ार मिला ………कंठहीन कोकिला के स्वरों पर पहरे मिले ………ना सुबह को रौशनी मिली ना सांझ को बाती मिली………बस दीमक ही सब चाटती रही …………खोखली दीवारों के पार मौसम नहीं बदला करते!!!

सोमवार, 12 नवंबर 2012

काश! प्रेम की आकृति होती

काश! प्रेम की आकृति होती
एक वायुमंड्ल होता उसका
और उसमें तैरते कुछ
नीले अन्तर्देशीय पत्र
कुछ पोस्टकार्ड होते
जिन पर कुछ ना लिखा होता
और तुमने हर हर्फ़
पढ लिया होता

सिसकने की जहाँ मनाही होती
अश्कों की खेती खूब लहलहाती
क्योंकि
जो कह दिया
शब्दों मे जिसे बाँध दिया
वो भला कब इश्क हुआ
और हमारी परिभाषा तो
वैसे भी चिन्तन से परे की
कोई अबूझ पहेली होती
जिसमें होने और ना होने के बीच की परिधि पर
ना तुम होते ना मैं होती
मगर फिर भी वहाँ………
इश्क होता……मोहब्बत होती
जीने को और क्या चाहिये
होना ना होना कब मायने रखता है
वैसे भी इश्क का मजमून तो यूँ भी कोई फ़कीर ही पढता है…जानते हो ना

बेजुबानों की अबोली भाषा मे छुपे गूढार्थ बूझने के लिये 
कोई शर्त नही होती इश्क की पाठशाला में
फिर प्रेम को आकार देना इतना आसाँ कहाँ ?
ऐसे मे कैसे कहूँ
काश! प्रेम की आकृति होती………

गुरुवार, 8 नवंबर 2012

निष्ठुर आशा का निर्णायक मोड़ होगा वो

निष्ठुर आशा का निर्णायक मोड़ होगा वो
जब भभकती चिताओं में ना शोर होगा वो
एक चील ने छीना होगा बाज के मुँह से निवाला
तब जरूर कोई नया उदबोध  होगा वो

यूँ ही नहीं बनती हैं शिलाएं वक्त की

यूँ ही नहीं गढ़ती हैं कहानियां शक्ल की
एक ज़र्रे ने जब किया होगा रोशन जहान
तीखी फिजा बदला मोजूं कुछ और होगा वो 

सिमटती कायनात की खुमारी होगी

एक जुनूनी आतिशी वो पारी होगी
जब किसी चाह की ना कोई जवाबदारी होगी
तब इंकलाबी लहर की तैयारी कुछ और होगी वो

टूटा पत्ता जब शाख से जुड़ जायेगा

रुत का नया रुख तब नज़र आएगा
यूँ ही नहीं आशियानों के ख्वाहिशमंद रहे
बदलते आसमाँ के तेवर कुछ और होंगे वो

फतवों की मीनारों पर ना बुर्ज होंगे

तालिबानी अमलों के ना हुजूम होंगे
हर आँख में जब एक कोहिनूर होगा
तब मंज़र बदलता एक सुनहरा दौर होगा वो

रविवार, 4 नवंबर 2012

मैं नीली हँसी नहीं हँसती

मैं नीली हँसी नहीं हँसती 
कहा था तुमने एक दिन 
बस उसी दिन से 
खोज रही हूँ ..............नीला समंदर 
नीला बादल , नीला सूरज 
नीला चाँद , नीला दिल 
हाँ ............नीला दिल 
जिसके चारों  तरफ बना हो 
तुम्हारा वायुमंडल सफ़ेद आभा लिए नहीं 
सफेदी निकाल  दी है मैंने 
अब अपने जीवन से 
चुन लिया है हर स्याह रंग 
जब से तुम्हारी चाहत की नीली 
चादर को ओढा है मैंने 
देखो तो सही 
लहू का रंग भी नीला हो गया है मेरा 
शिराएं भी सहम जाती हैं लाल रंग देखकर 
कितना जज़्ब किया है न मैंने रंग को 
बस नहीं मिली तो सिर्फ एक चीज 
जिसके तुम ख्वाहिशमंद थे 
कहा करते थे ............एक बार तो नीली हँसी हँस दो 
देखो नीले गुलाब मुझे बहुत पसंद हैं 
और मैं तब से खड़ी हूँ 
झील के मुहाने पर 
गुलाबों को उगाने के लिए 
नीली हँसी के गुलाब ..........
एक अरसा हुआ 
नीले गुलाब उगे ही नहीं 
लगता है 
तेरी चाहत के ताजमहल को बनाने के बाद 
खुद के हाथ खुद ही काटने होंगे 
क्यूंकि 
सुना है नील की खेती के बाद जमीन बंजर हो जाती है ..........

शुक्रवार, 2 नवंबर 2012

अब रिवाजों की मोहताज नहीं रही हमारी मोहब्बत

मेहंदी लगे मेरे हाथ


पिया जी का है साथ 
 
 

रंग तो खिल कर रहेगा 

 उनके सामने उनकी शाप पर बैठकर 
मेहंदी लगवाने का मज़ा ही कुछ और है ……है ना :)


सुनो
कभी कभी सोचती हूँ
कितना वक्त हुआ
हमें साथ रहते
एक दूसरे  के साथ चलते
और अभी कितना सफ़र बाक़ी है
हम नहीं जानते
इस सफ़र में
कुछ यादें सुहानी रहीं
तो कुछ बेगानी
तो कुछ खट्टी
तो कुछ कडवी
और कुछ मीठी
तुम भी जानते हो
और मैं भी
आज आकलन करने बैठी
खोज रही थी
अपने अंतस्थल में
कितना पानी बचा है
क्या सच में
हमारी चाहत में कुछ इजाफा हुआ है
क्या आज भी उसमे
वैसा ही सौंदर्य समाया है
जैसा पहले होता था
तो पाया
कितना बदल चुके हैं
हमारे पैमाने
कितना बदल चुकी हैं
हमारी चाहतें
देखो न
पहले जैसी न तो उमंगें रहीं
न ही पहले जैसी चाहतें
फिर भी कहीं न कहीं
बचा हुआ है कुछ पानी
जिसमे हरा रंग घुल गया है
न मेरा रंग न तुम्हारा
बस वो बन गया है हमारा
तभी तो
देखो न
नहीं करती कोई तैयारी
पहले जैसी करवाचौथ पर
कैसे अल्हड लड़की सी
मेरी सारी  आकांक्षाएं
तुम्हारे इर्द -गिर्द घूमा करती थीं
और मैं
मेहंदी के रंग में
तो कभी सौंदर्य के पैमानों में
तुम्हारी मोहब्बत ढूँढा करती थी
बस तुम ही तुम हो
मेरे आस पास
मेरे ख्यालों में
मेरी हर चाहत को
परवान चढ़ा दो
बस इन्ही में डूबता -उतरता रहता था
मेरी मोहब्बत का चाँद
क्योंकि
तुम्हें भी तो
मेरा सजे -संवरे रहना पसंद था
और मैं भी
अपनी पूजा की थाली में
सिर्फ तुम्हारी मोहब्बत ही पूजा करती थी
मगर देखना
वक्त की पहरेदारी भी गज़ब है
कैसे बिना आवाज़ दिए
चौकीदारी के उसूल बदल दिए
अब ना सजने - सँवरने में
न मेहंदी के रंग में
न चाहतों की बुलंदियों पर
खोजती हूँ तुम्हारी मोहब्बत के चाँद को
फिर भी
मना लेती हूँ करवाचौथ
जानते हो क्यों
क्योंकि
अब मेरे चाँद ने करवट ले ली है
तभी तो देखो
तुम्हें फर्क ही नहीं पड़ता
मैं करवाचौथ पर
कोई तैयारी  करूँ या नहीं
तुम्हें फर्क ही नहीं पड़ता
मैं ढंग से तैयार होऊँ या नहीं
तुम्हारे नाम की मेहंदी लगाऊँ या नहीं
तुम्हारी पसंद की
लाल काँच की चूड़ियाँ पहनूं या नहीं
कितना फर्क आ गया है ना ..............
फिर भी लगता है
कुछ पानी बचा है अभी
दोनों के गुलदानों में
क्योंकि कहीं न कहीं
पहले से ज्यादा
आज हम में
हमारी मोहब्बत में
संजीदगी आयी  है
अब लेन देन से परे
झूठे दिखावटी रिवाजों से परे
बिना कहे सुने भी
एक दूसरे के लिए जीते हैं हम
फिक्रमंद होते हैं
एक दूजे के दर्द में
उसका ज़िन्दगी में
मौजूदगी का अहसास ही
काफी होता है अब
जीने के लिए
तभी तो देखो
मना ही लेते हैं हम भी करवाचौथ
बिना कोई रस्मो - रिवाज़ निभाए 
एक अन्दाज़ ये भी होता है ……क्योंकि
अब रिवाजों की मोहताज नहीं रही हमारी मोहब्बत .......है ना साजन !!!