व्यस्तता इंसान को कितना लाचार कर देती है कि वो चाहकर भी हर काम को सही समय पर अंजाम नहीं दे सकता ऐसा ही कुछ मेरे साथ होता रहा है । पिछले कई महीनों से जाने कितने काम अधूरे पडे हैं , जाने कितना पढती रही मगर लिख नहीं पायी किसी के बारे में कुछ भी मगर इस बार ठान ही लिया कि कुछ वक्त चुराना होगा क्योंकि अंक है ही इतना शानदार कि रोक नहीं पायी खुद को । प्रवासी भारतीयों की पत्रिका हिन्दी चेतना जिसका सम्पादन सुधा ओम ढींगरा करती हैं अब भारत में प्रकाशित होने लगी है जिसे पंकज सुबीर देखते हैं ।
'हिन्दी चेतना' का जुलाई-सितम्बर 2014 अंक मेरी नज़र से :
इस बार के अंक में रीता कश्यप की कहानी ; एक ही सवाल ' ज़िन्दगी की वो कटु सच्चाई है जिसे हम उम्र भर अनदेखा करते रहते हैं और कब हम अकेले और अवांछित तत्व में बदल जाते हैं पता ही नहीं चलता । कहानी के पात्र की मनोदशा के साथ साथ बाकि के पात्रों की मन:स्थिति पर रौशनी डालते हुए लेखिका ने बडी सहजता से उस सच को कहा है कि इंसान सोचता तो बहुत कुछ है मगर जब उससे गुजरता है तो उसे अहसास ही नहीं होता कि यदि वैसा हो गया तो हालात कैसे होंगे । शायद पहले से भी बदतर क्योंकि स्वप्न और हकीकतों में बहुत फ़र्क होता है यही कहानी के माध्यम से दर्शाया गया है ।
रजनी गुप्त की कितने चेहरे हर दूसरी स्त्री की कहानी है जो घर से बाहर निकलती है और कैसे वासनामय दृष्टियों से टकराती है मगर उसके साथ प्रतिकार भी अब जरूरी है आवाज़ उठानी जरूरी है इस तथ्य को बल दिया गया है ताकि जन जागृति हो सके।
आस्था नवल की ' उसका नाम ' एक गृहिणी के जीवन का चित्रण है जहाँ वो खुद को मिटाकर एक संसार रचती है और बन कर रह जाती है सिर्फ़ , माँ , मौसी , बहन , चाची , मामी , भाभी , जाने वक्त की किन परतों में खो जाता है उसका नाम , उसकी पहचान और जब कोई उसे अहसास कराता है तब जाकर समझ पाती है कि इन सब सम्बोधनों से इतर भी जरूरी है उसकी एक पहचान , एक नाम ।
नीरा त्यागी की ' क्या आज मैं यहाँ होती ' एक तलाकशुदा स्त्री के जीवन का दर्पण है तो दूसरी तरफ़ उसूलों , आदर्शों और मर्यादा के साथ जीने की एक स्त्री के अदम्य साहस की प्रत्यंचा है । तलाकशुदा होकर भी स्त्री चाहे तो अपनी शर्तों पर मर्यादा पूर्ण जीवन जी सकती है उसके लिए जरूरी नहीं होता किसी भी तरह का समझौता करना ।
वहीं कहानी भीतर कहानी में सुशील सिद्धार्थ द्वारा किया गया गहन विश्लेषण पाठक को वृहद दृष्टि देता है जो अन्तस को छू जाता है ।
शैली गिल की ' फ़ादर्स डे ' एक बार फिर बुजुर्गों के प्रति संवेदनहीनता का दर्शन है । वहीं लघुकथायें कम शब्दों में प्रभावकारी असर छोडती हैं ।
शशि पाधा का संस्मरण ' प्रथा कुप्रथा ' प्रभावशाली और अनुगमनीय संस्मरण है यदि सभी इसी तरह सोच सकें और कर सकें थोडी हिम्मत और थोडा जज़्बा रखें तो जाने कितनी ही ज़िन्दगियाँ बर्बाद होने से बच जायें और जाने कितनी ही ज़िन्दगियों में खुशियों की चमक बिखर जाए क्योंकि सरहद पर सिर्फ़ सैनिक ही शहीद नही होते उनके साथ उनका पूरा परिवार शहीद होता है यदि कुछ कुप्रथाओं का विरोध करने में पढे लिखे लोग आगे आकर साथ दें और रहने खाने की व्यवस्था कर दें तो एक जीवन किस तरह सुधर सकता है उसका वर्णन है जिसके लिए सरकारी महकमों के साथ जन जागृति भी जरूरी है ।
सौरभ पाण्डेय की गज़लें , शशि पुरुवार , सरस दरबारी, रश्मि प्रभा , रचना श्रीवास्तव,ज्योत्स्ना प्रदीप , सविता अग्रवाल , अदिति मजूमदार की कविताये , हरकीरत हीर , डॉ उर्मिला अग्रवाल , डॉअ सतीश राज पुष्करणा के हाइकू, अनुवादित कवितायें देकर पत्रिका को समृद्ध किया है । भारतेन्दु हरीशचन्द्र के परिचय के साथ डॉ रेनु यादव का व्यंग्य ' क्योंकि औरतों की नाक नहीं होती ' पत्रिका को सम्पूर्णता प्रदान करता है । देवी नागरानी द्वारा की गयी पुस्तक समीक्षा कमल किशोर गोयनका द्वारा प्रेमचंद की कहानियों का कालक्रमानुसार अध्ययन , यात्रा संस्मरण पर आधारित नीले पानियों की शायराना हरारत की रघुवीर द्वारा की गयी समीक्षा और फिर पंकज सुबीर द्वारा गीता श्री की किताब प्रार्थना के बाहर और अन्य कहानियाँ ' की समीक्षा पत्रिका को न केवल सम्पूर्णता प्रदान करती है बल्कि पत्रिका को गरिमामय के साथ पठनीय भी बनाती है । एक ही पत्रिका में सम्पूर्ण साहित्य को सहेजना साथ ही साहित्य समाचारों को भी स्थान देना संपादक के कुशल संपादन को दृष्टिगोचर करता है । एक कुशल संपादक को दूरदर्शी होने के साथ वर्तमान परिप्रेक्ष्य को ध्यान में रखकर पत्रिका का संपादन करना होता है और सुधा जी उसमें पूरी तरह सक्षम हैं तभी तो जब से प्रिंट में पत्रिका आयी है सभी दिग्गजों को पत्रिका में स्थान तो मिल ही रहा है साथ ही नवोदितों के लिए भी खास जगह बना रखी है और यही एक पत्रिका की सफ़लता का पैमाना है जहाँ नये और पुराने दोनो लेखकों का संगम हो वहीं तो साहित्य की गंगा निर्बाध रूप से बहा करती है ।