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शुक्रवार, 28 अक्टूबर 2011
मंगलवार, 25 अक्टूबर 2011
तुम होते तो………
तुम होते.....तो जरुर दीपावली होती....
दोस्तों पहली लाइन ( तुम होते तो.......जरूर दिवाली होती )
मायामृगजी की फेसबुक पर पढ़ी तो इस रचना का जन्म हो गया.
नहीं हो ..... दिवाली फिर भी है
ना तेरे रहने से ना तेरे जाने से
दिवाली पर कोई फर्क पड़ा
तुम होते ........तो जरूर दीप जलते
नहीं हो ...........फिर भी दीप तो जले हैं
मगर अश्रु घृत में इंतजार की बाती को
आहों की अग्नि से प्रज्वलित किया है
तुम होते .........तो जरूर पूजन होता
नहीं हो ..........पूजन तो हुआ है
मगर तुम्हारी यादों को ह्रदय की तश्तरी में
सजाकर कसक के अक्षत कुमकुम से नवाज़ा है
तुम होते .........तो जरूर अमावस भी रौशन होती
नहीं हो ............तब भी रौशन तो हुई है
मगर तेरी मोहब्बत के निशानों ने
हृदयतम पर छाये घनेरे अँधेरे पर
याद का दिया जलाया है
तुम नहीं हो ........फिर भी दिवाली तो है ना
क्या हुआ ........जो गुलाब खिल ना सके
क्या हुआ .........जो मोहब्बत के दीप जल ना सके
दिवाली के लिए कब वजूदों की जरूरत हुई है
तेरे होने के अहसास ने ही मेरी अमावस रौशन कर दी है ............
मायामृगजी की फेसबुक पर पढ़ी तो इस रचना का जन्म हो गया.
शनिवार, 22 अक्टूबर 2011
आज राधा बनी है श्याम
आज राधा बनी है श्याम
नाचें कैसे नन्दकुमार
पैरों मे पहने कैसे पायलिया
छम छम नाचें देखो कैसे सांवरिया
मुरली पे छेडी कैसी तान
नाचें कैसे नन्दकुमार
आज राधा ...................
लहंगा चोली कैसे पहने सुकुमार
लाला से बने लली कैसे नन्दलाल
सिर पर ओढ़ी है चूनर लाल
नाचें कैसे नंदकुमार
आज राधा.................
मोहिनी मूरत रही कैसे लुभाय
मधुर चितवन ने दियो होश गंवाय
माथे पर बिंदी ने कियो है कमाल
नाचें कैसे नंदकुमार
आज राधा बनी है श्याम
नाचें कैसे नन्दकुमार
मेरो तन मन लियो है वार
नाचें कैसे नंदकुमार
मेरो जियो लियो है चुराय
नाचें कैसे नंदकुमार
जिसकी ठोढ़ी पे चमके हीरा लाल
नाचें कैसे नंदकुमार
आज वृषभान लली बनी श्याम
नाचें कैसे नंदकुमार
आज राधा बनी है श्याम
नाचें कैसे नन्दकुमार
सोमवार, 17 अक्टूबर 2011
एक खोज , एक चाहत और एक सच्……………उफ़ !
एक खोज , एक चाहत और एक सच्……………उफ़ !
बुद्धत्व में पूर्णत्व को खोजता एक सच
पर उस चाहत का क्या करूँ
जो बुद्धत्व भी तुम में ही पाना चाहती है
हाँ ...........तुम नहीं होकर भी यहीं कहीं हो
हाँ ...........मेरे अहसासों में
मेरे ख्यालों में
मेरे गीतों में
मेरी धड़कन में
फिर भी कहीं नहीं हो
वर्षों गुजर गए
तुम्हारा स्पंदन मुझ तक आते
मेरी धमनियों में बहते
मधुर झंकार करते
मगर फिर भी कहीं कुछ अधूरा था
कुछ छुटा हुआ
कहीं कुछ ठहरा हुआ
एक अनाम सा नाम
एक मीठी सी टीस
एक महकती सी खुशबू
तुम्हारे होने की .........या ना होने की
मगर था और है सब आस पास ही
फिर भी एक दूरी
एक अनजानापन.......जिसे जानता हूँ मैं
एक उद्घोष मन्त्रों का
एक उद्घोष तुम्हारी अनसुनी आवाज़ का
कभी फर्क ही नहीं दिखा दोनों में
यूँ लगा जैसे तुम मुझे
गुनगुना रही हो
तुमसे कभी अन्जान रहा ही नहीं
तुम्हें जानता हूँ ........ये भी कैसे कहूं
जब तक कि मेरी चाहत को पंख ना मिलें
हाँ .........वो ही .........जब तुम हो
और बुद्धत्व तुम में ही समा जाये
या कहो मुझे बुद्ध तुम में ही मिल जाये
और जीवन संपूर्ण हो जाए
कहो आओगी ना
क़यामत के दिन मुझे पूर्ण करने
बुद्धत्व स्थापित करने
मेरी अनदेखी कल्पना .........मेरी ऋतुपर्णा!
दोस्तों
आज की इस रचना के जन्म का श्रेय श्री समीर लाल जी की पोस्ट को जाता है . जैसे ही उनकी पोस्ट पढ़ी तो ये कुछ ख्याल वहां उतर आये और उनकी आज्ञा से ही उनके दिए नाम का प्रयोग किया है क्यूंकि उनकी भी यही हार्दिक इच्छा थी कि वो ही नाम प्रयोग किया जाये वर्ना मैंने नाम बदल दिया था इसके लिए मैं समीर जी की हार्दिक आभारी हूँ.
शनिवार, 15 अक्टूबर 2011
और हमारी मोहब्बत का सुहाग अमर हो जाये ............
सात जन्मों तक के लिए
तुम्हारा साथ मांगने वाली मैं
तुम्हारे लिए करवा चौथ का
व्रत रखने वाली मैं
तुम्हारे नाम का सिन्दूर मांग में
सजाने वाली मैं
तुम्हारी चाहत की मेहंदी
हाथों में लगाने वाली मैं
तुम्हारे नाम का मंगलसूत्र
गले में पहनने वाली मैं
तुम्हारी लम्बी उम्र की कामना
करने वाली मैं
तुम्हारे प्रेम की बिंदिया
माथे पर सजाने वाली मैं
आज नहीं चाहती
सात जन्मों तक का साथ
नहीं करना चाहती ऐसा श्रृंगार
जिसमे सिर्फ दिखावे की बू आती हो
नहीं हो जिसमे ह्रदयों का मिलन
आडम्बर के आवरण में
नहीं छिपाना चाहती
रिश्ते की गरिमा को
नहीं चाहती मैं भी
भीड़ में शामिल हो जाऊँ
और रिश्ते को सिर्फ
आडम्बर की भेंट चढ़ा
दिखावटी दुनिया के दिखावटी
साजो सामान का
वो हिस्सा बन जाऊँ
जिसमे रिश्ते की ऊष्मा
रिश्ते की गरिमा
सिर्फ एक ढकोसला भर
बन कर रह जाये
आज बाजारवाद ने
रिश्ते को भी तो बाजारू
सा नहीं बना दिया
सिर्फ एक दूसरे से सुन्दर
दिखने की होड़
एक दूसरे से ज्यादा समर्पित
और चाहने वाले पति
का विज्ञापन सा नहीं लगता
नहीं करना चाहती
कोई होड़ किसी से
नहीं करना चाहती
वो सब जो सब करते हैं
जानते हो मैं क्या चाहती हूँ
सिर्फ इतना
इस करवा चौथ
सिर्फ इसी जन्म के लिए
पहनूं तो सिर्फ तुम्हारी चाहत का मंगलसूत्र
मांग सजाऊं तो सिर्फ तुम्हारी मोहब्बत के
उन छोटे छोटे मोतियों से
जिसमे तुम मन से शामिल हो
दिखावटी साजो- समान बनकर नहीं
हाथ पर मेहंदी की जगह
मेरे दिल पर छाप हो तुम्हारे प्रेम की
कभी ना मिटने वाली
ऐसा रंग चढ़े जो कभी
फीका ही ना पड़े
और देखना चाहती हूँ
उस चाँद को
जो तुम्हारी आँखों में हो
जो तुम्हारी आँखों से
मेरे अंतस तक उतरे
और तब मैं अपना व्रत पूर्ण करूँ
उस चाँद में अपना प्रतिबिम्ब देखते हुए
जहाँ चाहत किसी लिबास में ढकी ना हो
जहाँ मोहब्बत को किसी जन्म की आस ना हो
जहाँ प्रेम शो केस में लगा पीस बनकर ना रह जाये
ये तुम्हारा और मेरा
नितांत निजी क्षण
सिर्फ और सिर्फ
हम दोनों के मध्य
शरद के चाँद सा अपनी
सोलह कलाओं के साथ
उम्र भर दमकता रहे
और सात जन्मों की कामना
एक जन्म में ही पूर्ण हो जाए
सात जन्म एक जन्म में ही जी जाएँ
और हमारी मोहब्बत का सुहाग अमर हो जाये .............
सोमवार, 10 अक्टूबर 2011
तोड़ दी हैं आज मैंने तेरी यादों की चूड़ियाँ
तोड़ दी हैं आज मैंने
तेरी यादों की चूड़ियाँ
जिसमे तुमने अपने
प्रेम की लाख भरी थी
सुनहरे वादों के रंगों से
जिनमे रंग भरा था
ये कहकर
देखो इनमे मेरा
दिल धडकता है
सहेज कर रखना
ये सुनहरी रंग
तुम्हारे हाथों पर
खूब फबता है
देखो कभी
फीका ना पड़े
और मैंने वो
सुनहरी रंग आज तक
सहेजा हुआ है
अपनी याद का बिछावन बनाकर
और याद है
तुमने कहा था
ये लाल रंग
तुम्हारी धडकनों का है
जिसमे मेरा वजूद सांस लेता है
देखो उससे मैंने आज तक
अपनी यादों की माँग सजा रखी है
ताकि तुम्हारी चाहत दीर्घायु रहे
और वो हरा रंग
तुम्हारी हरी भरी मोहब्बत का प्रतीक
कहा था ना तुमने
मोहब्बत हरी भरी ही अच्छी लगती है
देखो तो
आज तक मैंने
मोहब्बत की जमीन पर
यादों की मखमली घास उगा रखी है
ताकि जब भी तुम आओ
तो नर्म नाजुक रेशमी अहसास
ही तुम्हारा स्वागत करें
मगर तुमने तो जैसे
यादों से भी किनारा कर लिया है
तभी तो तुम ना खुद आये
ना यादों को आने दिया
और मैं यादों की संदूकची में
तुम्हारे प्रेम की चूड़ियाँ सजाये
इंतज़ार का घूंघट ओढ़े
चौखट पर खडी मूरत बन गयी
मैंने तो सिर्फ कांच की चूड़ियाँ
ही संजोयी थीं
खनक के लिए
क्या पता था
तुमने कभी कोई दस्तक सुनी ही नहीं
या सुननी ही नहीं चाही
आखिर कब तक सहेजती
रंग फीके पड़ जाते
उससे पहले
तोड़ दीं मैंने खुद ही आज
तुम्हारी यादों की चूड़ियाँ
और हो गयी आज़ाद
कब सबका सौभाग्य अखंड रहता है
आखिर टूटना तो चूड़ियों की नियति होती है ना .............
गुरुवार, 6 अक्टूबर 2011
मोहब्बत जडाऊ नहीं होती
चाहती थी प्रीत बंजारन
के पांव में बिछुए पहनाना
मोहब्बत के नगों से जड़कर
बनाना चाहती थी
एक नयी इबारत
एक नयी उम्मीद
एक नया अहसास
मोहब्बत के लिबास का
पर मोहब्बत ने कब
लिबास पहना है
कब नग बन
किसी अहसास में उतरी है
के पांव में बिछुए पहनाना
मोहब्बत के नगों से जड़कर
बनाना चाहती थी
एक नयी इबारत
एक नयी उम्मीद
एक नया अहसास
मोहब्बत के लिबास का
पर मोहब्बत ने कब
लिबास पहना है
कब नग बन
किसी अहसास में उतरी है
मोहब्बत न तो कभी
बेपर्दा हुयी है
और न ही कभी
लिबास में ढकी है
मोहब्बत ने तो
हर युग में
हर काल में
एक नयी इबारत गढ़ी है
और हर रूह को छूती
हवा सी बही है
और बंजारे कब कहीं
और बंजारे कब कहीं
ठहरे हैं
फिर प्रीत बंजारन को
कैसे कोई छाँव मिलती
जो किसी नगीने सी
किसी जेवर में जड़ी जाती
शायद तभी
मोहब्बत जडाऊ नहीं होती .........
मोहब्बत जडाऊ नहीं होती .........
शनिवार, 1 अक्टूबर 2011
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दोस्तों
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