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मंगलवार, 25 अगस्त 2009

उर्मिला की विरह वेदना

१) प्रियतम हे प्रानप्यारे
विदाई की अन्तिम बेला में
दरस को नैना तरस रहे हैं
ज्यों चंदा को चकोर तरसे है
आरती का थाल सजा है
प्रेम का दीपक यूँ जला है
ज्यों दीपक राग गाया गया हो

२) पावस ऋतु भी छा गई है
मेघ मल्हार गा रहे हैं
प्रियतम तुमको बुला रहे हैं
ह्रदय की किवाडिया खडका रहे हैं
विरह अगन में दहका रहे हैं
करोड़ों सूर्यों की दाहकता
ह्रदय को धधका रही है
प्रेम अगन में झुलसा रही है
देवराज बरसाएं नीर कितना ही
फिर भी ना शीतलता आ रही है

३) हे प्राणाधार
शरद ऋतु भी आ गई है
शरतचंद्र की चंचल चन्द्रकिरण भी
प्रिय वियोग में धधकती
अन्तःपुर की ज्वाला को
न हुलसा पा रही है
ह्रदय में अगन लगा रही है

४) ऋतुराज की मादकता भी छा गई है
मंद मंद बयार भी बह रही है
समीर की मोहकता भी
ना देह को भा रही है
चंपा चमेली की महक भी
प्रिय बिछोह को न सहला पा रही है

५) मेरे जीवनाधार
पतझड़ ऐसे ठहर गया है
खेत को जैसे पाला पड़ा हो
झर झर अश्रु बरस रहे हैं
जैसे शाख से पत्ते झड़ रहे हैं
उपवन सारे सूख गए हैं
पिय वियोग में डूब गए हैं
मेरी वेदना को समझ गए हैं
साथ देने को मचल गए हैं
जीवन ठूंठ सा बन गया है
हर श्रृंगार जैसे रूठ गया है

६) इंतज़ार मेरा पथरा गया है
विरहाग्नि में देह भी न जले है
क्यूंकि आत्मा तो तुम संग चले है
बिन आत्मा की देह में
वेदना का संसार पले है

७) मेरे विरह तप से नरोत्तम
पथ आलोकित होगा तुम्हारा
पोरुष को संबल मिलेगा
भात्री - सेवा को समर्पित तुम
पथ बाधा न बन पाऊँगी
अर्धांगिनी हूँ तुम्हारी
अपना फ़र्ज़ निभाउँगी
मेरी ओर न निहारना कभी
ख्याल भी ह्रदय में न लाना कभी
इंतज़ार का दीपक हथेली पर लिए
देहरी पर बैठी मिलूंगी
प्रीत के दीपक को मैं
अश्रुओं का घृत दूंगी
दीपक मेरी आस का है ये
मेरे प्रेम और विश्वास का है ये
कभी न बुझने पायेगा
इक दिन तुमको लौटा लायेगा,लौटा लायेगा .........................

शनिवार, 22 अगस्त 2009

आरजू

चंचल चपल हे मृगनयनी
नयन बाण से बिद्ध ह्रदय लो
अधरामृत का लेप लगाकर
प्रेम को आधार बनाकर
होशो-हवास पर मोहिनी बरसाकर
मुझको अपना श्याम बना लो
महारास की शीतल बेला में
रूप-लावण्य का रंग बिखरे है
पायल की छम-छम छंकारों पर
प्रीत का बादल नृत्य किए है
दास को प्रेम सुधा का पान कराकर
जीवन का अलंकार बनाकर
अपने हृदयांगन का प्रहरी बना लो
चंचल चपल हे मृगनयनी
मुझको अपना दास बना लो

रविवार, 16 अगस्त 2009

अलविदा मत कहा करो

अलविदा मत कहा करो
किसी के दिल पर क्या गुजरी
ये तुम क्या जानो
तेरे जाने और आने के
बीच का वक्त
कैसे गुजरता है
ये तुम क्या जानो
रोज मिलने को दिल
कितना तड़पता है
ये तुम क्या जानो
बातों की महावर लगाने को
दिल कितना मचलता है
दीदार का काजल लगाने को
नज़रें कितना तरसती हैं
ये तुम क्या जानो
लबों पर अल्फाजों का
तबस्सुम खिलाने को
दिल कितना भटकता है
ये तुम क्या जानो
दिलो की ये दूरी मिटाने को
कुछ पल तेरा साथ पाने को
दिल कितना सुबकता है
ये तुम क्या जानो
तेरे गीतों में ढल जाने को
तेरी काव्य धारा बन जाने को
दिल कितना सिसकता है
ये तुम क्या जानो
इसलिए
कभी अलविदा मत कहा करो

बुधवार, 12 अगस्त 2009

एक भाई का दर्द

एक बेबस भाई की मजबूरी
कोई क्या जाने
बेतरतीब से बिखरे बाल ,
पपडाए होंठ, वीरान आँखें
मैली सारी में लिपटी
इक जिंदा लाश को जब देखा हो
बुखार से तपती देह में भी
उफ़ न कर पाए जो
मर - मर कर हर काम
करती जाए जो
और फिर भी न किसी से
शिकायत कर पाए जो
ऐसा हाल जिस भाई ने
देखा हो अपनी बहन का
कितनी मौत मरा होगा
और अपनी बेबसी से लड़ा होगा
खून तो उसका भी खौला होगा
बंद जुबान को खोलना चाहा होगा
इंसान की खाल में छुपे भेडियों से
बहन को बचाना चाहा होगा
उसकी पीड़ा से कितना तडपा होगा
मगर बहन की आंखों में छुपी वेदना ने
हर भेद खोल दिया होगा
चुप रहने को मजबूर कर दिया होगा
क्यूंकि ज़िन्दगी तो उसे
वहीँ गुजारनी होगी
इसलिए खामोशी का ही
ज़हर पिया होगा
और भाई चाहकर भी
कुछ न कर पाया होगा
नाज़ों - नखरों से पली बहन की
दुर्दशा पर खून के आंसू रोया होगा
बहन की कसम से बंधे रिश्ते को
घुट-घुटकर कैसे निभाया होगा
और उसका दर्द माँ बाप से भी
न कह पाया होगा
और राखी का वचन
इस तरह निभाया होगा
बहन की रक्षा के वचन ने
किस कदर रुलाया होगा
तिल-तिल कर बिलखती
बहन को देख
कैसे आक्रोश को
जज्ब कर पाया होगा
अपने भाई होने के फ़र्ज़ को
कैसे छुपाया होगा
और आंखों में समंदर लिए
चुपचाप उसकी दहलीज से
थके क़दमों से चला आया होगा

शुक्रवार, 7 अगस्त 2009

देखा है कभी

इस शहर के हर शख्स की
आँख में उबलता आक्रोश
देखा है कभी
अपने वजूद से लड़ते
आदमी का रूप
देखा है कभी
सीने में धधकता
ज्वालामुखी लिए हर शख्स
रोज कैसे मर-मरकर जीता है
देखा है कभी
कब , किस मोड़ पर ये
ज्वालामुखी फट जाए
और किसी नुक्कड़ पर
सीने की भड़ास ,अपनी बेबसी
उतारता आदमी
देखा है कभी
परेशानियों से जूझता
ज़िन्दगी से लड़ता आदमी
देखा है कभी
रोज नए ख्वाब बुनता
और फिर रोज
उन ख्वाबों के टूटने पर
टूटता - बिखरता आदमी
देखा है कभी
जीवन जीने की
जद्दोजहदसे परेशान
कभी हालत से लड़ता
तो कभी ख़ुद से लड़ता आदमी
देखा है कभी

रविवार, 2 अगस्त 2009

पुरानी यादें

आज कॉलेज के वक्त की एक पुरानी कॉपी के कुछ पन्ने पढने लगी तो सभी पुरानी यादें ताज़ा हो गयीं । उन्ही में से कुछ यादें आज आप सबके साथ बाँट रही हूँ .ये सब मेरे लिखे हुए तो नही हैं मगर जिसने भी लिखे हैं बहुत ही खूब लिखे हैं .उस वक्त मैं अपने को वक्त दे पाती थी तो सब पढ़ पाती थी और जो पसंद आ जाता था उसे अपनी यादों में सजा लेती थी।


इश्क के मकबरे के गुम्बद की ऊंचाई बहुत ऊंची है
कब्र में फनाई के अफ़साने खुदे हैं जिसकी सच्चाई
सिर्फ़ वहीं सच्ची लगती है । जन्नत और दो़जख
के मोहरबंद लिफाफे खुदा ने ख़ुद तसदीक किए हैं ।
कब्र की पाक जाली में रेशमी इच्छा मैं भी बांधूंगी
और देखूंगी कि मेरे मोहरबंद लिफाफे की तहरीर
क्या होगी ।


अनुरोध

मेरे तन से नही , दोस्त
मेरे मन से प्यार करो
मेरी उपस्थिति को ,
मेरे सामीप्य को ही ,
फकत न चाहो ,
एक रस्म भर न निबाहो ,
प्यार की कोई हद नही होती
तुम यह प्रमाणित कर दिखलाओ
मेरे सपनो से प्यार करो ,
मेरे विचारों को सराहो
सही और इमानदार करो
मेरे ही पर्याय हो जाओ
अपना प्यार महान हो जाए
तुम तुम न रहो , "मैं " हो जाओ ।