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गुरुवार, 29 जुलाई 2010

मेरा तो मुझमें कुछ बचा ही नहीं............150

सुनो .............
हाँ .................
कुछ कहना था ........

हाँ कहो ना ...........
मैं सुन रहा हूँ .............

नहीं , रहने दो .............
शायद तुम नहीं समझोगे .........

तुम कोशिश तो करो...........
मैं भी कोशिश करूंगा.............

मुझे तुम्हारी चुप में छुपी 
ख़ामोशी का दर्द पीना है 
दे सकोगे.......................

मैं खामोश कहाँ हूँ .........
बोल तो रहा हूँ (दर्द के गहरे कुएं से निकली आवाज़ सा )

क्या दे सकते हो ?
मेरा तो मुझमें कुछ बचा ही नहीं .........

अच्छा ऐसा करो
अपने अनकहे ज़ज्बात 
कुछ बिखरे अहसास
कुछ टूटे पल 
कुछ सिमटी घड़ियाँ
कुछ अंतस के रुदन 
कुछ वो दिल का 
जला हुआ टुकड़ा 
जिस पर मेरा 
नाम लिखा था 
सिर्फ इतना मेरे 
नाम कर दो
मैं तुम्हारा हर गम
हर आह , हर आँसू 
हर दर्द पी जाना चाहती हूँ 
क्या तुम इतना भी 
नहीं कर सकते 
मेरे लिए ..............

नहीं , मेरा तो मुझमें कुछ बचा ही नहीं..........
सब वक्त की 
आँधियाँ उडा ले गयीं
ज़माने ने मेरा 
हर ख्वाब , हर ख़ुशी
हर तमन्ना ,हर आरज़ू 
कब छीन ली
पता ही ना चला 
अब यहाँ सिर्फ 
अरमानो की
सुलगती हुई 
लकड़ियाँ 
सिसक रही हैं
मेरी जिंदा लाश 
अब सड़ने लगी है
जब से तुम गयी हो............

कब तक मेरे बुत से 
दिल बहलाओगे 
मैं तुम से जुदा होकर भी
तुम्हारी यादो की
क़ैद से आज़ाद 
ना हो पाई हूँ
बस बहुत हुआ
अब मेरी सारी 
अमानतें मुझे दे दो
तुम तो बुत 
के सहारे जी भी 
लेते हो मगर मैं
मैं तो पल- पल 
तुम्हें सिसकते 
तड़पते देखती हूँ
सोचो मुझ पर 
क्या गुजरती होगी
दे दो ना मुझे
मेरे सारे लम्हात
शायद कुछ पल 
का सुकून मेरी 
रूह को भी मिल जाये 
तुम्हें मेरे सूखे
अश्कों की कसम 
दोगे ना ..........

मगर , मेरा तो मुझमें कुछ बचा ही नहीं............

रूह और जिस्म 
के इस प्रेम पर 
सितारे भी 
रश्क कर रहे थे 
कुछ पल इस 
पवित्र प्रेम के 
पीने को तरस रहे थे
रूह और जिस्म के
इस अद्भुत मिलन के
गवाह बन रहे थे 

सोमवार, 26 जुलाई 2010

एक पल

तेरी 
एक पल में 
ज़िन्दगी 
जीने की 
हसरत
मेरे जीने का 
सबब बनी
अब खोजता 
फिरता हूँ
उस एक 
पल को
मगर 
कहीं नहीं मिलता
हर पल पर 
ज़िन्दगी की
उलझनों के 
लगे पहरे
कभी ज़िन्दगी 
को ठहरने 
नहीं देते 
इक पल को
ढूँढते - ढूँढते
बरसों बीत गए
शायद तुम तो 
भूल चुकी होंगी
मगर मैं 
आज भी
उसी इक पल
की तलाश में
भटक रहा हूँ 

शनिवार, 24 जुलाई 2010

सावन को हरा कर जाये कोई

कब तक जलाऊँ अश्कों को
भीगी रात के शाने पर 

सावन भी रीता बीत गया
अरमानों के मुहाने पर 


 जब चोट के गहरे बादल से
बिजली सी कोई कड़कती  है 


तब यादों के तूफानों की
झड़ी सी कोई लगती है

खाक हुई जाती है तब
मोहब्बत जो अपनी लगती है

कब तक धधकते सावन की
बेदर्द चिता जलाए कोई

रात की बेरहम किस्मत को
साँसों का कफ़न उढाये कोई

उधार की सांसों का क़र्ज़
हँसकर चुका तो दूँ मगर
इक कतरा अश्क
तो बहाए कोई
और बरसों से सूखे सावन 
को हरा कर जाये कोई

मंगलवार, 20 जुलाई 2010

ख़ामोशी पर लगे पहरे

यूँ तो 
खामोश थी 
हूँ और रहूँगी
ना गिला कोई 
ना शिकवा 
ना आँसू 
ना मुस्कान
ना चाहत कोई
ना अरमान
मगर ख़ामोशी 
पर लगे तेरी 
याद के पहरे ही
ख़ामोशी तोड़ 
जाते हैं 
बता अब 
यादों को तेरी 
किस चीन की
दीवार में
चिनवाऊँ
किस सागर की
गहराई में दबाऊँ
कौन से रसातल 
में छुपाऊँ 
और ख़ामोशी का 
कफ़न ओढ़ 
सो जाऊँ 

शनिवार, 17 जुलाई 2010

खुले विचारों वाली औरत

खुले विचारों 
के साथ 
स्वच्छंद उड़ान 
भरती औरत 
माँ बनते ही
वो भी एक 
बेटी की माँ
उस पर 
जवान होती
बेटी की माँ
के सभी 
खुले विचार 
ना जाने कब
दरवाज़े की
चूल में
फँसकर
चकनाचूर
हो जाते हैं 
आधुनिकता का दंभ 
स्वच्छंद विचारों
की खुशबू 
कब कपूर सी
तिरोहित हो जाती है 
पता भी नहीं चलता 
और फिर 
वहाँ रह जाती 
है सिर्फ माँ
एक ऐसी माँ
जो अपनी
जवान होती
बेटी को
समाज के
नरभक्षियों
के हाथों से 
बचाने की 
फिक्र में
रात भर
सो नहीं पाती 
ऊपर से हँसती
मुस्कुराती 
खिलखिलाती
पर भीतर ही भीतर
दहशत में जीती
एक दकियानूसी माँ
कब बन जाती है
पता ही नहीं चलता
हर निगाह में
उसे  सिर्फ
भयावह डरावने
खूँखार चेहरे
नज़र आते हैं


तब तक
जब तक वो
उसके हाथ
पीले नहीं कर देती 



मंगलवार, 13 जुलाई 2010

देवता बन नहीं पाते

उर का मंथन करता 
विचारों का मंदराचल 
सोच के गहरे सागर में
छुपे , डूबे रत्नों को 
निकालने की कोशिश 
करता , मगर 
कभी सार्थक तो 
कभी निरर्थक 
प्रश्नों के झंझावात
उर मंथन से निकले 
हलाहल को पीने 
पर विवश करते 
मगर हलाहल को
पीने वाला हर बार 
शिव नहीं होता
इच्छाओं के सुनहरी 
पंखों की अभिलाषा
हमेशा कामधेनु सी 
पूर्ण नहीं होती
ख्यालों पर ख्वाबों 
की मोहिनी
कितना भी डालो 
ख्याल मोहित 
हो नहीं पाते 
और उर मंथन से 
निकले अमृत को
पी नहीं पाते
देवताओं सा आचरण 
कर नहीं पाते
आसक्ति को छोड़ 
नहीं पाते
मोह के मकडजाल 
में फँसे
लोभ की दलदल 
में धँसे
अहंकार से ऊपर
उठ नहीं पाते
कामनाओं के 
वशीभूत हो
क्रोधाग्नि में जलते 
पल- पल खुद से ही
लड़ते रहते हैं 
पर कभी सुधापान 
कर नहीं पाते
आसुर वृत्ति को 
धारण करने वाले
इंसान , इंसान ही रहते हैं
देवता बन नहीं पाते

बुधवार, 7 जुलाई 2010

मौत से बड़ी सौगात मिली हो जिसे

चाँदनी से झुलसे जिस्म को
जब चाँदनी भी जलाने लगे 
रूह  पर पड़ते फालों पर
आहों की सुइयाँ गुबने लगें
पाँव में छाले पड़ने लगें
छालों को अश्कों से सींचने लगें
तब किस आग से  सहलाऊँ
कौन सा वो दीप जलाऊँ कि
छालों पर भी छाले पड़ने लगें
तेरी दी हर सौगात पर
चाहे जिस्म सारा सिसकने लगे
रूह भी फ़ना होने लगे
दर्द के सीने पर पाँव रखकर
दर्द जब हद से गुजरने लगे
हर अहसास दफ़न होने लगे
मौत से बड़ी सौगात मिली हो जिसे
उसे दर्द का अहसास कैसे मिले?

मंगलवार, 6 जुलाई 2010

फलक पे झूम रही साँवली घटाएँ हैं

फलक पे झूम रही साँवली घटाएँ हैं 
मेघ सारे तेरे गेसुओं में उतर आये हैं 


बहक रही फिजा में शोख हवायें हैं
उड़ा के तेरा आँचल नाज़ से इतराए हैं 

 बदरी जो बरस के आज इठलाये है
 जुल्फों के पेंचोखम तेरे भटकाए हैं 

भटकते आवारा बादलों की छटाएँ हैं
गोरी के मुखड़े को क्यूँ लजाएँ हैं 

रिमझिम के गीत हर दिल ने गाये हैं 
लबों पर तेरे सभी उतर आये हैं

अदायें तेरी बिजलियाँ सी गिरायें हैं
खोई- खोई सी तेरी सब अदायें हैं 

मुखड़े पर छाई शोख चंचल अदायें हैं
अरमाँ सारे तेरे आगोश में सिमट आये हैं 

फलक पर झूमते सभी सितारे हैं 
तेरे रूप के आगे सभी शरमाये हैं 

रुखसार पर छाए मोहब्बत के साये हैं 
नैनों में तेरी मेरे अहसास उतर आये हैं 

तेरे रूप पर फ़िदा सारी फिजायें हैं
ये किस मोड़ पे हालात ले आये हैं 

कुछ ख्याल तेरे निगाहों में उतर आये हैं
हम इक ज़िन्दगी वहाँ गुजार आये हैं 

अँखियों के पेंच जब से लड़ाए हैं 
सुबहो शाम तेरे नाम लिख आये हैं 

प्रीत के दीप देहरी पर सजाये हैं 
आस की बाती से सभी जगमगाए हैं

उमड़- घुमड़ कर बदरा जब छाए हैं 
पिय मिलन को सजनिया अकुलाये हैं 


फलक पे झूम रही साँवली घटाएँ हैं
रह -रह कर यादें उनकी सताएँ हैं 


दोस्तों , 
सबसे पहली लाइन पंकज सुबीर जी के ब्लॉग से ली है क्यूंकि वहाँ उन्होंने मुशायरा रखा हुआ है और हमारा उस विधा में हाथ तंग है ----नुक्ता,बहर , मात्रा इन सबसे हम तो अंजान हैं इसलिए वहाँ भेजने का तो सवाल ही नहीं उठता था मगर उस दिन जैसे ही ये पहली पंक्ति पढ़ी दिल झूम उठा और कुछ ख्याल उसी दिन दिल से निकले और कागजों पर उतर आये --------अब इसमें सिर्फ भावों को ही देखियेगा शायरी की रूह मत खोजियेगा क्यूंकि यहाँ तो जो भी लिखा जाता है सिर्फ भावों से ही लिखा जाता है --------उम्मीद है पसंद आएगी .

शुक्रवार, 2 जुलाई 2010

प्यार तो तब था जब ..........

जब भी मिले 
जिस्म मिले
रूह ने तो
रूह को कभी 
छुआ ही नहीं
कभी किसी को
किसी  से 
प्यार हुआ 
ही नहीं
सिर्फ जरूरतों 
के ख्वाहिशमंद
रिश्तो ने कभी
इक दूजे को
पाया ही नहीं
यूँ ही ज़िन्दगी
गुजार गए 
दिखावटी प्यार 
के भरम में 
मगर प्यार के
तो कभी
करीब से भी 
गुजरा ही नहीं
तेरी मौत पर
रोने वाला 
दो दिन में
तुझको भूल गया 
बता फिर
प्यार वहाँ 
कहाँ हुआ ?
प्यार तो तब था 
जब , तेरे विरह में
उसकी सांस भी
थम  जाती
धड़कन उसकी भी
रुक जाती
रूह से रूह
मिल जाती