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सोमवार, 29 सितंबर 2014

सृष्टि पर पहरा -- नज़र अपनी - अपनी




“ सृष्टि पर पहरा “
  
वो सदी का चितेरा बैठा है अपनी पुष्प वाटिका में अलग अलग रंगों के कँवल खिलाये मगर स्रोत सिर्फ़ एक ही है उसकी विस्मृति में जमी स्मृति की कोशिका जो बार बार ले जाती है विस्मृति के बीहडों में  से खोजने एक बीज अंकुरण की प्रबल संभावना वाला और आखिर आ ही जाता है हाथ वो शब्दबीज जिसके बीजने से पैदा हो गये जाने कितने शब्दबीज और स्मृति का खलिहान लहलहा उठा फिर चाहे उसके लिये ‘सृष्टि पर पहरा ‘ ही क्यों ना लगाना पडे , चाहे उसकी हवा उन आँगनों तक ना बहे जहाँ से खो गये हैं मगर उपज तो उपज है कब किसान की हुई है वो तो सदा दूसरों का ही पेट भरती रही है बस ऐसा ही तो शब्द साम्राज्य लहलहा उठा है ‘सृष्टि पर पहरा ‘ काव्य संग्रह में । जिन्होने अपने लेखन से “ सृष्टि पर पहरा “ लगाने की हिम्मत की है वो हैं केदारनाथ सिंह जी जिनका ये काव्य संग्रह हाल ही मे सामने आया है ।

केदारनाथ सिंह किसी परिचय के मोहताज नहीं और ऐसे मे उम्र के एक ऐसे पडाव पर पहुँचकर ही स्मृतियों के द्वार खुला करते हैं  जहाँ बचपन की दहलीज छोडी होती है और उसका पल पल , क्षण क्षण लहू की तरह पैबस्त होता है यादों की शिराओं में । बस आपाधापी में कहीं कोने में बैठा अपने होने का अहसास कराता रहता है , जेहन की कुंडियाँ खडखडाता रहता है जब तब और फिर एक दिन जब सब क्रियाकलापों से मुक्त हो जाता है चेतन तब रुख करता है यादों की दहलीज की ओर , तब उमगती है एक नदी अपने सम्पूर्ण प्रवाह के साथ और जन्म हो जाता है फिर से एक नए काव्य का । बस ऐसा ही तो निर्झर बह रहा है इस काव्य संग्रह में जहाँ तमाम ज़िन्दगी के कुछ वाकये कविता में ढल गये और अनुभूतियों का सागर लहलहा उठा ।

‘ सूर्य ‘ से समकालीनता का बोध कोई यूँ ही नहीं हुआ होगा कहीं कुछ उसी की तरह तपा होगा तभी शब्द यूँ झरा होगा । ये है चेतना का दूसरी चेतना से सम्मिलन , एक रूप का अपने ही रूप से साक्षात्कार तभी तो समकालीन कह सका खुद को कवि क्योंकि यात्रा अनवरत है फिर सूर्य की हो या जीव की और उसी महामिलन के संदर्भ में खुद का अक्स देखता कवि कहीं बहुत गहरे उतर जाता है और शायद आत्म साक्षात्कार पा लेता है।

‘ विद्रोह ‘ शब्द जी जैसे एक धधकता ज्वालामुखी है जिसमें जाने कब से एक लावा धधक रहा है और ऐसे में यदि ये शब्द किसी कुशल रचनाकार की लेखनी में उतर जाए तो खुद की सार्थकता पर इठलाना लाज़िमी है बस ऐसा ही तो इल्म हुआ है इस कविता में । जहाँ हर छोटी बडी चीज़ विद्रोह पर उतारू है और जीना है मानव को विद्रोह के गेसुओं की सुलगती आग के साथ क्योंकि विकल्प की राजनीति से अन्जान है वो या शायद जानता है मगर अन्जान रहकर जीने की उसे आदत पड चुकी है फिर चाहे व्यवस्था कितना ही परेशान करे आदत भी कोई चीज़ हुआ करती है के भाव को दर्शाती कविता मानव की मन:स्थिति और जीवन शैली का सटीक चित्रण करती है।

‘ आश्चर्य तो ये है कि कविगण भी /लिखते नहीं कविता कपास के फ़ूल पर / प्रेमीजन भेंट में देते नहीं उसे / कभी एक दूसरे को / जबकि वह है कि नंगा होने से / बचाता है सबको ‘
“ कपास का फ़ूल “ कविता मानो जीवन सत्य बिखेर रही है । मूल को भूल फ़ूल पत्तों तक ही सीमित है हमारा दर्शन । कभी नही सोचते आखिर उसका मूल क्या है गर इस तरफ़ रुख हो जाए तो जीवन का पल पल महक जाए मगर मानव की विडंबना यही है कि उसे हर चमकती चीज़ ही सोना लगती है इसलिए भेद नही पाता अभेद्य दीवारों का और चक्रव्यून मे घिरा ही अभिमन्यु सा नश्ट हो जाता है मगर बाहर आने का मार्ग नही खोज पाता ।

“ मंच और मचान “ लम्बी कविता अपने अन्दर ना जाने कितने अर्थ समेटे है जो व्यक्ति से लेकर देश और विदेशी नीति तक पर प्रहार करती है साथ ही ‘घर’ शब्द की विशद व्याख्या करती प्रतीत होती है और कवि के ह्रदय पर एक प्रश्नचिन्ह सा भी छोडती है तो कवि पाठको को भी उसी मुग्धता मे छोड आगे प्रयास करता है ।

बेशक कुछ कविताएं किसी न किसी को समर्पित हैं जैसे प्रो वरयाम सिंह, कवि देवेन्द्र कुमार, एक लोकगीत की अनुकृति , जहाँ से न हद शुरु होता है, मनाली, वह बंग्लादेशी युवक जो मुझे मिला था रोम में , कवि कुम्भनदास के प्रति आदि कविताअएं कवि के जीवन मे कितनी महत्त्वपूर्ण हैं जो अब मुखर हो पायीं और कवि ने उँडेल दिया अमृत सागर जिसे उम्र भर सहेजा था और अब मौका आने पर सबको उनका हिस्सा दे हो गए मुक्त्।

“ज्यॉ पाल सार्त्र की कब्र पर “ प्रेम का रुपहला अहसास बन आत्मा मे उतरते जाने वाली कविता है जिसे कवि ने बेहद सादगी से ऐसे कहा मानो सामने ही वो जीवन्त हो ……सिर्फ़ दो शब्द और सारा संसार प्रेम का समेट लिया ।

‘वापसी का टिकट है /कोई पुरानी मित्र / रख गयी होगी / कि नींद से उठो/ तो आ जाना / मुझे लगा ---अस्तित्व का यह भी रंग है / न होने के बाद ‘ 
प्रेम का उज्जवल स्वरूप अपनी जीवंतता को प्रमाणित कर रहा है और यही कवि के लेखन की सार्थकता है जो प्रेम के पूरे व्याकरण को चंद लफ़्ज़ों में उतार दिया और प्रेम को परिपूर्ण कर दिया ।

 “ ईश्वर को भारतीय नागरिक के कुछ सुझाव “ आज के विज्ञान पर एक तरफ़ कटाक्ष है तो दूसरी तरफ़ कल्पना की उडान का जीवन्त चित्रण जहाँ कल्पना एक बच्चे की कल्पना से प्रतिस्पर्धा ले रही है और संसार में बिगडे हालात पर दृष्टिपात भी कर रही है और आखिरी पंक्तियाँ कवि का सुरक्षा कवच नहीं बल्कि ईश्वर की आँख में आँख डाल देखने का उपक्रम भी है जो उसे भी सोचने को विवश कर दे कि मत दे मानव को इतनी शक्ति जो उसके दुरुपयोग पर वो आमादा हो जाए और फिर तेरे हाथ भी कुछ ना बचे
‘ इधर मीडिया में विनाश की अट्कलें / बराबर आ रही हैं / सो पृथ्वी का कॉपीराइट संभालकर रखना / यह क्लोन समय है / कहीं ऐसा न हो / कोई चुपके से रच दे / एक क्लोन पृथ्वी ‘

‘ ओ पृथ्वी तुम्हारा घर कहाँ है ‘ गहनता में उतरता कवि का मानस सम्बोधित करता पृथ्वी को मानो खुद में उतरने की ही कोई जद्दोजहद है , मानो कर रहा हो अवलोकन पृथ्वी के माध्यम से खुद में बसे एक सम्पूर्ण ब्रह्मांड का , मानो लिख दिया हो अपने भीतर की उद्वगिनता , असहायता और आकुलता का एक समग्र भंडार जहाँ व्याकुलता के खनिज अकुलाये से खोज रहे हों अपने अन्तर्मन के दिशाहीन कोणों को तो दूसरी तरफ़ मानो पृथ्वी के माध्यम से दर्ज कर दी हो एक स्त्री की सम्पूर्ण विवेचना , उसका सम्पूर्ण सौंदर्य , उसकी सम्पूर्ण प्रतिबद्धता । चंद शब्दों में मानो रच दिया कवि ने एक पूरा वितान जहाँ पाठक निर्मिमेष दृष्टि से हतप्रभ खडा खोज रहा है पहचान बिन्दु जाने किसके ---- पृथ्वी के , स्त्री के या खुद के । एक रहस्यमय संसार की रचना कर पाठक को उसकी सोच की कंदरा में छोड कवि निकल पडता है अगले पडाव पर ।

‘ घास ‘ कविता के माध्यम से कवि ने सत्ता पर तो प्रहार किया ही है साथ ही घास के बिम्ब का उचित उपयोग कर जन मानस की शक्ति का भी निरुपण किया है । घास यानि आम जनता जो बदल सकती है हर तस्वीर को बेशक नहीं समझा जाता उसका अस्तित्व या उसकी उपयोगिता मगर फिर भी कहीं न कहीं से , किसी ने किसी दरार से जब करती है प्रवेश तो बदल जाते हैं राजनीति के सारे समीकरण और लिख देती है अपना ही गणित । जो चुभा नहीं करते , जो डरे दबे ढके कुचले मसले हों जो प्रतिकार नहीं करते वो भी वक्त आने पर सिद्ध कर जाते हैं अपनी उपयोगिता , दे जाते हैं समय के मानस पटल पर अपनी दस्तक और अंकित हो जाते हैं इतिहास में । बस मानो कवि ने दर्ज कर दिया हो सुन्दर सहज और सरल शब्दों में अपना विरोध घास के माध्यम से और चल दिया अगले सफ़र पर ।

‘ घर में प्रवास ‘ मानो आज की आधुनिक शैली में बदलती जीवन मान्यताओं के ह्रास का चित्रण हो जो खुद से मुखातिब होता खुद से ही अन्जान होने के सफ़र को इंगित करता है । मानो कवि कहना चाह रहा हो कितना अजनबीपन तारी हो गया है आज अपने ही घरों में कि प्रवासियों सा जीवन जीने लगा है मानव और भूल चुका है उसी घर में रहने वाले उन बुजुर्गों को जो पहले भी उसी घर का हिस्सा थे और आगे भी रहेंगे मगर अति आधुनिक जीवन शैली में शायद जरूरत नहीं रही उनकी या नहीं सिद्ध कर पाये वो अपनी उपयोगिता इसलिये हो गये निष्कासित और मानव मन इतना संवेदनहीन हो चुका है कि सब देखकर जान कर भी न समझने का ढोंग कर्रता जाने किसे धोखा दे रहा होता है :
 “ जब मैं ले रहा था विदा – /‘ कबूतरों ने कोई गज़ल गुनगुनायी ‘/शायद पितरों के समय की/और मैं समझ न सका /उनकी आवाज़ में /कितना गम था /कितनी खुशी ! “

‘ विज्ञान और नींद ‘ का तालमेल लिखते हुए मानो कवि एक विरोधाभास को भी इंगित कर रहा है । मानो कह रहा हो जब विज्ञान ने इतनी तरक्की नहीं की थी तो मानव कितना चैन से सोया करता था अर्थात चैन की नींद लिया करता था , न इतनी आपाधापी थी जीवन में और न ही इतना बंजारापन । बेशक विज्ञान ने सहूलियतें मुहैया करायी हैं मगर उन सहूलियतों को देने की एवज में नींद का मुआवज़ा भी ले लिया है जो विज्ञान की देन का ऐसा दुष्परिणाम है जिससे अब चाहकर भी मानव मुक्त नहीं हो सकता । गागर में सागर भरती कविता पाठक के अवचेतन पर कहीं बहुत गहरे प्रहार करती है ।

‘फ़सल’ के माध्यम से किसानों की पीडा और उनके जीवन की विषमताओं पर दृष्टिपात करते हुए कवि ने अंत में उसकी मृत्यु को कोई निर्णायक मोड न देते हुए भी दे दिया कि क्यों वे आत्महत्या करने को विवश होते हैं जिसे कोई हत्या तो कोई आत्महत्या करार दे देता है मगर वो हो जाता है हर त्रासदी से मुक्त क्योंकी शायद जीने की जद्दोजहद जब छीन लेती है उससे उसका सब कुछ तो अन्तिम विकल्प के रूप में कुछ नहीं बचता सिवाय स्वंय के होम होने के

‘ नदी के स्मारक ‘ जीवन के अंतिम छोर पर खडे मनुष्य की जर्जर अवस्था को इंगित करती उसकी उपादेयता को सिद्ध करती मानो कहती हो आज जहाँ मैं हूँ कल तुम होंगे और यही सोच कर देती है नतमस्तक उस जीर्ण शीर्ण अवस्था के प्रति जिससे कोई नहीं बच सकता बस इतनी संवेदनशीलता बची रहनी जरूरी है ।

‘ हक ‘ भारत पाक के बीच खिंची दरार को भरने की चाहत का इज़हार है जहाँ कवि चाहता है दरार इतनी गहरी न हो कि हवायें भी आने से कतराने लगें , पंछी भी सरहदों में बँटने लगें और तलवारें हमेशा म्यान से बाहर ही रहें । कवि चाहता है चाहे जैसे भी हो दोनों मुल्कों में एक पतली सी झिर्री खुली रहे जिससे संभव हो सके खुली हवा में साँस लेना इतना तो हक बने दोनों मुल्कों के बाशिंदों का फिर चाहे सियासतदार कितना भी खेल खेलें , कितना ही कागज़ी हिसाब रखें बची रहे एक मुट्ठी आस्माँ की ख्वाहिश सीने में ।

‘ चुप्पियाँ ‘ व्यवस्था पर तमाचा है । जब हालात बेकाबू हो रहे हों और देखकर भी अनदेखा कर चुप रह आगे बढती जा रही हो दुनिया , अन्याय होते देख भी चुप रहे जो तब यदि कोई आवाज़ उठाये तो नक्कारखाने में तूती की आवाज़ सा लगता है , सही कहने वाला ही सूली पर चढता है बेशक वो समाज देश के भले की बात कर रहा हो मगर उस पर ध्यान नहीं दिया जाता और उसे ही गलत साबित करना कितना महंगा पडता है या पड सकता है ये चुप रहने वाले नहीं जान पाते । चुप रहना भी एक गुनाह है ये समझना जरूरी है मानो कवि कहना चाहता है कम से कम अपने हक के लिए तो बोलो वरना ये खामोशियाँ लील लेंगी तुमसे तुम्हारा वजूद भी और हो जाओगे तुम फिर एक बार अपनी ही चुप के गुलाम जिन्हें खोलने की चाबी फिर नहीं मिलेगी । खामोशी की गुफ़ाओं में गर्त होने से पहले जरूरी है चुप्पियों का टूटना समवेत स्वर में वरना वो दिन दूर नहीं जब न समाज होगा न देश और न तुम और न ही तुम्हारा कोई वजूद ।

 कवि अपने समय का सशक्त हस्ताक्षर है तो कवि द्वारा रचित कविताएं बेशक बेजोड हैं । कवि के संवेदनशील ह्रदय को उल्लखित करती हैं फिर चाहे वो विज्ञान से संबंधित हों या  गाँव के बीते पलों का चित्रण या अपने वजूद से लडती हिंदी का अस्तित्व । हर कविता कहीं प्रश्न छोडती है तो कहीं सोच के प्रहरियों पर प्रहार करती है या समाज मे फ़ैली भ्रान्तियाँ सब पर कवि की कलम बराबर चलते हुए पाठक को अपने साथ बहा ले जाने की क्षमता रखती है तभी तो कवि और उसका लेखन अपनी पहचान आप है मगर इसके साथ एक ख्याल साथ में दस्तक देता है कि यदि कोई नवोदित कवि इस तरह की कविता लिखे तो क्या इतना बडा प्रकाशक उसे छापने का जोखिम उठायेगा या साहित्यिक महकमा उसके लेखन को इसी दृष्टि से देखेगा ये एक प्रश्न कचोट रहा है क्योंकि स्थापितों के लिए कोई मुश्किल नहीं होती मगर नवोदित गर किसी न किसी को समर्पित करती कविताएँ लिखे तो शायद ही कोई बडा प्रकाशक उन्हें छापने का जोखिम उठाए जब तक कि वो बिकाऊ न हो और ये प्रश्न प्रकाशक के लिये ज्यादा है क्योंकि कवि का काम तो रचनाकर्म करना है मगर उसे आगे पहुँचाना तो सिर्फ़ प्रकाशक का काम होता है तो क्या जरूरी नहीं इस तरफ़ भी ध्यान दिया जाए और नवोदितों में जो संभावना है उसे भी पोषित किया जाए ताकि फिर एक और केदारनाथ सिंह पैदा हो सके।

अब आती हूँ कवि के समर्पण पर जो कवि ने अपने गाँव के लोगों को पुस्तक समर्पित की है बेशक उम्दा ख्याल है और सभी समर्पण करते हैं किसी ना किसी को मगर जाने क्यों कवि का ये समर्पण सच में आकार पा जाता यदि वो कुछ इस तरह सोचता :

“ अपने गाँव के लोगों को
जिन तक यह किताब
कभी नहीं पहुंचेगी “
कहकर क्या हो गयी इतिश्री
करके समर्पित ओ कवि
क्या पा गया तुम्हारा ह्रदय
चैन-ओ-आराम
क्या मिल सकी वो सुकूँ की मिट्टी
जिसकी सौंधी मिट्टी से
सराबोर हो तुमने
गूँथी यह पुष्प वेणी

नहीं कवि नहीं
सिर्फ़ इतना भर कह सकने से
ना पा सके होंगे तुम
खुद के आवरण से मुक्ति
क्योंकि
आसान था समर्पण करना
मगर
क्या वास्तव में ऐसा था ?
हो सकता है
गहरी पैठी संवेदनाएँ
जन्मी होंगी प्रसव की पीर सी
मगर ‘सिर्फ़ समर्पण’ की
तुमसे न थी उम्मीद
गर भावनात्मक लगाव
इस हद तक था
तो इस बार तुमने
नवागंतुकों के लिए
नज़ीर बनना था
और करना था एक ऐसा आह्वान
जो अब से पहले ना
किसी ने किया था

कवि जानते हो तुम
तुम क्या हो ……प्रकाशक के लिये
एक बिकाऊ माल
जो , जो भी लिखेगा
बेमोल बिकेगा
हाथों हाथ लिया जाएगा
ये है तुम्हारी पहचान
गर इस बार तुमने
अपनी पहचान को
भुना लिया होता
मानवता के लिये
एक कदम उठा लिया होता
तो वक्त के सीने पर
एक सशक्त हस्ताक्षर बन गये होते
साहित्य का इतिहास अमर कर गये होते

बेशक अमर आज भी हो तुम कवि
मगर सिर्फ़ एक कदम
और आगे बढ गए होते
जो एक बार प्रकाशक से
रॉयल्टी के बदले अपने
गाँव के घर घर में
इस पुस्तक को पहुँचाने की
शर्त रख गए होते
सुकूँ के जाने कितने पल
और जी गए होते
कवि तुम खुद से एक बार
फिर मिल गए होते
जो पैसों के ढेर से
बाहर निकल गए होते
क्योंकि
सिर्फ़ समर्पण करना , कहना ही
सब कुछ नही होता
वास्तव में तो समर्पण को
उसके अंतिम मुकाम तक
पहुँचाना ही
वास्तविक समर्पण होता है
क्षमा चाहती हूँ कवि
मगर
समर्पण कहीं न कहीं
सिर्फ़ तुम्हारी वाकपटुता दर्शाता है
मगर तुम्हारे विशाल ह्रदय का
न दिग्दर्शन कराता है 



शनिवार, 27 सितंबर 2014

कुछ तो भरम रहेगा

जिस्म के टाँके उधडने से पहले 
आओ उँडेल दूँ थोडा सा मोम 
कुछ तो भरम रहेगा 
जुडे हैं कहीं न कहीं 
जुडे रहने का भरम 
शायद जिला दे रातों की स्याही को 
और सुबह की साँस पर 
ज़िन्दा हो जाए एक दिन 
दिन और रात के चरखे पर 
कात रही हूँ खुद को 
कायनात के एक छोर से दूसरे छोर तक 
जानते हुए ये सत्य 
भरम है तो टूटेगा भी जरूर…



शुक्रवार, 19 सितंबर 2014

आत्महत्या : कितने कारण (पुरस्कृत स्क्रिप्ट )





दोस्तों एक छोटी सी खुशखबरी :
देखिए वैसे तो आज तक कभी उस क्षेत्र में हाथ आजमाया नहीं मगर कोशिश भर की और वो सार्थक हुई तो आन्तरिक खुशी मिली तो सोचा सबसे साझा करूँ । पिछले दिनो बी एस एफ़ के महानिदेशक मनोहर बाथम द्वारा एक स्क्रिप्ट राइटिंग का आयोजन किया गया था जिसकी मैने सूचना लगायी थी तो सोचा एक बार हाथ आजमाया जाए और एक स्क्रिप्ट बनाकर भेज दी जबकि इस क्षेत्र की कोई जानकारी ही नहीं थी और उसमे आपकी इस दोस्त की स्क्रिप्ट को तीसरा स्थान मिला है साथ ही 2000 रुपयों द्वारा पुरस्कृत और प्रशस्ति पत्र द्वारा सम्मानित किया गया है । 

(दोस्तों इस में वार्तालाप और परिस्थितियों को चाहे जितना बडा रूप दिया जा सकता था मगर स्क्रिप्ट की सीमा को देखते हुए इतने में ही समेटना पडा ।) 

इस स्क्रिप्ट के बनने की भी एक कहानी है । सबसे पहले ये एक कहानी के रूप में थी जो आज से कम से कम 3-4 वर्ष पहले लिखी थी ब्लॉग पर जो पिछले दिनो कहानी पर हुयी कार्यशाला में पढी थी और वहाँ इस पर एक वृहद चर्चा हुई थी तो सुभाष नीरव जी ने कहा था कि चाहो तो इसमें संवाद बहुत ज्यादा भर सकती हो , इस विषय पर तो पूरा उपन्यास लिखा जा सकता है मगर वहाँ सबने इसे फ़ेसबुक के साइड इफ़ैक्ट के रूप में देखा था जबकि 3-4 वर्ष पहले जब लिखा था तब भी मेरा उद्देश्य सिर्फ़ आत्महत्या के छुपे हुए कारणों को दर्शाना था जिसके बारे में रास्ते मे आते हुए सुभाष नीरव जी को मैने बताया था और अब जब मौका मिला तो मैने उस कहानी को स्क्रिप्ट का रूप दे दिया क्योंकि विषय वो ही था जो मैं चाहती थी सब तक पहुँचे । 

आत्महत्या : कितने कारण
*********************
मौत की भयाक्रांत छाया में पसरा कमरा
कमरे के बीचोंबीच जलता दीया और उसके आगे एक तस्वीर
सोच के अंधियारे में डूबी एक आकृति जिसकी आँख में आँसू के कतरे लहराते तो हैं मगर बाहर नहीं ढलकते …… सोच में डूबा अतीत में खो जाता  है

निशि : अकेलेपन की ऊब से परेशान कभी इस कमरे मे तो कभी उस कमरे मे उन्ही रखी चीजों को दोबारा रखती है तो कभी यूँ ही किसी मैगज़ीन के पन्ने पलटती है तो कभी इधर उधर यूँ ही टहलती है , एक बेचैनी को दर्शाती

बेटा ( तकरीबन 18 वर्ष का ) : माँ क्या हुआ इतनी बेचैन क्यों हो ?
निशि : बस कुछ नही समझ आ रहा कि क्या करूँ सब काम कर चुकी मगर फिर भी खाली हूँ ,खाली वक्त काटने को दौडता है , बेचैनी का सबब बताती है
बेटा : तो मैं आपको एक काम बताता हूँ जिसमें आपका मन भी लगा रहेगा और आप का वक्त भी आसानी से गुजर जाएगा
निशि : हाँ बताओ
बेटा : माँ , लीजिये मैने ये आपके लिए एक एकाउंट बना दिया है यहाँ आप अपने दोस्त बनाइये , उनसे बातें कीजिए , कहते हुए बात करते करते बेटे ने एक एकाउंट कम्प्यूटर पर बना निशि के आगे रख दिया ।
निशि आश्चर्यचकित सी : अरे मुझे कहाँ आता है चलाना और क्या बात करूँ किसी से  मैं तो किसी को जानती भी नहीं ।
बेटा : मैं आपको सब सिखा देता हूँ कैसे दोस्त बनाए जायें और बात की जाए और सब पल भर मे सिखा देता है । उनसे चाहे लिखकर चाहे वीडियो द्वारा चैट कर सकती हैं ।

दूसरे दिन :

जल्दी जल्दी घर के काम करती है और कम्प्यूटर पर बैठ जाती है  और उसी तरह बात चीत शुरु करती है जैसे बेटे ने बताया था । पहले तो डरते डरते बात शुरु करती है हैलो कैसे हैं आप क्या करते हैं मगर धीरे धीरे अभ्यस्त हो जाती है अगले कुछ दिनों में ही ।

एक दिन विडियो चैट पर :

मनोज : हैलो निशि जी
निशि : हाय
मनोज : कैसी हैं , क्या करती हैं आप ?
निशि : बढिया हूँ , हाउसवाइफ़ हूँ
मनोज : घर में कौन कौन है ?
निशि : दो बच्चे और मेरे पति
मनोज : क्या करते हैं वो और बच्चे
निशि : वो मिलिट्री में मेजर है और बच्चे कॉलेज जाते हैं
मनोज : इसका मतलब घर की जिम्मेदारियों से काफ़ी हद तक मुक्त हो गयी हैं आप ?
निशि : जी बस ऐसा ही समझ लीजिए
मनोज : तो खाली वक्त में क्या करती हैं ?
निशि : बस थोडा लिखना पढना और यहाँ चैट पर मित्र बना बात करना J
मनोज : तो हमें अपनी मित्रता सूची में जोडिए न
निशि : आपका स्वागत है

धीरे धीरे एक दिन में कितनी ही बार मनोज से बातें होने लगीं
फिर एक दिन :

मनोज : निशि एक बात कहूँ
निशि : हाँ कहो मनोज
मनोज : तुम बहुत ही सुन्दर हो
निशि : जानती हूँ
मनोज : सच निशि अब तुम्हारे बिना रहा नहीं जाता मेरे मन में मेरी नीद पर सब पर तुमने अपना कब्जा कर लिया है
निशि : ये कैसी बहकी बहकी बातें कर रहे हो मनोज
मनोज : सच निशि बहकी नही हकीकत कह रहा हूँ , बहुत अकेला हूँ , सब कुछ है फिर भी कोई अपना नहीं , एक तुम ही हो जो इतनी ज़हीन हो तभी तो तुमसे बात कर लेता हूँ , तुम केवल तन की नही मन से भी बहुत सुन्दर हो ।
निशि ( मुस्कुराते हुए ) : मनोज तुम अपनी हद पार कर रहे हो
मनोज : नहीं निशि सच तुम नहीं जानती तुम क्या हो मैने तुम्हारे लिए कुछ लिखा है सुनोगी
निशि मंत्रमुग्ध सी : हाँ सुनाओ
मनोज : मेरी चाहत तुझे दुल्हन बना दूँ /तुझे ख्वाबों के सुनहले तारों से सजा दूँ/ तेरी मांग में सुरमई शाम का टीका लगा दूँ /तुझे दिल के हसीन अरमानों की चुनरी उढा दूँ / अंखियों में तेरी ज़ज्बातों का काजल लगा दूँ / माथे पर तेरे दिल में मचलते लहू की बिंदिया सजा दूँ / अधरों पर तेरे भोर की लाली लगा दूँ / सिर पर तेरे प्रीत का घूंघट उढा दूँ / मेरी चाहत तुझे दुल्हन बना दूँ

निशि आँख बंद किए मुस्कुराती हुयी इठलाती हुयी सुनती है और फिर कह उठती है
मनोज कहीं मैं सपना तो नहीं देख रही । उफ़ मुझे तो पता ही नहीं चला कि कोई मुझे इस हद तक चाह सकता है
मनोज : तुम क्या जानो निशि तुम मेरे लिए क्या हो । मैं तुम्हें तुम से ज्यादा पढता हूँ और समझता हूँ देखना चाहती हो मेरी चाहत की इंतेहा तो सुनो
तेरे रूप के सागर में उछलती मचलती लहरों सी चंचल चितवन / जब तिरछी होकर नयन बाण चलाती है / ह्रदय बिंध- बिंध जाता है / धडकनें सुरों के सागर पर प्रेम राग बरसाती हैं / केशों का बादल जब लहराता है /सावन के कजरारे मेघ छा जाते हैं / अधरों की अठखेलियाँकमल पर ठहरी ओस सी बहका- बहका जाती हैं / क़दमों की हरकत पर तो मौसम भी थिरक जाते हैं / ऋतुओं के रंग भी बदल- बदल जाते हैं / रूप- लावण्य की अप्रतिम राशि पर तो चांदनी भी शरमा जाती है / फिर कैसे धीरज रख पाया होगा तुझे रचकर विधाता / कुछ पल ठिठक गया होगा और सोच रहा होगा / लय और ताल के बीच किसके सुरों में सजाऊँ इसे /किस शिल्पकार की कृति बनाऊँ इसे /किस अनूठे संसार में बसाऊँ इसे /किसके ह्रदय आँगन में सजाऊँ इसे /किस भोर की उजास बनाऊँ इसे /किस श्याम की राधा बनाऊँ इसे 

खुशी से पागल निशि मनोज की आँखों से खुद को देखने लगी , मनोज के ख्यालों में ही खोयी रहने लगी । अब तो फोन पर भी बातें होने लगीं । दिन पर दिन बीतते रहे और निशि की मोहब्बत परवान चढती रही । भूल गयी थी वो अपना घर संसार बस याद था तो सिर्फ़ अपना प्यार ।

और फिर एक दिन फोन पर :

निशि : मनोज कुछ सोचा तुमने हमारे बारे में ?
मनोज : क्या सोचना है ?
निशि : अब नहीं रहा जाता मनोज तुम्हारे बिना , अब तो हमें फ़ैसला लेना ही पडेगा
मनोज : अरे ये क्या सोचने लगीं तुम जो जैसा चल रहा है चलने दो । तुम्हें पता ही है मेरा भी परिवार है और तुम्हारा भी तो कैसे उन्हें छोड सकते हैं
निशि प्यार में पागल होते हुए बोली : अरे ये तो तुम्हें आगे बढने से पहले सोचना चाहिए था अब मैं तुम्हारे बिना एक पल नहीं रह सकती
मनोज : निशि मैं अपने परिवार को नहीं छोड सकता ऐसे ही रिश्ता चलाना चाहो तो चला सकती हो ( एक कटुता सी जुबान में भरते हुए बोला )
निशि : इसका मतलब  तुम्हारी वो सब बातें तुम्हारे लिए महज खेल भर थीं ? क्या तुम्हारा प्यार सच्चा नहीं इसका मतलब  तुम अब तक मेरी भावनाओं से खेल रहे थे
मनोज : तुम जो चाहे समझो मेरी तो तुम जैसी जाने कितनी दोस्त हैं अब सबको तो पत्नी का दर्जा नहीं दे सकता न

सकते में आ गयी निशि । उफ़ ये क्या हुआ । सिर पकड कर बैठ गयी और खुद से बातें करने लगी
उफ़ मुझे ये क्या हो गया था जो इस हद तक आगे बढ गयी जहाँ से वापस लौट्ना संभव नहीं और आगे जा नहीं सकती अब मैं क्या करूँ ? शायद मनोज ने मज़ाक किया हो दोबारा फोन मिलाती हूँ मगर फ़ोन कोई नही उठाता ।

निशि एकदम निढाल हो गयी और नर्वस ब्रेक डाउन का शिकार । गहरा मानसिक आघात लगा था ।

दूसरा दृश्य :

राजीव : डॉक्टर मैं बहुत मुश्किल से छुट्टी लेकर आया हूँ ऐसा क्या हो गया निशि को अचानक ?
डॉक्टर : आपकी पत्नी को लगता है कोई मानसिक आघात पहुँचा है और ऐसे में मरीज का यदि माहौल बदल  दिया जाए तो जल्दी ठीक हो जाता है ।

अगला दृश्य  -- शिमला में

निशि गुमसुम उदास सी दूर तक फ़ैली वादियों को देख रही थी जो उसी की तरह  नितांत अकेली थीं और अपनी घुटन अपनी पीडा किसी से कह  भी नहीं सकती थीं सोचने लगी क्या फ़र्क है उनमे और मुझमें । तभी उसकी दोस्त रिया का फ़ोन आता है
रिया : अरे निशि क्या हुआ ?
निशि : कुछ नहीं
रिया : देख सच सच बता हम बचपन की सहेलियाँ हैं एक दूसरे से कभी कुछ नही छुपाया । जरूर कोई गहरी बात है जो इस हद तक तुम्हारा ये हाल हुआ है
निशि फ़ूट फ़ूटकर रो पडती है फ़ोन पर ही
रिया : हिम्मत रख , रो ले और अपना सारा गुबार निकाल दे मुझे कहकर
निशि : सारी सच्चाई बता देती है
रिया : ओह निशि तू ये किस भ्रमजाल में फ़ंस गयी । ये दोगले मुखौटों का जंगल है जहाँ जो एक बार फ़ँस गया तो उसका यही हश्र होता है लेकिन शुक्र समझ तुझे जल्दी पता चल गया अब ध्यान से सुन , भूल जा ये सब और आगे बढ तेरी घर गृहस्थी है , समझ सकती हूँ अकेलापन कितना भयावह जंगल है जिससे लडना सबसे मुश्किल होता है उस पर पति भी सीमा पर देश की रक्षा में लगा हो और उसकी पत्नी उसके इंतज़ार में । आसान नहीं होता ये जीवन जानती हूँ कितनी मुश्किल से वक्त गुजरता होगा , एक साथी की कमी महसूस होती होगी फिर शरीर की भी अपनी जरूरतें हैं सब जानती हूँ मगर फिर भी यही कहूँगी जो हुआ उसे भूल जा और आगे बढ ।

निशि : नहीं रिया मैं खुद को माफ़ नहीं कर सकती । मैने उनको ही नही खुद को भी धोखा दिया है , मेरा सारा परिवार यही समझ रहा है मैं बीमार हूँ मगर यदि उन्हें ये सच्चाई पता चल जाए कि इस उम्र में आकर मैं गलत रास्ते पर निकल गयी हूँ तो क्या सोचेंगे ? क्या असर पडेगा मेरे बच्चों पर ? क्या फिर कभी मैं उन्हें उनके किसी गलत काम के लिए उन्हें कुछ कह सकूँगी ? नहीं रिया , मैं खुद से नज़रें नहीं मिला पा रही और राजीव से भी नहीं कह  पा रही ।

रिया : देख राजीव तुम्हें बहुत प्यार करता है और तेरे बगैर वो ज़िन्दगी को ज़िन्दगी नही समझता तभी तो सीमा पर रहते हुए भी तेरा और बच्चों का ख्याल बना रहता है मेरे ख्याल से राजीव बहुत समझदार इंसान है तू उसे विश्वास में लेकर एक बार सब सच बता दे क्योंकि तूने कोई गुनाह तो किया नहीं सिर्फ़ बातें ही की हैं और बातों के माध्यम से कुछ भावनायें ही तो जन्मी हैं , वो देश का रक्षक एक बडे दिल वाला इंसान है , तुझे कुछ नहीं कहेगा बल्कि तेरी स्थिति समझेगा । वैसे भी इस तरह के आकर्षण हो जाया करते हैं इसके लिए तुम खुद को दोष मत दो और राजीव को विश्वास में लेकर सब सच कह दो तो आत्मग्लानि के बोझ से बाहर आ जाओगी

अगले दिन :

राजीव : निशि क्या बात है मुझे बताओ किस बात से तुम्हारा ये हाल हुआ ? कौन सा गम है जो तुम्हें खाए जा रहा है ? अगर मुझे बता दोगी तो कोई हल खोजेंगे , तुम जानती ही हो मुझे सीमा पर जाना होगा चाहकर भी ज्यादा रुक नहीं सकता और चाहता हूँ जाने से पहले तुम ठीक हो जाओ

निशि की हिम्मत जवाब देने लगी थी दिमाग की नसें खिंचने लगी थीं इसलिए हिम्मत करके आज सोचती है
आज मुझे कहना ही होगा सब सच राजीव से शायद तभी मुक्त हो पाऊंगी इस आत्मग्लानि से – सोचते हुए बोली

निशि : राजीव आज जो मैं तुम्हे बताऊँगी शायद तुम मुझे कभी माफ़ न कर सको लेकिन लगता है तुम्हें सच पता होना चाहिए । पहले तुम पूरी बात सुनना फिर अपनी प्रतिक्रिया देना । राजीव तुम तो सीमा पर रहते हो ज्यादातर , बच्चे कॉलेज और मैं घर में बिल्कुल अकेली । ऐसे में घर के सारे काम करने पर भी समझ न आता क्या करूँ तो रवि ने मुझे नैट पर चैट करना सिखाया और विडियो पर बात करना । (और उसके बाद निशि सारा घटनाक्रम बयाँ कर देती है )
राजीव देखो मै जानती हूँ मैने बहुत बडा गुनाह किया है और इसी वजह से मेरी ये हालत हुई है मगर तुम खुद सोचो एक स्त्री क्या करे आखिर , मुझे तो नैट की दुनिया की जानकारी ही नहीं थी इसलिए इस प्रलोभन में फ़ँस गयी मगर अब सोचती हूँ तो खुद से घृणा होती है कि कैसे मैं इतना नीचे गिर गयी , कहते हुए भरभरा कर रो पडती है

राजीव क्रोध से देखते हुए मुट्ठियाँ भींचते हुए चीख उठा : ओह  तो ये गुल खिलाए गये मेरे पीछे से । और क्या क्या करती रहीं , कहाँ कहाँ गुलछर्रे उडाए अपने आशिक के साथ । मैं तो यही सोचता रहा कि तुम बीमार हो मगर मुझे क्या पता था मेरी तो दुनिया ही बर्बाद हो चुकी है , जिस के विश्वास पर बेधडक मैं सीमा पर जाकर दुश्मनों के छक्के छुडा दिया करता था वो एक दिन मेरे ही विश्वास के परखच्चे उडा देगी ।
निशि : राजीव मुझे माफ़ कर दो जो चाहे सजा दे दो मैं सब सहने को तैयार हूँ मगर इस तरह नाराज मत हो , मैं सह नहीं पाऊँगी तुम्हारी नाराज़गी , तुम्हारी नफ़रत के साथ जीना दुश्वार हो जाएगा रोते हुए जमीन पर बैठ जाती है और राजीव बाहर निकल जाता है
इन्ही हालात में वापस आ जाते हैं दोनो

फिर एक दिन :
पलंग पर कागज़ फ़ेंकते हुए : देखो बहुत हो चुका अब मैं और सहन नहीं कर सकता मुझे भी मानसिक शांति चाहिए इसलिए चुपचाप बिना शोर मचाए इन पर दस्तखत कर दो क्योंकि मैं नहीं चाहता हमारे रिश्ते का मज़ाक बने  या बच्चों पर बुरा असर ।

निशि : क्या है ये ?
राजीव : खुद ही देख लो
निशि : तलाक के कागज़ देखते ही  निशि वहीँ कटे पेड़ सी गिर पड़ी. काफी देर बाद जब उसे होश आया तो वो खूब रोई , गिडगिडायी  , काफी माफ़ी मांगी राजीव से मगर राजीव ने उसकी एक ना सुनी.
राजीव : विश्वास की डोर बहुत ही कच्चे धागे की बनी होती है और एक बार यदि टूट जाये तो जुड़ना मुमकिन नही होता । अब हमारा अलग  हो जाना ही अच्छा है ।
निशि : बच्चों को क्या बताओगे ? क्या उनकी नज़रों में मुझे गिराना चाहते हो ? राजीव ऐसा मत करो और कोई सजा दे लो मगर  सब की नज़रों से गिरकर मैं जी नहीं पाऊँगी

मगर राजीव का फ़ैसला अटल था । और निशि के पास अपने किए पर  पछतावा करने के अलावा और कोई चारा नहीं था शीशे में अपना चेहरा नज़र नहीं आता बस  खुद से बडबडाते रहती और एक दिन इसी तरह बडबडाते हुए :

निशि : मैं कैसी झूठी मृगतृष्णा के पीछे भाग रही थी. रंग - रूप , धन -दौलत, ऐशो- आराम कोई मायने नहीं रखता जब तक अपना परिवार अपने साथ ना हो. परिवार के सदस्यों का साथ ही इंसान का सबसे बड़ा संबल होता है , उन्ही के कारण वो ज़िन्दगी की हर जंग जीत जाता है मगर आज  मैं  अपनी ज़िन्दगी की सबसे बड़ी जंग हार चुकी हूँ ये दिन तो हर औरत की ज़िन्दगी में आता है जब एक वक़्त वो अकेली पड़ जाती है मगर इसका ये मतलब तो नहीं ना कि हर औरत गलत राह पर चल पड़े ,मुझे भी अपने उस वक़्त का सही उपयोग करना चाहिए था , यदि उस वक्त का मैं  कुछ अपने जो शौक छूट गये थे उन्हें पूरा करने मे सदुपयोग करती तो आज मेरी ये दुर्दशा न होती । बेशक बच्चों को कुछ नहीं पता मगर राजीव की निगाहों में बैठी अविश्वास की लकीर ही जब सहन नहीं कर पा रही तो बच्चों की नफ़रत  कैसे सहन करूँगी  ।क्या जी पाऊँगी अपने परिवार के बिना ?क्या उनके बिना मेरा कोई अस्तित्व है ? ज़िन्दगी बोझ ना बन जाएगी?तब भी तो वो अकेलापन मुझ पर हावी हो जायेगा ?तब कहाँ जाऊँगी और क्या करूँगी  ? ( घबराती बिलबिलाती सी अर्ध विक्षिप्त की सी अवस्था में )
आने वाले दिनों और हालात के बारे में सोचते सोचते निशि ने बाल्कनी से कूदकर आत्महत्या कर ली और सबने समझा डिप्रैशन में थी इसलिये ये कदम उठा लिया । कोई न जान सका आत्महत्या के पीछे के मनोवैज्ञानिक कारण को एक आत्महत्या के पीछे जाने कितने कारण छुपे होते हैं जो परिदृश्य से हमेशा बाहर रहते हैं । जाने कितनी ज़िन्दगियाँ बर्बाद हो जाती हैं 

पुराने दृश्य पर आते हुए उसी कमरे में निशि की तस्वीर के सामने राजीव उससे बात करता हुआ :

निशि तुमने ये क्या किया । तुम्हारी मौत का जिम्मेदार सिर्फ़ मैं हूँ जो तुम्हें समझ नहीं सका । तुम रोती रहीं गिडगिडाती रहीं मगर उस वक्त न जाने मुझ पर क्या क्रोध सवार था जो मैने तुम्हारी एक नहीं सुनी । हम सेनानियों के पास शायद दिल होता ही नहीं या होता है तो सिर्फ़ पत्थर जो सिर्फ़ गोलियों की आवाज़ ही सुनता है जो नहीं पिघलता सामने पडी लाश को तडपते देखकर भी तो कैसे समझ सकता था तुम्हारी स्थिति क्योंकि हमें तो यही सिखाया जाता है कि कलेजे पर पत्थर रखकर  बिना भावनाओं में बहे अपने कर्तव्य का निर्वाह करते हुए अपने देश की रक्षा करनी है इसलिए जान ही नहीं पाते कि क्या होगी एक अकेली स्त्री की पीडा । आज तुम्हारे जाने के बाद अहसास हो रहा है कि कैसे तुम अपना वक्त गुजारती होंगी जिसमें कोई आस नहीं , कोई ऐसा नहीं जिससे अपने मन तन की कह सको , आज समझ  आ रहा है कि कुछ जरूरतें तुम्हारी भी होती होंगी जैसे पुरुष की होती हैं वैसे ही स्त्री की भी तो होती हैं और तुम उनसे भी लडती होंगी । हम पुरुष तो फिर भी इधर उधर मुँह मार लेते हैं फिर भी गुर्राते फ़िरते हैं मगर  स्त्रियाँ ऐसा कदम  जल्दी से नहीं उठातीं । और ऐसे में यदि कोई उनकी ज़िन्दगी में आ जाए तो समझ नहीं पातीं उसका मकसद और बहाव में बह जाती हैं क्योंकि उस पल वो बहुत अकेली होती हैं ( रोते हुए ) मैं क्यों भूल गया , मैं क्यों नहीं समझा तुम्हारी तकलीफ़ , नहीं निशि मैं इस दुनिया में रहने लायक नहीं जो एक स्त्री की रक्षा न कर सका , उसके मन को उसकी स्थिति को न समझ सका उसे क्या हक है जीने का । जाने किस दंभ में जी रहा था कि मैं वो सिपाही हूँ जो अपनी भारतमाता की रक्षा में सदैव तत्पर हूँ मगर मैं ज़िन्दगी की सबसे बडी जंग हार गया तो कैसे जाकर मुँह दिखाऊं अपनी भारत माता को । तुम्हारा दोष इतना बडा भी नहीं था जिसे माफ़ न किया जा सके मगर जाने मेरी सोचने समझने की शक्ति को क्या हुआ था जो आज अपने जीवन के अनमोल रतन को खो बैठा । मुझे माफ़ कर दो निशि अगर हो सके तो , अब नहीं रह सकता तुम्हारे बिना क्योंकि ये एक ऐसा गुनाह है जिसका कोई प्रायश्चित नहीं तुम्हें आत्महत्या के लिए मैने ही तो मजबूर किया तुम्हारे आगे कोई भी रास्ता न छोडकर तो कैसे खुद से आँख मिलाऊँ ? माफ़ कर दो निशि , माफ़ कर दो निशि कहते कहते चीजें उलटता पलटता है कमरे की और अपनी बन्दूक निकालकर कनपटी पर लगा ट्रिगर दबा देता है ।


वन्दना गुप्ता