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बुधवार, 22 मई 2024

मैं जीवन हूँ

 

न मैं सुख हूँ न दुख
न राग न द्वेष
मैं जीवन हूँ
बहता पानी
तुम मिलाते हो इसमें
जाने कितने केमिकल्स
अपने स्वार्थों के
भरते हो इसमें
कभी धूसर रंग
कभी लाल तो कभी सफेद
तुम स्वयं करते हो पीड़ा का आलिंगन
देते हो दावत गमों को
और फिर एक दिन
जब हो जाते हो आजिज़
अपनी महत्त्वाकांक्षाओं से
तब मिलता हूँ "मैं"
सबसे सुलभ साधन के रूप में
मढ़ देते हो मेरे सिर अपने किये सभी कर्म कुकर्म
दोषारोपण करना तुम्हारा प्रिय खेल जो है
जान लो ये सत्य
तुम नहीं हो सकते कभी मुक्त
क्योंकि
बीज तुमने स्वयं बोए
फसल जैसी भी उगे
तुम्हारी ही कहलाएगी
जीवन पारदर्शिता का वो उदाहरण है
जिसमें तुम स्वयं को देख सकते हो
अब स्वीकारो अथवा नकारो
ये तुम तय करो
मैंने तो निस्पृह हो बहना सीखा है

बुधवार, 15 मई 2024

उम्र की दस्तक गुनगुना रही है राग मालकोस...

 


मैंने तकलीफों को रिश्वत नहीं दी
कोई न्यौता भी नहीं दिया
उनकी जी हजूरी भी नहीं की
फिर भी बैठ गयी हैं आसन जमाकर
जैसे अपने घर के आँगन में
धूप में बैठी स्त्री
लगा रही हो केशों में तेल
कर रही हो बातचीत रोजमर्रा की
इधर की उधर की
तेरी मेरी

मेहमान दो चार दिन ही अच्छे लगते हैं
लेकिन इन्होंने जमा ली हैं जड़ें
बना लिया है घर वातानुकूलित
अब चाहे जितना आँगन बुहारो
बाहर निकालो
लानत मलामत करो
ढीठ हो गयी हैं
चिकना घड़ा हो जैसे कोई
नहीं ठहरती एक भी बूँद इनके अंदर

'फेविकोल का जोड़ है टूटेगा नहीं'
के स्लोगन को करते हुए चरितार्थ
तकलीफों ने बनाया है ऐसा गठजोड़
कभी एक घूमने निकलती है
दूसरी पुचकारने, हालचाल लेने चली आती है
नहीं छोड़तीं कभी अकेला
और सुनाने लगती हैं ये गाना
'तेरा साथ है तो मुझे क्या कमी है
अंधेरों से भी मिल रही रौशनी है'

और मैं हक्की बक्की
अपने घर को झाड़ने पोंछने की
कवायद में जुट जाती हूँ
इस आस पर
'वो सुबह कभी तो आएगी'

उम्र की दस्तक गुनगुना रही है राग मालकोस...

रविवार, 21 जनवरी 2024

गुलामी गीत

 

अति उन्माद अराजकता को जन्म देता है
समय रख रहा है आधारशिला
कल की, परसों की
बरसों की

इस दौर में
सत्य का घूँट
हलक से उतरा नहीं करता
तुम बोलोगे
मारे जाओगे

न उन्माद का चेहरा होता है
न उन्मादियों का
शताब्दियों ने मौन होकर
समय की स्लेट पर लिखी हैं कहानियाँ
जहाँ हथियार में तब्दील होता आदमी
धर्म और राजनीति की बिसात पर
मोहरा बन करता है नर्तन

समय स्वर्णाक्षरों में
दर्ज कर रहा है
भावनाओं का कोलाहल
जुनून बेपर्दा हो कर रहा है अट्टहास हंगामों से पटी पड़ी है धरती

श्रद्धा भक्ति और आस्था 
वृद्धाओं की कतार में 
सबसे अंत में खड़ी हैं 
टुकुर टुकुर देख रही हैं भव्यता का उन्माद 
जहाँ हाइजैक हो गए हैं भगवान भी 

आँख मूँद अनुसरण करने का दौर गुनगुना रहा है गुलामी गीत!!!

शुक्रवार, 20 अक्टूबर 2023

जिसका न कोई नाम है न चेहरा

 

मुझे नहीं दिखती 

किसी की भूख बेरोजगारी या शापित जीवन 
नहीं दिखता किसी स्त्री पर अत्याचार बलात्कार 
नहीं दिखता बाल शोषण 
नहीं दिखता गरीबी एक अभिशाप का 
बोल्ड अक्षरों में लिखा अदृश्य बोर्ड 
नहीं होते व्यथित अब 

जानते हो क्यों 
सूख चुका है मेरी संवेदनाओं का पानी 
मर चुकी है शर्म लिहाज आँख से 
बेशर्मी का टैग चस्पा किये 
शव के साथ फोटो खींच 
एक सेल्फी लगा 
करते हैं अब दुःख व्यक्त 
यहीं तक हैं मेरी संवेदनाएं 
न न दुखी होकर क्या होगा?
कौन दुखी नहीं यहाँ 
जब से जाना है इस सत्य को 
जीना सीख लिया है मैंने 

विसंगति विकृति और विडंबना 
आजकल दूर से करती हैं हैलो 
ये नया दौर है 
नए लोग हैं 
नयी सोच है 
समय के साथ जो चलता है सुखी रहता है 
कह गए हैं बड़े बूढ़े 
और मैंने गाँठ बाँध ली है उनकी नसीहत 

आप बघारो अपना दर्शन 
दो अपनी नैतिकता की दुहाई 
करो सत्यता का सत्यापन 
लिखो भाईचारे के स्लोगन 
मगर मैंने देखा है 
दुनिया से मिटते हुए मनुष्यता 
फिर किस बिनाह पर चलूँ संग तुम्हारे 
तुम्हारे बनाए मार्ग पर 
जहाँ हर कदम मेरी मान्यताओं का हो चीरहरण 
न हो सांस लेने के लिए ऑक्सीजन 

मुझे जिंदा रहना है अपने लिए 
हाँ तुम कह सकते हो मुझे स्वार्थी 
लेकिन बताओ तो ज़रा 
यहाँ कौन है परमार्थी 
सभी स्व स्वार्थ हेतु जीवित हैं 
किसी को मान चाहिए किसी को सम्मान 
किसी को पद चाहिए किसी को पैसा 
किसी को शौर्य चाहिए किसी को पराक्रम 
किसी को यश चाहिए किसी को क्रश 
किसी को भक्त चाहिए किसी को भगवान् 

ऐसे में यदि मुझे केवल मैं दिखता हूँ 
तो क्या बुरा है 
मैंने मोतियाबिंद का ऑपरेशन करवा लिया है 
अब लेंस से साफ़ देख पाता हूँ 
मैं उस पगडण्डी पर चल रहा हूँ 
जिसके दोनों ओर खाई है 
और पग के नीचे अंगार 
समय के एक ऐसे दौर का गवाह हूँ मैं 
जहाँ वर्चस्व की लड़ाई में 
होम मुझे ही होना पड़ता है 
फिर वो इजरायल हो या हमास 
युक्रेन हो या रूस 
भारत हो या पकिस्तान 
जीवन हो या संघर्ष 
जाति हो या धर्म 

जीवन उधार का नहीं मिला करता जो गंवाने पर भी मुस्कुराता रहूँ 
हाँ, ये मैं हूँ 
आम आदमी 
जिसका न कोई नाम है न चेहरा 
लेकिन आहुति में समिधा मैं ही बना करता हूँ 







सोमवार, 16 अक्टूबर 2023

साधो मन को ओ मनुज!

 

वक्त की आवाज़ कितनी पथरीली नुकीली कंटीली 
तुम जान नहीं पाओगे
कल तक जो तुम सहेजते थे
धरोहरों के बीज
परंपराओं की ओढ़ते थे चादर
धार्मिक कृत्यों
स्वर्ग नरक
पाप पुण्य की अवधारणा से थे बंधे
एक क्षण में हो गए निर्वासित
समस्त कृत्यों से
केवल आँख बंद होने भर से

ये वर्तमान का चेहरा है
जिसमें बेटी हो या बेटा
समय की सुइयों से बंधा
नहीं दे सकता तुम्हें
तुम्हारे मुताबिक श्रद्धांजलि

क्या औचित्य जीवन भर के कर्मकांड का
विचारो ज़रा
ओ जाने वाले
और वो भी जो पीछे बचे हैं
अर्थात समस्त संसार
जिसने जीवन रूपी वैतरणी पार करने को
पकड़ रखी है रूढ़ियों परंपराओं की पूँछ

वास्तव में
यही है समय विचार करने योग्य
न कुछ साथ जाना है न कभी गया
जो करोगे यहीं छोड़ जाओगे
फिर किसलिए इतनी उठापटक?
क्यों कर्मकांड की खेती में खुद को झोंका
क्यों मृत्यु के बाद के कर्मकांडों बिना मुक्ति नहीं
की अवधारणा को पोसते रहे
अब तुम्हें कौन बताए
तुम तो चले गए

आज समय का चेहरा धुँधला गया है
और समयाभाव ने सोख ली हैं तमाम संवेदनाएं
तेरह दिन को फटककर समय के सूप में
एक दिन में सिमटना कोई क्रांति है न भ्रांति
यथार्थ की पगडण्डी पर चलकर ही मिलेंगे जीवन और मृत्यु के वास्तविक अर्थ
क्योंकि
न तेरह दिन में मुक्ति का उद्घोष कोई कृष्ण करता है
और न ही एक दिन में

बस मन का बच्चा ही है
जो बहलता है
कभी एक दिन में तो कभी तेरह दिन में

साधो मन को ओ मनुज!


 

शुक्रवार, 21 जुलाई 2023

बनो स्त्रियों रणचंडी बनो

 


बनो स्त्रियों रणचंडी बनो
काली खप्पर वाली बनो
महिषासुर मर्दिनी बनो
किन्तु चुप मत रहो
समय की प्रचंड पुकार है
धरा पर मचा हाहाकार है

खामोश चीत्कारों से ही सुलगा करता है धरती का सीना,
ये मंद मंद सुगबुगाहटें कहर बन लील लें वजूद
उससे पहले
एक चिंगारी बने मशाल
उठाओ शिव का त्रिशूल
करो तांडव
करो संहार व्यभिचारी सोच का, व्यभिचारियों का
बता दो अच्छे दिनों का सपना दिखाने वालों को
नहीं मिलेगी पनाह किसी को भी
ब्रह्माण्ड के अंतिम छोर पर भी
नहीं बख्शेंगी किसी को भी
सोयी शेरनियां जागने पर बहुत खूँखार हुआ करती हैं

कहीं थाम ने लें समाज और सत्ता की कमान
हो जाए इन्हीं का वर्चस्व कायम
वो वक्त आये
उससे पहले हो जाओ

सावधान
सावधान
सावधान

स्त्रियों की चुनौती से तो थरथरा उठता है समस्त ब्रह्माण्ड - वाकिफ हो न 


#मणिपुर 

शनिवार, 1 जुलाई 2023

चिंतातुर कवि बैठे हैं

 चिंतातुर कवि बैठे हैं

सोचते हुए
ये कहाँ आ गए हम
अब जाएंगे कहाँ
कि आज सँवरा नहीं
फिर कल कैसे संवरेगा
किस चिड़िया के हाथों भेजें संदेसा
जो गगन हो जाये थोड़ा और नीला
कि बाधित न हो उड़ान पंछियों की
कोयल की कुहू कुहू
पपीहे की पीहू पीहू से
होती थी जब सुबहें
वो सुबह कब आएगी
कब सूरज शरमा कर
बादलों के आगोश में सिमट जाएगा
हर मन केवल एक ही फसाना गायेगा
प्रतीक्षा की पाँखें कुम्हला न जाएं
कैसे इस दौर से मुक्ति पाएं
जहाँ राम और रहीम बेबसी की कैद में
एक दूजे को केवल देखने को विवश हैं
कैसे बोलें, प्रश्न मुँह बाए खड़ा है
कोई होता सुनने वाला
तो सुनाते हाल-ए-दिल
जब बदला जाता है इतिहास
तब समय की मूक आवाज़ के क्रंदन से ठहर जाती है पृथ्वी अपनी धुरी पर
और हो जाते हैं कवि चिंतित
कौन सी लिखें कविता
जो हो एक नया सवेरा...



Yatish Kumar जी की वाल पर ये फोटो देखी। फ़ोटो देख पसंद की और आगे बढ़ने लगी किंतु उनके भावों ने जकड़ लिया और इन भावों का जन्म हो गया - गगन गिल जी व् यतीश कुमार जी

मंगलवार, 2 मई 2023

एक औरत बदहवास सी

 

एक औरत बदहवास सी
सड़कों पर रोती डोल रही है
जाने किस गम की परछाईं से जूझ रही है
पूछने पर केवल इतना कहती है
जाने किस जन्म की उधारियाँ हैं
चुकती ही नहीं
ऐसा भी नहीं चुकाते न हों
जितनी चुकाई
मूलधन और ब्याज बढ़ते ही गए
गमों के दौर पहले से ज्यादा मुखर हुए
अब न आस बची न रौशनी की किरण
रूह खलिश का रेगिस्तान बनी
ढूँढ़ रही है दो बूँद नीर

अपनी लाश अपने कंधे पर ढोती औरत के पास
आँसुओं की थाती के सिवा होता ही क्या है
कहा और आगे बढ़ गयी

दुनिया चल रही थी
दुनिया चलती रहेगी
औरत इसी प्रकार बदहवास हो
सड़कों पर रोती हुई डोलती रहेगी
कोई नहीं पूछेगा उसके गम की वजह
पूछ लिया तब भी
ठहरायेगा उसे ही दोषी
नियति के पिस्सू काट रहे हैं
और वो है कि मरती भी नहीं
स्वर्णिम अक्षरों में
उम्रकैद लिखा है आज भी उसके माथे पर
फिर वो आज की जागरूक कही जाने वाली स्त्री ही क्यों न हो



शुक्रवार, 6 जनवरी 2023

मंगलाचरण

 

मैंने अक्सर छोड़ा हर वो रास्ता
जिससे दूसरे को तकलीफ हुई
छवि मेरी यूँ बनती बिगड़ती रही
क्योंकि
छवियाँ बनती ही टूटने के लिये हैं

पलायन नहीं था ये और न होगा
बस फितरत है
खुद को बदलने की
एक नयी राह पर चलने की
अकेले, बिल्कुल अकेले
कि
नहीं निभाए जाते झूठ फरेब के रिश्ते
कि
पेट में उगी दाढ़ियों से नहीं बना सकती द्वार पर तोरण
कि
तुम्हारे गणित से नहीं मिल सकता कभी मेरा गणित

तुम्हारी भीड़ से भरा है हर गली मोहल्ला हर चौराहा
मुझे नहीं चाहिए तुम्हारे मध्य अपने लिये स्थान
मैं बनाती हूँ हर बार अपने लिये अपना स्थान
पाती हूँ एक नया मुकाम
और तुम हर बार
चेहरे बदल काटते हो मेरी राहें
सिलसिला है कि खत्म ही नहीं होता

मैंने न सड़क पर चलना छोड़ा है और न ही पकड़ी है पगडंडी
मेरी अपनी गति है और अपना लक्ष्य
चयनित मार्ग ही तय करते हैं अक्सर मंज़िलें मगर
तुम काटोगे जितनी बार मेरे हाथ
बंद करोगे जितनी बार द्वार
मंज़िलें स्वयं बनाएंगी मेरे लिये नयी राहें
जाना है जब से
मुस्कुराहट के फूल उछाल देती हूँ आसमाँ की तरफ

ये मेरी यात्रा है
अंतिम पड़ाव नहीं
जो दो दो हाथ करने पर निर्धारित हो जीत हार
जीने का हुनर जरूरी नहीं मरकर ही सीखा जाए
मैंने यथार्थ के गिट्टों से जीती हैं बाजियाँ
और इस बार भी विदाईगीत मुझे ही गाना है
नियति ने पकड़ी हुई है मेरी ऊँगली
तय कर रही है दिशा
हर बार की तरह
मुड़ना है फिर मुझे एक नए मोड़ पर
एक नयी यात्रा का मुसाफिर बन

सुप्रभात से आरम्भ दिन का अंत शुभरात्रि ही हुआ करता है एक नए आरम्भ हेतु
मंगलाचरण इसे ही कहते हैं

सोमवार, 14 नवंबर 2022

धधकती ज्वाला






चाहत की बाँझ कोख


 

काश! मुझमें मोहब्बत बची होती
कुछ तुझे दे देती कुछ मैं जी लेती
जैसे खारे समंदर में गुलाब नहीं खिला करते जानाँ
वैसे ही आँखों में उगी नमी से नहीं की जा सकतीं दस्तकारियाँ
सीने के तूफान ने अश्रुओं से किया है प्रणय
अब जुगलबंदी पर नृत्यरत है उम्र की कस्तूरी
बताओ अब
किस सीप से मोती निकाल
करूँ मोहब्बत का श्रृंगार
मैंने अंतिम क्षण तक तुझे
न देखने की
न मिलने की
न चाहने की
कसम खायी है
चाहत की बाँझ कोख में नहीं रोपे जा सकते कभी बीज मोहब्बत के

शुक्रवार, 21 अक्टूबर 2022

स्त्री की जुबान

 

1
मैंने खुद से प्यार किया और जी उठी
अब तुम ढूँढते रहो स्त्री होने के अनेक अर्थ शब्दकोशों में
देते रहो अनेक परिभाषाएं
करते रहो व्याख्याएं
तुम्हारी स्वप्निल दुनिया से परे
मैंने पा लिया है अपने होने का अर्थ

2
मेरी पहली छलांग से तुम्हारी आँखों की गोटियाँ बाहर निकल आयीं
सोचो ज़रा
आखिरी छलांग से नापूँगी कौन सा ब्रह्मांड

3
समय की धारा ने बदल लिया है चेहरा
दे रही है एकमुश्त मुझे मेरा हिस्सा
तो
बदहवासी की छाया से क्यों ग्रसित है मुख तुम्हारा
प्रकृति स्वयमेव लाती है संतुलन सृष्टि में
जो मेरा था मुझे मिल रहा है


4
तुम्हारी एक भृकुटि से थरथराता था सारा जहान
आज मेरी एक फूँक से हिल जाता है तुम्हारा आसमान
वक्त वक्त की बात है बस


5
तिर्यक रेखाओं के गणित जान गयी हूँ
जब से
तुम्हारी आँख की किरकिरी बन गयी हूँ तब से
है साहस तो उठाओ गांडीव
चढ़ाओ प्रत्यंचा
भेदो मेरे अंतरिक्ष को
मैंने नहीं खींची है कोई लक्ष्मण रेखा जिसे तुम लांघ न सको
एक स्त्री की जुबान है ये




मंगलवार, 16 अगस्त 2022

लठैत - बकैत

 


शर्मा जी: नमस्कार वर्मा जी

 
वर्मा जी: नमस्कार शर्मा जी

 
शर्मा जी: कहाँ थे इतने दिनों से?


वर्मा जी: हैं तो यहीं लेकिन अदृश्य हैं जी

 
शर्मा जी : वह क्यों? क्या आप भी भगवान बन गए हैं?


वर्मा जी: अब हमें कौन पढता है जी, तो अदृश्य ही रहेंगे न

 
शर्मा जी: अजी नहीं आप तो छाये हुए हैं.

 
वर्मा जी: आप हकीकत नहीं जानते वर्ना ऐसा न कहते. आज कोई किसी को पढना ही नहीं चाहता. पाठक न जाने कहाँ गायब हो गए हैं? लेखकों की अलग रामलीला चलती रहती है ऐसे में हम जैसों को अदृश्य होना ही पड़ता है जिनका न कोई गढ़ है न मठ, जिनके न कोई लठैत हैं न बकैत. 

शर्मा जी: अजी छोडिये भी ये रोना.पाठकों की कमी के दौर में लेखक ही पाठक हैं आज. वे भी बंटे हुए हैं. सबके अपने मठ गढ़ विचारधाराएँ हैं. जब इतने विभक्त होंगे तब एक लेखक को कौन पढ़ेगा यह प्रश्न उठता है. सच्चा पाठक आज के दौर में दुर्लभ होता जा रहा है. यदि गलती से कोई सच्चा पाठक है भी और यदि उसने कुछ कटु कह दिया तो वह लेखक को स्वीकार्य नहीं. वहीँ एक लेखक यदि दूसरे लेखक के लेखन के विषय में कुछ कह दे तो भी तलाक निश्चित है. ऐसे में गिने चुने ही लेखक बचते हैं जो दूसरे लेखकों को पढ़ते हैं.

 सबके पास अपना एक दोस्तों का गुट होता है, वही पढ़ते हैं, वही सराहते हैं और आगे बढ़ जाते हैं. कुछ अन्य ग्रुप के लेखक यदि किसी लेखक को पढ़ते हैं तभी वह लेखक भी उस लेखक को पढता है यानि आदान प्रदान का दौर है ये जहाँ यदि आप किसी को पढेंगे तभी वह आपको पढ़ेगा. अब होता यह है कि जैसे ही किसी लेखक की कोई नयी किताब आती है बधाइयों का तो तांता लग जाता है लेकिन किताब पढने वालों का या तो अकाल पड़ जाता है या फिर उन पर पाला पड़ जाता है जब कोई यदि पाठक हो, वह भी लेखन के क्षेत्र में अपनी टांग अड़ा दे. सब एक दूसरे तक अपनी किताब की सूचना पहुंचाने में लग जाते हैं. कुछ जो पढना चाहते हैं खरीद लेते हैं, पढ़ भी लेते हैं लेकिन उस पर कुछ कहते नहीं क्योंकि उन्हें अपने गुट से निष्कासित नहीं होना होता. वहीँ कुछ हाँ जी हाँ जी कहते हुए उसी गाँव में रहने लगते हैं लेकिन न खरीदते न पढ़ते. अब ऐसे में शिकायतों का दौर अपने चरम पर रहता है. 

कुल मिलाकर इतना सब कहने का बस यही हेतु है यदि आप स्वयं को पढवाना चाहते हैं, आप भी लेखक हैं तो आपको भी पाठक बनना होगा, औरों को पढना होगा अन्यथा एक दिन सभी अपनी अपनी ढपली और अपना अपना राग बजाते रह जायेंगे क्योंकि मूर्ख यहाँ कोई नहीं है. सभी रोटी खाते हैं तो इतनी अक्ल तो रखते ही हैं कि आप हमें पढेंगे तभी हम आपको पढेंगे, आप हम पर लिखेंगे तभी हम आप पर लिखेंगे और यदि गलती से आपने किसी किताब पर कुछ न कहा तो हम आपका बहिष्कार कर देंगे फिर आप चाहे कितना ही अच्छा लिखते हों, सारे पुरस्कारों सम्मानों से आपका दामन भरा हो. 

बाकी कुछ ऐसे भी हैं जो स्वयं लेखक होते हैं और बेचारे इस आस पर दूसरों को पढ़ते हैं शायद वो भी हमें पढ़े और दो शब्द हम पर कहे लेकिन उसके सभी प्रयत्न व्यर्थ चले जाते हैं और वे बेचारे आसमान के तारे गिनते ही रह जाते हैं. 

जब ऐसा लेखन का दौर चल रहा हो वहां साहित्य की गति की किसे चिंता. पहले अपनी चिंता कर ली जाए और जीते जी मोक्ष प्राप्त कर लिया जाए, उसके बाद देख लिया जाएगा साहित्य किस चिड़िया का नाम है. आज का दौर नयी भाषा, नए शब्द, नयी विधा गढ़ने का दौर है इसलिए जो भी लिखेंगे सब मनवा लेंगे, स्वीकार करवा लेंगे, वे जानते हैं. बस पहले अपनी गोटी सेट कर ली जाए फिर तो पाँचों घी में ही रहेंगी इसलिए बस यही अंतिम पहलू बचा है जिस पर आज बुद्धिजीवी काम करने में जुटे हैं वर्मा जी.

शर्मा जी: ओह! यानि अब हमें भी इस मार्ग पर चलना पड़ेगा?

वर्मा जी: यह तो आप पर निर्भर करता है कछुआ रहना है या खरगोश. बाकी इस डगर पर चलने के लिए अब आप सोचिये आपको क्या बनना है केवल लेखक या साथ में पाठक भी ...इसलिए जो हाथ में हैं उन्हें बचा सको तो बचा लो. 


डिस्क्लेमर: पिछले कई महीनों से बहुत से लेखकों से बात हुई और उनकी पीड़ा जानी समझी तो सोचा उस पर कुछ प्रकाश डाल दिया जाए संभव है किसी का मार्गदर्शन हो, किसी को राहत मिले और कोई यह पढ़कर और खफा हो ले लेकिन अपुन क्या करें जी साहित्य जगत की सेहत दुरुस्त करने के लिए लेखनी कभी कभी पंगे लेने से चूकती ही नहीं - इसे भी ऊँगल करने में ही मज़ा आता है - हाँ नहीं तो 😜😜😎😎

मंगलवार, 26 जुलाई 2022

नए सफ़र की मुसाफिर बन ...

 


मेरे सीने में कुछ घुटे हुए अल्फाज़ हैं जिनकी ऐंठन से तड़क रही हूँ मैं
मगर मेघ हैं कि बरसते ही नहीं,
वो जो कुरेद रहा है जमी हुई परतों को
वो जो छील रहा है त्वचा पर पसरे अवसाद को
जाने कहाँ ले जाएगा, किस रंग में रंगेगा चूनर
मेरा हंस अकेला उड़ जाएगा
और मैं हो जाऊँगी असीम ... पूर्णतः मुक्त

ॐ शांति ॐ शांति ॐ शांति कहने भर से छूट जायेगा हर बंधन
उस पार से आती आवाजें ही करेंगी मेरा स्वीकार और सबका परिहार
ये अंतिम इबादत का समय है
रूकती हुई धडकनों की बांसुरी से अब नहीं बजेगी कोई धुन
घुटते गले से नहीं उचारा जाता राम नाम
बस आँखों के ठहरने भर से हो जाएगा सफल मुकम्मल

बहुत गा लिए शोकगीत
बस गाओ अब मुक्ति गीत
देह साधना पूर्णता की ओर अग्रसित है

तुम्हारा रुदन मेरी अंतिम यात्रा की अंतिम परिणति है
और मैं बैठी हूँ पुष्पक विमान में
नए सफ़र की मुसाफिर बन ...


 

रविवार, 24 जुलाई 2022

कलर ऑफ लव

 

सादर सूचनार्थ: 

भारतीय ज्ञानपीठ-वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित मेरे उपन्यास 'कलर ऑफ लव' का दूसरा संस्करण अब अमेज़न पर उपलब्ध है। नीचे दिए लिंक से आप किताब मँगवा सकते हैं और अपनी अमूल्य प्रतिक्रिया से अवगत भी करवा सकते हैं :

https://www.amazon.in/dp/9355182597?ref=myi_title_dp


गुरुवार, 30 जून 2022

इश्क मैं क्यों करया...

 


खामोशी के पग में खामोशी के घुंघरू
अब न मोहब्बत की आहट पर खनकते हैं
ये वो बिखरे दरिया हैं जो खामोशियों मे ही भटकते हैं

तुम ले गए इक उम्र चुराकर मुझसे
अब मलाल की उम्र तक जीना है मुझको
कि नाकाम मोहब्बत का फलसफा कौन लिखता है

अब न कोई खुदा बचा न फ़रियाद
बस एक उदासी का जंगल है
गले लग रोने को न सागर है न साहिल

इश्क मैं क्यों करया...

शनिवार, 21 मई 2022

अमर होने के लिए जरूरी नहीं अमृत ही पीया जाये

आह !मेरी रोटियाँ अब सिंकती ही नही 
आदत जो हो गयी है तुम्हारे अंगारों की 
हे! एक अंगार तो और जलाओ 
अंगीठी थोड़ी और सुलगाओ 
ज़रा फूंक तो मारो फूंकनी से 
ताकि कुछ तो और तपिश बढे 
देखो तो ज़रा रोटी मेरी अभी कच्ची है ……
पकने के लिये मन की चंचलता पर कुछ ज़ख्मों का होना जरूरी होता है ……देव मेरे!

अमर होने के लिए जरूरी नहीं अमृत ही पीया जाये

बुधवार, 2 मार्च 2022

शाश्वत किन्तु अभिशप्त सत्य

 

वास्तव में हम जंगली ही हैं
लड़ना हमारी फितरत रही
'सभ्य' कहा जाना
हमारा ओढा हुआ नकाब है

खिल जाती हैं हमारी बांछें
जब भी होता है मानवता का ह्रास
युद्धोन्माद से ग्रस्त जेहन दरअसल क्रूरता और अमानवीयता के गरम गोश्त खाकर नृत्यरत हैं
अट्टहास से कम्पित है धरती का सीना

प्रेम के विभ्रम रचते
हम इक्कीसवीं सदी के वासी
दे रहे हैं एक नयी सभ्यता को जन्म
जहाँ आँसू, दुःख, पीड़ा, क्षोभ शब्द किये जा चुके हैं खारिज शब्दकोष से
यही है आज के समय की अवसरवादी तस्वीर

जद में आने वाले बालक हों, जवान या बूढ़े
क्षत विक्षत चेहरे
बिखरे अंग प्रत्यंग साक्षी हैं
लालसा के दैत्य ने लील लिया है मासूमियत को
लगा दिया है ग्रहण
एक चलते फिरते हँसते खेलते खुशहाल देश को
तबाही के निशानों के मध्य 
देश का नाम मायने कहाँ रखता है? 

उजड़े दयार कैसे लिखेंगे कहानी
जहाँ बह रहा है खून का दरिया
किस माँ के सीने को बनायेंगे कागज़ 
कैसे बनायेंगे लहू को स्याही
किस कलम को बनायेंगे हथियार
जब बित्ते भर जमीन भी न बची हो खड़े होने को
जब कहानी लिखने को बचा न हो जहाँ कोई 'इंसान'
चीखों से दहल रहा हो जहाँ आसमान
और आंसुओं के नमक से चाक हो धरती का सीना
वहाँ के इतिहास को किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं

देवासुर संग्राम हो या महाभारत का युद्ध
प्रथम विश्व युद्ध हो या द्वितीय
हो तृतीय, चतुर्थ या पंचम 
हर दौर में खोज ही लेते हैं अपनी प्रासंगिकता
आज सर्वशक्तिशाली होने की हवस में बिला गयी मानवता
वास्तव में हम जंगली ही हैं
लड़ना हमारी फितरत रही
यही है शाश्वत किन्तु अभिशप्त सत्य
इस भूमंडल का

मंगलवार, 22 फ़रवरी 2022

अब पंजाबी में

सिन्धी में कविता के अनुवाद के बाद अब पंजाबी में "प्रतिमान पत्रिका" 

में 
मेरी कविता " हाँ ......बुरी औरत हूँ मैं " का अनुवादप्रकाशित हुआ है 

सूचना तो अमरजीत कौंके जी ने पहले ही दे दी थी मगर मन सही नहीं 

था इसलिए नहीं लगा पायी 
.........हार्दिक आभार‪#‎amarjeetkaunke
 ji 



सोमवार, 4 अक्टूबर 2021

कलर ऑफ़ लव

 सूचनार्थ:

भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित मेरा नया उपन्यास "कलर ऑफ़ लव" जो प्रकृति प्रदत्त विशेष गुण पर केन्द्रित है, वह विशेषता क्या है, जानने के लिए किताब पढ़ें.
संपर्क सूत्र: 9350536020, 011- 24626467, 011- 41523423
आवरण : प्रिय अनुप्रिया के हाथों का जादू 🙂 🙂

बुधवार, 4 अगस्त 2021

कांस्य प्रतिमा

 शब्दविहीन मैं किस भाषा में बोलूँ अर्थ संप्रेषित हो जाएँ

रसहीन मैं
किस शर्करा में घुलूं
स्वाद जुबाँ पर रुक जाए

रंगहीन मैं
किस रंग में ढलूँ
केवल एक रंग ही बच जाए

गाढे वक्त के एकालाप से लिखी कांस्य प्रतिमा हूँ मैं