विदाई की अन्तिम बेला में
दरस को नैना तरस रहे हैं
ज्यों चंदा को चकोर तरसे है
आरती का थाल सजा है
प्रेम का दीपक यूँ जला है
ज्यों दीपक राग गाया गया हो
२) पावस ऋतु भी छा गई है
मेघ मल्हार गा रहे हैं
प्रियतम तुमको बुला रहे हैं
ह्रदय की किवाडिया खडका रहे हैं
विरह अगन में दहका रहे हैं
करोड़ों सूर्यों की दाहकता
ह्रदय को धधका रही है
प्रेम अगन में झुलसा रही है
देवराज बरसाएं नीर कितना ही
फिर भी ना शीतलता आ रही है
३) हे प्राणाधार
शरद ऋतु भी आ गई है
शरतचंद्र की चंचल चन्द्रकिरण भी
प्रिय वियोग में धधकती
अन्तःपुर की ज्वाला को
न हुलसा पा रही है
ह्रदय में अगन लगा रही है
४) ऋतुराज की मादकता भी छा गई है
मंद मंद बयार भी बह रही है
समीर की मोहकता भी
ना देह को भा रही है
चंपा चमेली की महक भी
प्रिय बिछोह को न सहला पा रही है
५) मेरे जीवनाधार
पतझड़ ऐसे ठहर गया है
खेत को जैसे पाला पड़ा हो
झर झर अश्रु बरस रहे हैं
जैसे शाख से पत्ते झड़ रहे हैं
उपवन सारे सूख गए हैं
पिय वियोग में डूब गए हैं
मेरी वेदना को समझ गए हैं
साथ देने को मचल गए हैं
जीवन ठूंठ सा बन गया है
हर श्रृंगार जैसे रूठ गया है
६) इंतज़ार मेरा पथरा गया है
विरहाग्नि में देह भी न जले है
क्यूंकि आत्मा तो तुम संग चले है
बिन आत्मा की देह में
वेदना का संसार पले है
७) मेरे विरह तप से नरोत्तम
पथ आलोकित होगा तुम्हारा
पोरुष को संबल मिलेगा
भात्री - सेवा को समर्पित तुम
पथ बाधा न बन पाऊँगी
अर्धांगिनी हूँ तुम्हारी
अपना फ़र्ज़ निभाउँगी
मेरी ओर न निहारना कभी
ख्याल भी ह्रदय में न लाना कभी
इंतज़ार का दीपक हथेली पर लिए
देहरी पर बैठी मिलूंगी
प्रीत के दीपक को मैं
अश्रुओं का घृत दूंगी
दीपक मेरी आस का है ये
मेरे प्रेम और विश्वास का है ये
कभी न बुझने पायेगा
इक दिन तुमको लौटा लायेगा,लौटा लायेगा .........................
प्रियतम तुमको बुला रहे हैं
ह्रदय की किवाडिया खडका रहे हैं
विरह अगन में दहका रहे हैं
करोड़ों सूर्यों की दाहकता
ह्रदय को धधका रही है
प्रेम अगन में झुलसा रही है
देवराज बरसाएं नीर कितना ही
फिर भी ना शीतलता आ रही है
३) हे प्राणाधार
शरद ऋतु भी आ गई है
शरतचंद्र की चंचल चन्द्रकिरण भी
प्रिय वियोग में धधकती
अन्तःपुर की ज्वाला को
न हुलसा पा रही है
ह्रदय में अगन लगा रही है
४) ऋतुराज की मादकता भी छा गई है
मंद मंद बयार भी बह रही है
समीर की मोहकता भी
ना देह को भा रही है
चंपा चमेली की महक भी
प्रिय बिछोह को न सहला पा रही है
५) मेरे जीवनाधार
पतझड़ ऐसे ठहर गया है
खेत को जैसे पाला पड़ा हो
झर झर अश्रु बरस रहे हैं
जैसे शाख से पत्ते झड़ रहे हैं
उपवन सारे सूख गए हैं
पिय वियोग में डूब गए हैं
मेरी वेदना को समझ गए हैं
साथ देने को मचल गए हैं
जीवन ठूंठ सा बन गया है
हर श्रृंगार जैसे रूठ गया है
६) इंतज़ार मेरा पथरा गया है
विरहाग्नि में देह भी न जले है
क्यूंकि आत्मा तो तुम संग चले है
बिन आत्मा की देह में
वेदना का संसार पले है
७) मेरे विरह तप से नरोत्तम
पथ आलोकित होगा तुम्हारा
पोरुष को संबल मिलेगा
भात्री - सेवा को समर्पित तुम
पथ बाधा न बन पाऊँगी
अर्धांगिनी हूँ तुम्हारी
अपना फ़र्ज़ निभाउँगी
मेरी ओर न निहारना कभी
ख्याल भी ह्रदय में न लाना कभी
इंतज़ार का दीपक हथेली पर लिए
देहरी पर बैठी मिलूंगी
प्रीत के दीपक को मैं
अश्रुओं का घृत दूंगी
दीपक मेरी आस का है ये
मेरे प्रेम और विश्वास का है ये
कभी न बुझने पायेगा
इक दिन तुमको लौटा लायेगा,लौटा लायेगा .........................
44 टिप्पणियां:
उर्मिला की विरह वेदना को आपने बेहद खूबसूरती से यहाँ प्रस्तुत किया है ...अच्छी लगी रचना
बहुत ही सुन्दर शब्दों में व्यक्त एक बेहतरीन रचना आभार.
उर्मिला का चरित्र एक ऐसा चरित्र है जिसकी जितनी प्रशन्सा की जाये कम है, भरत के बाद त्याग की प्रतिमूर्ति के रूप मे जिस सर्वोत्तम चरित्र का वर्णन यदि रामचरितमानस और रामायण मे आता है तो वह उर्मिला का चरित्र है जिसने अपने पति को चौदह साल तक भाई की सेवा मे समर्पित कर विरह अग्नि मे धधकती रही, एक स्त्री के विरह को अन्दर तक अनुभूत किया और त्याग का उत्क्रिष्ट आदर्श प्रस्तुत किया,
लेकिन रामचरित मानस मे तुलसी दास जी इस सर्वोत्तम और नमन करने योग्य पात्र का यशोगान उस रूप मे नही कर पाये जिनकी वो हकदार थी लेकिन इसकी प्रतिपूर्ति के रूप मे मैथिलीशरण गुप्त जी ने साकेत लिखकर जैसे इस कमी की पूर्ति कर दी.
मेरे जीवनाधार
पतझड़ ऐसे ठहर गया है
बहुत सुन्दर
वन्दना जी, आपने उरिला का विरह वर्णन अत्यन्त सहजता से सुन्दर वर्णन किया है-
मेरे विरह तप से नरोत्तम
पथ आलोकित होगा तुम्हारा
पोरुष को संबल मिलेगा
भात्री - सेवा को समर्पित तुम
पथ बाधा न बन पाऊँगी
सचमुच एक स्त्री के दोहरे दर्द की अभिव्यक्त करती अन्तिम पेराग्राफ मे जैसे सब कुछ कह दिया है.
- विरह वेदना को झेलती एक स्त्री कैसे त्याग का उच्चतम आदर्श प्रस्तुत करती है.अपने पति के भाई के लिये, एक सयुक्त परिवार की एकता को सुनिश्चित करने के लिये,सीता को इस कष्ट मे अकेला महसूस ना हो यह बताने के लिये विरह के दर्द को हसते हुये चौदह साल तक बर्दाश्त की.
सचमुच भारतीय स्त्री के उच्चतम आदर्श को रेखान्कित करती रामचरित मानस की यह स्त्री पात्र ना केवल भारत के लिये वन्दनीय है अपितु समूचे सन्सार की किसी भी रचना मे ऐसे सर्वोत्तम पात्र की कल्पना किसी भी ना तो कवि की किसी रचना मे मिलेगी और ना ही दुनिया के किसी भी धर्म ग्रन्थ मे.
मै ना केवल इस पात्र को नमन करता हू बल्कि इस सुन्दर चरित्र पर कविता लिखने के लिये आपको साधुवाद देता हू.
मेरी ढेरो बधाईया स्वीकार करे.
राकेश
शरतचंद्र की चंचल चन्द्रकिरण भी वियोग में.........वाह,बहुत खूबसूरत प्रस्तुतीकरण
वंदना जी,
आपका यह विरह गीत सुदर लगा. विरह की ज्वाला दग्ध करनेवाली होती है. आपकी इस रचना को पढ़कर मुझे कवि गंग का एक छंद याद आ रहा है, सुनेंगी ?
बैठी थी सखिन संग, पिय को गवन सुन्यो,
सुख के समूह में वियोग आग भरकी.
गंग कहैं त्रिविध सुगंध लै पवन बह्यो,
लागत ही ताके तन भई बिथा जर की .
प्यारी की परसि पौन गयो मानसर पहँ,
लागत ही औरे गति भई मानसर की .
जलचर जरे औ सवार जरि छार भयो,
जल जरि गयो पंक सूख्यो भूमि दरकी..
आपकी इस रचना में दग्ध करने वाली ज्वाला के अतिरिक्त कवयित्री ने आशा का दीपक भी आंसुओं के घृत से जला रखा है... सुन्दर रचना ! साधुवाद...
बेहद खूबसूरत रचना........
"इंतज़ार का दीपक हथेली पर लिए
देहरी पर बैठी मिलूंगी
प्रीत के दीपक को मैं
अश्रुओं का घृत दूंगी
दीपक मेरी आस का है ये
मेरे प्रेम और विश्वास का है ये
कभी न बुझने पायेगा
इक दिन तुमको लौटा लायेगा,लौटा लायेगा ........................."
बहुत सुन्दर।
बधाई!
एक प्रेमिका के प्रेम की पराकास्ठा और विरह को जिस तरह आप ने उर्मिला के माध्यम से व्यक्त किया है ह्रदय द्रवित हो जाता है मै नत मस्तक हूँ आप की इस रचना के लिए
सादर
प्रवीण पथिक
9971969084
BAHUT HI SUNDARTA SE AAPANE URMILA KE WIRAH WEDANA KO ABHIWYAKTA KIYA HAI AAPANE .........AAPAKI LEKHANA KE DUSARA PAHALU DEKHANE KO MILA .....BAHUT BAHUT SAADHUWAAD
vandana ji, virah vedna ko bahut hisunder shabdon men kareene se aur uttam bhavabhivyakti ke saath sanjoya/vyakt kiya hai, dheron badhaai.
वाह वदंना जी क्या बात है। बडी खूबसूरती से विरह वेदना को कह दिया। कुछ अलग सी भी लगी यह रचना। सच्ची बहुत अच्छा लिखा है।
man ko chu gai aap ki ye pankitya
bhut hi ghari se likha hai aap ne
keep writting
aap ki agli rachna ka intzar rahega
उर्मिला के दर्द को जो जुबां आपने दी है
वो कमाल की है. निश्चय ही इस पात्र के दुःख को खुद महसूस किये बिना कविता लिखना असंभव था...
लेकिन आपने ये संभव कर दिखाया...आपको बहुत
मुबारक......डॉ.अमरजीत कौंके
उर्मिला के बारेमे जब कभी सोचती हूँ ,तो लगता है , इसने क्या गुनाह किया जो सज़ा पायी ..? अंतमे यही कहा जा सकता है ,' कथा किसी की व्यथा किसी और को ..!' यही बात भरत की पत्नी के साथ हुई...श्राप दिया श्रवण कुमार ने राजा दशरथ को...और भुगता किस किस ने..!
उर्मिला के बारेमे जब कभी सोचती हूँ ,तो लगता है , इसने क्या गुनाह किया जो सज़ा पायी ..? अंतमे यही कहा जा सकता है ,' कथा किसी की व्यथा किसी और को ..!'एक झुलसती हुई आग की तपन,जो भी उसके करीब से गुज़रेगा...महसूस करेगा!
har ek mausam accha laga ...
..viyog itna bua hota hai...
:(
vaastav main....
" हे प्राणाधार
शरद ऋतु भी आ गई है
शरतचंद्र की चंचल चन्द्रकिरण भी
प्रिय वियोग में धधकती
अन्तःपुर की ज्वाला को
न हुलसा पा रही है
ह्रदय में अगन लगा रही है"
app accha likhti hain...
...bahut accha.
lakshman tum kahan ho?
mujhe kyun na le gaye apne saath?
वंदना जी बहुत उत्कृष्ट रचना है
---
'चर्चा' पर पढ़िए: पाणिनि – व्याकरण के सर्वश्रेष्ठ रचनाकार
लाजवाब विरह वर्णन. जितनी भी तारीफ की जाये शायद कम ही होगी
हार्दिक बधाई स्वीकार करें.
करवा चौथ की याद आई
विरह अगन में दहका रहे हैं
करोड़ों सूर्यों की दाहकता
ह्रदय को धधका रही है
प्रेम अगन में झुलसा रही है
देवराज बरसाएं नीर कितना ही
फिर भी ना शीतलता आ रही है
अति बेहतरीन रचना
वन्दनाजी
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उर्मिला की विरह वेदना
---------------
इस सम्बन्ध मे मुझे गहरा ज्ञान तो नही है
पर शब्दो मे अपनापन लगा, जो मन के अन्दर तक उतर गऍ व मुझे यह कमेन्ट करने को मजबूर कर दिया की मै आपकी इस रचना की दाद दू, प्रससा करु।
सुन्दर * * * * *
आभार
हे! प्रभु यह तेरापन्थ
मुम्बई-टाईगर
bahot hi adbhut poems hai apki
उर्मिला के बहाने विरह वेदना का ज्वार !
बहुत सुन्दर
मेरे विरह तप से नरोत्तम
पथ आलोकित होगा तुम्हारा
पोरुष को संबल मिलेगा
भात्री - सेवा को समर्पित तुम
पथ वाधा न बन पाऊँगी अर्धाँगिनी हूँ तुम्हारी लाजवाब अभिव्यक्ति है । विरह भी कितनी असह होती है बहुत सुन्दर भाव हैं बधाइ
बहुत अच्छा लगता है तुम्हें पढना शुभकामनायें
बिन आत्मा की देह में
वेदना का संसार पले है
उर्मिला नारी व्यथा की कथा रही है. आज आपने उस व्यथा को अपने शब्द बखूबी प्रदान किया है.
बहुत सुन्दर
बधाई
क्योंकि आत्मा तो तुम संग चले है
बिन आत्मा की देह में
वेदना का संसार पले है ....
वेदना के संसार का यथोचित,
विस्तृत, और सार्थक वर्णन .....
और फिर आपकी लेखनी का सम्मोहन
सब कुछ बहुत ही उत्तम बन पडा है
बधाई
---मुफलिस---
sabne itni tareef ki hai ... ab kahne ko kuch bacha nahi......nodoubt racna to acchi hai..par bharteey stri ki parmparagat chhavi hi dikhati hai.....kya khoob ho jo urmila antas mein uth rahe sawal jamane se pooch le :-).....achchi rachna ke liye badhai
behad achi rachna
rachna bhav ke star par prabhavshali hai par shilp ko abhi aur manjne ki zaroorat hai.
मेरा नाम उर्मी है और घर में मुझे प्यार से बबली कहते हैं! उर्मी ने उर्मिला जी की विरह वेदना को पढ़ा ! बहुत ही सुंदर रूप से आपने प्रस्तुत किया है जो काबिले तारीफ है!
Man ko choo jaane waale bhaav.
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
सुन्दर रचना....बहुत बहुत बधाई....
विरह अग्नि से जलकर ही प्यार पुख्ता होता रहता है ....
kyaa baat hai.....urmila kee vyathaa ko in shabdon men ukerne kee....!!
bahut hi shasakht kavyabhivyakti...
Badhai..
main kya kahun , der ho gayi aate aate aapke blog par .. sab dosto ne itna kuch kah diya hai ,mere paas waise hi is rachna ko padhne ke baad koi shabd nahi bache hai ki kahun ..
bus sirf ye kahunga ki ..dard ko jiya hai aapne tab jaakar ye shbd bane hue hai ..
उर्मिला का चरित्र को बाखूबी रचा है आपने ...... बचपन में उर्मिला का सोंदय नामसे कविता पढी थी ..... बस तब से ही ये चरित्र मन को छु गया था ,.......... आज आपने भी उसको दुबारा जीवित कर दिया है ........ उर्मिला जो अपने पति से अलग रही १४ वर्षों तक ......... जलती रही विरह की अग्नि में ......... उस समर्पण को ......... नमन है हमारा भी
उर्मिला की वेदना को बहुत कम लोग इतनी गहराई से व्यक्त कर पाए हैं।
( Treasurer-S. T. )
वन्दना जी .. मन्त्र मुग्ध कर दिया आपकी इस विरह कविता ने |
मेरी ओर न निहारना कभी
ख्याल भी ह्रदय में न लाना कभी
इंतज़ार का दीपक हथेली पर लिए
देहरी पर बैठी मिलूंगी
प्रीत के दीपक को मैं
अश्रुओं का घृत दूंगी
दीपक मेरी आस का है ये
मेरे प्रेम और विश्वास का है ये
कभी न बुझने पायेगा
इक दिन तुमको लौटा लायेगा,लौटा लायेगा ...
लाजवाब .... नारी को इसीलिए पुरुषों से ज्यादा महान माना गया है |
धन्यवाद .
वन्दना जी,
उर्मिला कि व्यथा और त्याग को शायद उस युग में भी कोई नही समझ पाया। उर्मिला जैसे पूरे प्रसंग में से ही भुला दी गई हो, उसके त्याग कि महानता को कर्तव्य का नाम देकर छोटा किया गया।
एक और सुन्दर कविता के लिये आपको बधाई।
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
वंदना जी
आपने उर्मिला की विरह वेदना को अभिव्यक्त करने में बड़ी सतर्कता बरती है,
पूरे काव्य में कहीं भी अतिशयोक्ति का आभास नहीं होता. इसे हम आपके लेखन की सफलता भी मान सकते हैं. सच एक नारी की पीड़ा नारी ही समझ सकती है और आप ने इस रचना में सिद्ध भी कर के भी दिखाया है.
एक अच्छी रचना के लिए बधाई.
- विजय तिवारी ' किसलय '
वंदना जी
आपने उर्मिला की विरह वेदना को अभिव्यक्त करने में बड़ी सतर्कता बरती है,
पूरे काव्य में कहीं भी अतिशयोक्ति का आभास नहीं होता. इसे हम आपके लेखन की सफलता भी मान सकते हैं. सच एक नारी की पीड़ा नारी ही समझ सकती है और आप ने इस रचना में सिद्ध भी कर के भी दिखाया है.
एक अच्छी रचना के लिए बधाई.
- विजय तिवारी ' किसलय '
वाकई... बहुत समर्पण भरी कविता है... हिंदी कविता बहुत दिनों बाद पढ़ी है... कुछ एक स्पेलिंग की गलतियाँ हैं... पर ब्लॉग पर यह चलता है... हाँ किन्तु अच्छी कविता पर ज्यादा खटकती है... एक पल लगा महादेवी वर्मा के दिनों में चला गया हूँ जब वो लिखती थी.. " मधुर- मधुर मेरे दीपक जल"
सुन्दर कविता... सराहनीय...
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