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शुक्रवार, 27 अप्रैल 2018

घुटन की आतिशबाजी फूँक रही है

जब आ चुको तुम आजिज़
रोजमर्रा के कत्लोआम से
शून्य हो जाती हैं संवेदनाएं
नहीं दीखता तुम्हें फिर
आस पास बिखरा समंदर, नीला आकाश या उडती तितलियाँ

अजीजों का महाप्रयाण हो
या नन्हें कमलों का असमय नष्ट होना
या फिर हो अर्धविकसित कलियों से व्यभिचार
दिमाग की नसें करने लगती हैं चीत्कार
शिराओं में बहते खून ने कर दिया है विद्रोह
जमाव बिंदु की ओर कर प्रस्थान
दिल शून्यता की अवधि में हो जाता है लाचार 
और सन्नाटे के शोर से 
लहुलुहान है रूह

शब्द भाव करके इनकार
निकल जाते हैं होने शामिल देशव्यापी हड़ताल में
तो कभी बैठ जाते हैं अनशन पर

मैं आत्माविहीन
कौन से बाज़ार में बेचूँ खुद को
कि
उतर आये आँख में खून
और अंतड़ियों में उबाल

सिरकती लाशों का तांडव देखती
भीड़ का हिस्सा हूँ मैं
मौन का दूसरा नाम पलायन नहीं
बस
भागना जरूरी होता है कभी कभी
साँस लेने के लिए
खुद को जिंदा महसूस करने के लिए

घुटन की आतिशबाजी फूँक रही है
रफ्ता रफ्ता
हँसते हुए चेहरे लगा रहे हैं चपत
सभ्यता के मुँह पर
और
कै करने को जरूरी है मुँह का होना

संवेदनाओं से दलाली का मौसम बहुत निखरा हुआ है आजकल 

©वन्दना गुप्ता 

1 टिप्पणी:

Onkar ने कहा…

सशक्त रचना