“ सृष्टि पर पहरा “
वो सदी का चितेरा बैठा है अपनी पुष्प वाटिका
में अलग अलग रंगों के कँवल खिलाये मगर स्रोत सिर्फ़ एक ही है उसकी विस्मृति में जमी
स्मृति की कोशिका जो बार बार ले जाती है विस्मृति के बीहडों में से
खोजने एक बीज अंकुरण की प्रबल संभावना वाला और आखिर आ ही जाता है हाथ वो शब्दबीज
जिसके बीजने से पैदा हो गये जाने कितने शब्दबीज और स्मृति का खलिहान लहलहा उठा फिर
चाहे उसके लिये ‘सृष्टि पर पहरा ‘ ही क्यों ना लगाना पडे , चाहे उसकी हवा उन
आँगनों तक ना बहे जहाँ से खो गये हैं मगर उपज तो उपज है कब किसान की हुई है वो तो
सदा दूसरों का ही पेट भरती रही है बस ऐसा ही तो शब्द साम्राज्य लहलहा उठा है
‘सृष्टि पर पहरा ‘ काव्य संग्रह में । जिन्होने अपने लेखन से “ सृष्टि पर पहरा “
लगाने की हिम्मत की है वो हैं केदारनाथ सिंह जी जिनका ये काव्य संग्रह हाल ही मे
सामने आया है ।
केदारनाथ सिंह किसी परिचय के मोहताज नहीं और
ऐसे मे उम्र के एक ऐसे पडाव पर पहुँचकर ही स्मृतियों के द्वार खुला करते
हैं जहाँ बचपन की दहलीज छोडी होती है और उसका पल पल , क्षण क्षण लहू की
तरह पैबस्त होता है यादों की शिराओं में । बस आपाधापी में कहीं कोने में बैठा अपने
होने का अहसास कराता रहता है , जेहन की कुंडियाँ खडखडाता रहता है जब तब और फिर एक
दिन जब सब क्रियाकलापों से मुक्त हो जाता है चेतन तब रुख करता है यादों की दहलीज
की ओर , तब उमगती है एक नदी अपने सम्पूर्ण प्रवाह के साथ और जन्म हो जाता है फिर
से एक नए काव्य का । बस ऐसा ही तो निर्झर बह रहा है इस काव्य संग्रह में जहाँ तमाम
ज़िन्दगी के कुछ वाकये कविता में ढल गये और अनुभूतियों का सागर लहलहा उठा ।
‘ सूर्य ‘ से समकालीनता का बोध कोई यूँ ही
नहीं हुआ होगा कहीं कुछ उसी की तरह तपा होगा तभी शब्द यूँ झरा होगा । ये है चेतना
का दूसरी चेतना से सम्मिलन , एक रूप का अपने ही रूप से साक्षात्कार तभी तो समकालीन
कह सका खुद को कवि क्योंकि यात्रा अनवरत है फिर सूर्य की हो या जीव की और उसी
महामिलन के संदर्भ में खुद का अक्स देखता कवि कहीं बहुत गहरे उतर जाता है और शायद
आत्म साक्षात्कार पा लेता है।
‘ विद्रोह ‘ शब्द जी जैसे एक धधकता
ज्वालामुखी है जिसमें जाने कब से एक लावा धधक रहा है और ऐसे में यदि ये शब्द किसी
कुशल रचनाकार की लेखनी में उतर जाए तो खुद की सार्थकता पर इठलाना लाज़िमी है बस ऐसा
ही तो इल्म हुआ है इस कविता में । जहाँ हर छोटी बडी चीज़ विद्रोह पर उतारू है और
जीना है मानव को विद्रोह के गेसुओं की सुलगती आग के साथ क्योंकि विकल्प की राजनीति
से अन्जान है वो या शायद जानता है मगर अन्जान रहकर जीने की उसे आदत पड चुकी है फिर
चाहे व्यवस्था कितना ही परेशान करे आदत भी कोई चीज़ हुआ करती है के भाव को दर्शाती
कविता मानव की मन:स्थिति और जीवन शैली का सटीक चित्रण करती है।
‘ आश्चर्य तो ये है कि
कविगण भी /लिखते नहीं कविता कपास के फ़ूल पर / प्रेमीजन भेंट में देते नहीं उसे /
कभी एक दूसरे को / जबकि वह है कि नंगा होने से / बचाता है सबको ‘
“ कपास का फ़ूल “ कविता मानो जीवन सत्य बिखेर
रही है । मूल को भूल फ़ूल पत्तों तक ही सीमित है हमारा दर्शन । कभी नही सोचते आखिर
उसका मूल क्या है गर इस तरफ़ रुख हो जाए तो जीवन का पल पल महक जाए मगर मानव की
विडंबना यही है कि उसे हर चमकती चीज़ ही सोना लगती है इसलिए भेद नही पाता अभेद्य दीवारों
का और चक्रव्यून मे घिरा ही अभिमन्यु सा नश्ट हो जाता है मगर बाहर आने का मार्ग
नही खोज पाता ।
“ मंच और मचान “ लम्बी कविता अपने अन्दर ना
जाने कितने अर्थ समेटे है जो व्यक्ति से लेकर देश और विदेशी नीति तक पर प्रहार
करती है साथ ही ‘घर’ शब्द की विशद व्याख्या करती प्रतीत होती है और कवि के ह्रदय
पर एक प्रश्नचिन्ह सा भी छोडती है तो कवि पाठको को भी उसी मुग्धता मे छोड आगे
प्रयास करता है ।
बेशक कुछ कविताएं किसी न किसी को समर्पित हैं
जैसे प्रो वरयाम सिंह, कवि देवेन्द्र कुमार, एक लोकगीत की अनुकृति , जहाँ से न हद
शुरु होता है, मनाली, वह बंग्लादेशी युवक जो मुझे मिला था रोम में , कवि कुम्भनदास
के प्रति आदि कविताअएं कवि के जीवन मे कितनी महत्त्वपूर्ण हैं जो अब मुखर हो पायीं
और कवि ने उँडेल दिया अमृत सागर जिसे उम्र भर सहेजा था और अब मौका आने पर सबको
उनका हिस्सा दे हो गए मुक्त्।
“ज्यॉ पाल सार्त्र की कब्र पर “ प्रेम का
रुपहला अहसास बन आत्मा मे उतरते जाने वाली कविता है जिसे कवि ने बेहद सादगी से ऐसे
कहा मानो सामने ही वो जीवन्त हो ……सिर्फ़ दो शब्द और सारा संसार प्रेम का समेट लिया
।
‘वापसी का टिकट है /कोई
पुरानी मित्र / रख गयी होगी / कि नींद से उठो/ तो आ जाना / मुझे लगा ---अस्तित्व
का यह भी रंग है / न होने के बाद ‘
प्रेम का उज्जवल स्वरूप अपनी जीवंतता को
प्रमाणित कर रहा है और यही कवि के लेखन की सार्थकता है जो प्रेम के पूरे व्याकरण
को चंद लफ़्ज़ों में उतार दिया और प्रेम को परिपूर्ण कर दिया ।
“
ईश्वर को भारतीय नागरिक के कुछ सुझाव “ आज के विज्ञान पर एक तरफ़ कटाक्ष है तो
दूसरी तरफ़ कल्पना की उडान का जीवन्त चित्रण जहाँ कल्पना एक बच्चे की कल्पना से
प्रतिस्पर्धा ले रही है और संसार में बिगडे हालात पर दृष्टिपात भी कर रही है और
आखिरी पंक्तियाँ कवि का सुरक्षा कवच नहीं बल्कि ईश्वर की आँख में आँख डाल देखने का
उपक्रम भी है जो उसे भी सोचने को विवश कर दे कि मत दे मानव को इतनी शक्ति जो उसके
दुरुपयोग पर वो आमादा हो जाए और फिर तेरे हाथ भी कुछ ना बचे
‘ इधर मीडिया में विनाश की
अट्कलें / बराबर आ रही हैं / सो पृथ्वी का कॉपीराइट संभालकर रखना / यह क्लोन समय
है / कहीं ऐसा न हो / कोई चुपके से रच दे / एक क्लोन पृथ्वी ‘
‘ ओ पृथ्वी तुम्हारा घर कहाँ है ‘ गहनता में
उतरता कवि का मानस सम्बोधित करता पृथ्वी को मानो खुद में उतरने की ही कोई जद्दोजहद
है , मानो कर रहा हो अवलोकन पृथ्वी के माध्यम से खुद में बसे एक सम्पूर्ण
ब्रह्मांड का , मानो लिख दिया हो अपने भीतर की उद्वगिनता , असहायता और आकुलता का
एक समग्र भंडार जहाँ व्याकुलता के खनिज अकुलाये से खोज रहे हों अपने अन्तर्मन के
दिशाहीन कोणों को तो दूसरी तरफ़ मानो पृथ्वी के माध्यम से दर्ज कर दी हो एक स्त्री
की सम्पूर्ण विवेचना , उसका सम्पूर्ण सौंदर्य , उसकी सम्पूर्ण प्रतिबद्धता । चंद
शब्दों में मानो रच दिया कवि ने एक पूरा वितान जहाँ पाठक निर्मिमेष दृष्टि से
हतप्रभ खडा खोज रहा है पहचान बिन्दु जाने किसके ---- पृथ्वी के , स्त्री के या खुद
के । एक रहस्यमय संसार की रचना कर पाठक को उसकी सोच की कंदरा में छोड कवि निकल
पडता है अगले पडाव पर ।
‘ घास ‘ कविता के माध्यम से कवि ने सत्ता पर
तो प्रहार किया ही है साथ ही घास के बिम्ब का उचित उपयोग कर जन मानस की शक्ति का
भी निरुपण किया है । घास यानि आम जनता जो बदल सकती है हर तस्वीर को बेशक नहीं समझा
जाता उसका अस्तित्व या उसकी उपयोगिता मगर फिर भी कहीं न कहीं से , किसी ने किसी
दरार से जब करती है प्रवेश तो बदल जाते हैं राजनीति के सारे समीकरण और लिख देती है
अपना ही गणित । जो चुभा नहीं करते , जो डरे दबे ढके कुचले मसले हों जो प्रतिकार
नहीं करते वो भी वक्त आने पर सिद्ध कर जाते हैं अपनी उपयोगिता , दे जाते हैं समय
के मानस पटल पर अपनी दस्तक और अंकित हो जाते हैं इतिहास में । बस मानो कवि ने दर्ज
कर दिया हो सुन्दर सहज और सरल शब्दों में अपना विरोध घास के माध्यम से और चल दिया
अगले सफ़र पर ।
‘ घर में प्रवास ‘ मानो आज की आधुनिक शैली
में बदलती जीवन मान्यताओं के ह्रास का चित्रण हो जो खुद से मुखातिब होता खुद से ही
अन्जान होने के सफ़र को इंगित करता है । मानो कवि कहना चाह रहा हो कितना अजनबीपन
तारी हो गया है आज अपने ही घरों में कि प्रवासियों सा जीवन जीने लगा है मानव और
भूल चुका है उसी घर में रहने वाले उन बुजुर्गों को जो पहले भी उसी घर का हिस्सा थे
और आगे भी रहेंगे मगर अति आधुनिक जीवन शैली में शायद जरूरत नहीं रही उनकी या नहीं
सिद्ध कर पाये वो अपनी उपयोगिता इसलिये हो गये निष्कासित और मानव मन इतना
संवेदनहीन हो चुका है कि सब देखकर जान कर भी न समझने का ढोंग कर्रता जाने किसे
धोखा दे रहा होता है :
“ जब मैं ले रहा था
विदा – /‘ कबूतरों ने कोई गज़ल गुनगुनायी ‘/शायद पितरों के समय की/और मैं समझ न सका
/उनकी आवाज़ में /कितना गम था /कितनी खुशी ! “
‘ विज्ञान और नींद ‘ का तालमेल लिखते हुए
मानो कवि एक विरोधाभास को भी इंगित कर रहा है । मानो कह रहा हो जब विज्ञान ने इतनी
तरक्की नहीं की थी तो मानव कितना चैन से सोया करता था अर्थात चैन की नींद लिया
करता था , न इतनी आपाधापी थी जीवन में और न ही इतना बंजारापन । बेशक विज्ञान ने
सहूलियतें मुहैया करायी हैं मगर उन सहूलियतों को देने की एवज में नींद का मुआवज़ा
भी ले लिया है जो विज्ञान की देन का ऐसा दुष्परिणाम है जिससे अब चाहकर भी मानव
मुक्त नहीं हो सकता । गागर में सागर भरती कविता पाठक के अवचेतन पर कहीं बहुत गहरे
प्रहार करती है ।
‘फ़सल’ के माध्यम से किसानों की पीडा और उनके
जीवन की विषमताओं पर दृष्टिपात करते हुए कवि ने अंत में उसकी मृत्यु को कोई
निर्णायक मोड न देते हुए भी दे दिया कि क्यों वे आत्महत्या करने को विवश होते हैं
जिसे कोई हत्या तो कोई आत्महत्या करार दे देता है मगर वो हो जाता है हर त्रासदी से
मुक्त क्योंकी शायद जीने की जद्दोजहद जब छीन लेती है उससे उसका सब कुछ तो अन्तिम
विकल्प के रूप में कुछ नहीं बचता सिवाय स्वंय के होम होने के
‘ नदी के स्मारक ‘ जीवन के अंतिम छोर पर खडे
मनुष्य की जर्जर अवस्था को इंगित करती उसकी उपादेयता को सिद्ध करती मानो कहती हो
आज जहाँ मैं हूँ कल तुम होंगे और यही सोच कर देती है नतमस्तक उस जीर्ण शीर्ण
अवस्था के प्रति जिससे कोई नहीं बच सकता बस इतनी संवेदनशीलता बची रहनी जरूरी है ।
‘ हक ‘ भारत पाक के बीच खिंची दरार को भरने
की चाहत का इज़हार है जहाँ कवि चाहता है दरार इतनी गहरी न हो कि हवायें भी आने से
कतराने लगें , पंछी भी सरहदों में बँटने लगें और तलवारें हमेशा म्यान से बाहर ही
रहें । कवि चाहता है चाहे जैसे भी हो दोनों मुल्कों में एक पतली सी झिर्री खुली
रहे जिससे संभव हो सके खुली हवा में साँस लेना इतना तो हक बने दोनों मुल्कों के
बाशिंदों का फिर चाहे सियासतदार कितना भी खेल खेलें , कितना ही कागज़ी हिसाब रखें
बची रहे एक मुट्ठी आस्माँ की ख्वाहिश सीने में ।
‘ चुप्पियाँ ‘ व्यवस्था पर तमाचा है । जब
हालात बेकाबू हो रहे हों और देखकर भी अनदेखा कर चुप रह आगे बढती जा रही हो दुनिया
, अन्याय होते देख भी चुप रहे जो तब यदि कोई आवाज़ उठाये तो नक्कारखाने में तूती की
आवाज़ सा लगता है , सही कहने वाला ही सूली पर चढता है बेशक वो समाज देश के भले की
बात कर रहा हो मगर उस पर ध्यान नहीं दिया जाता और उसे ही गलत साबित करना कितना
महंगा पडता है या पड सकता है ये चुप रहने वाले नहीं जान पाते । चुप रहना भी एक
गुनाह है ये समझना जरूरी है मानो कवि कहना चाहता है कम से कम अपने हक के लिए तो
बोलो वरना ये खामोशियाँ लील लेंगी तुमसे तुम्हारा वजूद भी और हो जाओगे तुम फिर एक
बार अपनी ही चुप के गुलाम जिन्हें खोलने की चाबी फिर नहीं मिलेगी । खामोशी की
गुफ़ाओं में गर्त होने से पहले जरूरी है चुप्पियों का टूटना समवेत स्वर में वरना वो
दिन दूर नहीं जब न समाज होगा न देश और न तुम और न ही तुम्हारा कोई वजूद ।
कवि अपने समय का सशक्त हस्ताक्षर है तो
कवि द्वारा रचित कविताएं बेशक बेजोड हैं । कवि के संवेदनशील ह्रदय को उल्लखित करती
हैं फिर चाहे वो विज्ञान से संबंधित हों या गाँव के बीते पलों का
चित्रण या अपने वजूद से लडती हिंदी का अस्तित्व । हर कविता कहीं प्रश्न छोडती है
तो कहीं सोच के प्रहरियों पर प्रहार करती है या समाज मे फ़ैली भ्रान्तियाँ सब पर
कवि की कलम बराबर चलते हुए पाठक को अपने साथ बहा ले जाने की क्षमता रखती है तभी तो
कवि और उसका लेखन अपनी पहचान आप है मगर इसके साथ एक ख्याल साथ में दस्तक देता है
कि यदि कोई नवोदित कवि इस तरह की कविता लिखे तो क्या इतना बडा प्रकाशक उसे छापने
का जोखिम उठायेगा या साहित्यिक महकमा उसके लेखन को इसी दृष्टि से देखेगा ये एक
प्रश्न कचोट रहा है क्योंकि स्थापितों के लिए कोई मुश्किल नहीं होती मगर नवोदित गर
किसी न किसी को समर्पित करती कविताएँ लिखे तो शायद ही कोई बडा प्रकाशक उन्हें
छापने का जोखिम उठाए जब तक कि वो बिकाऊ न हो और ये प्रश्न प्रकाशक के लिये ज्यादा
है क्योंकि कवि का काम तो रचनाकर्म करना है मगर उसे आगे पहुँचाना तो सिर्फ़ प्रकाशक
का काम होता है तो क्या जरूरी नहीं इस तरफ़ भी ध्यान दिया जाए और नवोदितों में जो
संभावना है उसे भी पोषित किया जाए ताकि फिर एक और केदारनाथ सिंह पैदा हो सके।
अब आती हूँ कवि के समर्पण पर जो कवि ने अपने
गाँव के लोगों को पुस्तक समर्पित की है बेशक उम्दा ख्याल है और सभी समर्पण करते
हैं किसी ना किसी को मगर जाने क्यों कवि का ये समर्पण सच में आकार पा जाता यदि वो
कुछ इस तरह सोचता :
“ अपने गाँव के लोगों को
जिन तक यह किताब
कभी नहीं पहुंचेगी “
कहकर क्या हो गयी इतिश्री
करके समर्पित ओ कवि
क्या पा गया तुम्हारा ह्रदय
चैन-ओ-आराम
क्या मिल सकी वो सुकूँ की मिट्टी
जिसकी सौंधी मिट्टी से
सराबोर हो तुमने
गूँथी यह पुष्प वेणी
नहीं कवि नहीं
सिर्फ़ इतना भर कह सकने से
ना पा सके होंगे तुम
खुद के आवरण से मुक्ति
क्योंकि
आसान था समर्पण करना
मगर
क्या वास्तव में ऐसा था ?
हो सकता है
गहरी पैठी संवेदनाएँ
जन्मी होंगी प्रसव की पीर सी
मगर ‘सिर्फ़ समर्पण’ की
तुमसे न थी उम्मीद
गर भावनात्मक लगाव
इस हद तक था
तो इस बार तुमने
नवागंतुकों के लिए
नज़ीर बनना था
और करना था एक ऐसा आह्वान
जो अब से पहले ना
किसी ने किया था
कवि जानते हो तुम
तुम क्या हो ……प्रकाशक के लिये
एक बिकाऊ माल
जो , जो भी लिखेगा
बेमोल बिकेगा
हाथों हाथ लिया जाएगा
ये है तुम्हारी पहचान
गर इस बार तुमने
अपनी पहचान को
भुना लिया होता
मानवता के लिये
एक कदम उठा लिया होता
तो वक्त के सीने पर
एक सशक्त हस्ताक्षर बन गये होते
साहित्य का इतिहास अमर कर गये होते
बेशक अमर आज भी हो तुम कवि
मगर सिर्फ़ एक कदम
और आगे बढ गए होते
जो एक बार प्रकाशक से
रॉयल्टी के बदले अपने
गाँव के घर घर में
इस पुस्तक को पहुँचाने की
शर्त रख गए होते
सुकूँ के जाने कितने पल
और जी गए होते
कवि तुम खुद से एक बार
फिर मिल गए होते
जो पैसों के ढेर से
बाहर निकल गए होते
क्योंकि
सिर्फ़ समर्पण करना , कहना ही
सब कुछ नही होता
वास्तव में तो समर्पण को
उसके अंतिम मुकाम तक
पहुँचाना ही
वास्तविक समर्पण होता है
क्षमा चाहती हूँ कवि
मगर
समर्पण कहीं न कहीं
सिर्फ़ तुम्हारी वाकपटुता दर्शाता है
मगर तुम्हारे विशाल ह्रदय का
न दिग्दर्शन कराता है