मृदुला प्रधान का कविता संग्रह " चलो कुछ बात करें " एक प्रकृति प्रेमी का संग्रह सा लगा जहाँ कवयित्री अपनी हर बात को प्रकृति को माध्यम बनाकर कहने की कोशिश करती है और प्रकृति से कविता का संयोग इस तरह बैठाती है कि प्रकृति के रस मन के बीहड़ों को भी उपवन बना देते हैं क्योंकि प्रकृति जब अपना सौदर्य बिखेरती है तो पतझड़ भी बसंत सा खिलखिला जाता है तभी तो कवयित्री सबसे पहले " माँ सरस्वती " की वंदना से आह्वान करती है अपने लेखन का और फिर कहीं " दूब पर " .... हो या " बसंत मालती " हो या " सूर्योदय " हो या " सूर्यास्त " या फिर हो " बरसात की रात " या फिर हो " नीम का एक पेड़ " , " पेड़ों के पीछे अलसाया " होली का त्यौहार " , " ओस " , " नारियल के पेड़ों " या " गुलमोहर की " या सूरज का घर " या " शीत का प्रथम स्वर " या " महानगर की धुप " जाने कितनी ही कवितायेँ और हैं जहाँ प्रकृति के रंगों की छटा के साथ दिल के रंग भी उकेरे हैं और दोनों का ऐसा तादात्म्य हो जाता है कि पता ही नहीं चलता फर्क प्रेम और प्रकृति में। कभी पहले कवि प्रकृति के माध्यम से मन के भावों को उकेरा करते थे मगर अब बहुत वक्त से ये माध्यम लुप्तप्राय: सा हो गया था ऐसे में बहुत दिनों बाद कुछ प्रकृति से सामंजस्य बैठाते हुए जीवन के विविध रंगों को किसी ने उकेरा है और वो भी महिला कवयित्री ने जो अपने आप में कुछ अलग सा अहसास संजोता है। ना केवल कवयित्री के प्रकृति प्रेम को दर्शाता है बल्कि प्रकृति को देखने और समझने के नज़रिये को भी प्रस्तुत करता है कि कितना कवयित्री का जुड़ाव प्रकृति के हर अंग से है फिर मौसम हो या ज़िन्दगी सबका अपना एक परिवेश है , संरचना है जिनका सीधा सा सम्बन्ध मानव जीवन से है।
कुछ प्रकृति से तादात्मय करती रचनाओं की एक झलक देखिये :
" कि ऋतु बसंत है "
" सूरज की पहली किरण में / नहाकर / तुम / और / गूंथकर चांदनी को।/ अपने बालों में / मैं / चलो स्वागत करें / ऋतु बसंत का "
" सुन हवा का "
"सुन हवा का मंद स्वर/कुछ कुछ थिरकने लगा हूँ /बादलों के साथ भी / अक्सर ज़रा / उड्ने लगा हूँ / खग विहग कल्लोल से / कल्लोल/ मै करने लगा हूँ "
" जब कभी "
जब कभी तुम्हारी आँखों में / सावन के बादल डोलेंगे / मैं भी उस बादल में छुपकर/ उन आँखों में बस जाऊँगी "
"सुन हवा का मंद स्वर/कुछ कुछ थिरकने लगा हूँ /बादलों के साथ भी / अक्सर ज़रा / उड्ने लगा हूँ / खग विहग कल्लोल से / कल्लोल/ मै करने लगा हूँ "
" जब कभी "
जब कभी तुम्हारी आँखों में / सावन के बादल डोलेंगे / मैं भी उस बादल में छुपकर/ उन आँखों में बस जाऊँगी "
इसके अलावा सामाजिक विडंबनाओं की तरफ भी उनका ध्यान उसी तरह से जाता है जैसे प्रकृति से नाता है वैसे ही तभी तो " बगल के मैदान में " कविता में एक ऐसी समस्या की ओर इशारा किया है जिससे हम सभी दो चार होते हैं और उसे भी ज़िन्दगी का हिस्सा मान घिसटते रहते हैं मगर हमारे काम सरकारी विभागों की पेचीदगियों में अटके रहते हैं आश्वासन के खोखले स्तम्भों पर जिसकी बानगी इस तरह देखिये :
" अधिकारी ने अपने भाषण में कुछ मुद्दे उठाये / तरक्की के अनेकों नुस्खे बताये / कहा फॉल्ट रेट घटाइये / विनम्रता से पेश आइये / विन विंडो कांसेप्ट अपनाइये/ और कस्टमर की साडी उलझें / एक ही खिड़की पर सुलझाइये / और दुसरे ही दिन अक्षरशः पालन किया गया / एक खिड़की छोड़ ताला जड़ दिया गया / हर मर्ज़ के लिए लोग / एक ही जगह आने लगे / सुबह से शाम तक / क्यू में बिताने लगे"
" मजूरों की रोटी " मानवीय संवेदनाओं की जीती जागती मिसाल है जहाँ मेहनत की रोटी के स्वाद की बात ही कुछ और होती है को इस तरह दर्शाया है कि आज की हाइटैक होती ज़िन्दगी की सुविधायें भी बेमानी सी लगती हैं एक सजीव चित्रण
" थाक रोटी की बडी सोंधी नरम लिपटे मसालों में बना आलू गरम / बैठकर एक झुण्ड में / सब खा रहे थे/ और चांपा -कल का पानी / हाथ का दोना बनाकर / पी रहे थे / और इस आधार पर ही आज हमने / गर्म रोटी/ काट आलू फ़ाँक वाले / थी बनाई/ पर ना कोई स्वाद आया "
" थाक रोटी की बडी सोंधी नरम लिपटे मसालों में बना आलू गरम / बैठकर एक झुण्ड में / सब खा रहे थे/ और चांपा -कल का पानी / हाथ का दोना बनाकर / पी रहे थे / और इस आधार पर ही आज हमने / गर्म रोटी/ काट आलू फ़ाँक वाले / थी बनाई/ पर ना कोई स्वाद आया "
" विदेशी भारतियों के नाम " एक ऐसी कविता है जो उन प्रवासी पक्षियों को बुलाने के लिए एक बार फिर से प्रकृति का सहारा लेती है और हर मौसम के माध्यम से संदेसा भेजती हैं मगर ग्रीन कार्ड की विडंबना हर मौसम पर भारी पड़ जाती है जिसका चित्रण बेहद खूबसूरती से किया गया है :
" मैं जाड़ों की शीतलहरी को समझाई थी / जाकर कहना / कि बैठ धुप में / मूंगफलियों के दानों के संग / गर्म चाय के ग्लासों से / तलहथियों को गरमा जाएँ "
" सर्द सन्नाटा" समय के बोये अकेलेपन के बीजों को बिखेरने की व्यथा है ताकि खुद से मुखातिब हुआ जा सके और रूह की गहराई तक उतरा सर्द सन्नाटा कुछ कम हो सके फिर चाहे उसके लिए कुछ लिखना ही क्यों न पड़े
" बंद हो जायेगी " कारगिल युद्ध की त्रासदी का चित्रण है जहाँ युद्ध तो सिर्फ एक वक्त विशेष का रूप होता है मगर उसके बाद भी उसके निशाँ उम्र भर उन शहीदों के घरों में सुलगा करते हैं।
" तुम्हारी आँखों में " , " प्रिय जब मैं " कविताओं में प्रेम के रंगों को संजोया है तो कहीं बेटियों के प्रेम में डूबी माँ की व्यथा का चित्रण " एक दिन " कविता के माध्यम से ऐसे किया है मानो खुद उन क्षणों को जीया हो।
" आज की नारी " के माध्यम से नारी के गौरव और सम्मान को भी मान दिया है तो " टूटी हुयी कड़ाही " के माध्यम से माँ को याद किया है।
कवयित्री की पकड़ केवल प्रकृति पर ही नहीं बल्कि हास्य व्यंग्य पर भी है तभी " समय यहाँ " और " सुबह सवेरे " कविता के माध्यम से आज के लाइफ स्टाइल और स्त्री के उस स्वरुप के भी दीदार कराये हैं जिनके कारण बाकि स्त्रियों को भी उसी दृष्टि से देखा जाता है कैसे फैशन और अपनी जरूरतों में जीती स्त्री कब सिर्फ अपने ही सुख के बारे में सोचने लगती है उसका बहुत ही शानदार शैली में विवेचन किया है जहाँ विशुद्ध हास्य तो है ही मगर सोचने के लिए भी एक स्पेस है।
कवयित्री के लेखन का एक वृहद् आकाश है जहाँ ज़िन्दगी का कोई भी पहलू नहीं जो अछूता रहा हो।छोटी छोटी कवितायेँ जीवन के विभिन्न दृष्टिकोणों से अवगत तो कराती ही हैं साथ ही कवयित्री के भाव मानस की पुष्टि का भी संकेत देती हैं कि हर तरफ कवयित्री की नज़र है जिसे वो इस तरह उद्धृत करती है मानो भोगा हुआ यथार्थ हो जो हर ह्रदय को छू लेता है। कवयित्री इसी तरह अपनी सोच के पंखों को उड़ान देते हुए आगे बढ़ती रहें और हमें भी अपने अनुभवों से अवगत कराती रहे ऐसी कामना करते हुए कवयित्री को बधाई और शुभकामनाएं देते हुए उनके उज्जवल भविष्य की कामना करती हूँ।
देवलोक प्रकाशन से प्रकाशित इस संग्रह को प्राप्त करने के लिए आप कवयित्री से इस नंबर पर संपर्क कर सकते हैं :
M : 9810908099
दूरभाष : 26963355
डी ---१९१ , ग्राउंड फ्लोर
साकेत , नयी दिल्ली --११००१७
12 टिप्पणियां:
ek shaandaar avlokan
vandana jee, aapki nazar se pustak ki sameekcha,mujhe bahot khushi de gayee.....aabhari hoon.....
मृदुला जी की कवितायेँ उनके ब्लॉग पर पढ़ते रहे हैं...
धन्यवाद आपका एक बेहतरीन रचनाकार और उनकी रचना से परिचित करवाने के लिये...!!
प्रकृति के रँग में रंगी सुंदर रचनाएं ...
अच्छी समीक्षा है पुस्तक की ...
बहुत ही सुन्दर और सार्थक अभिव्यक्ति।
सार्थक समीक्षा पुस्तक के प्रति उत्सुकता जगाती है।
अनुपम
bahut-bahut dhanybad,vandana jee.....is sunder sameekcha ke liye......
म्रदुल जी के इस संग्रह को जरूर पढ़ना चाहूंगा , प्रभावशाली समीक्षा
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन क्या होता है काली बिल्ली के रास्ता काटने का मतलब - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ati sunder .....
plz visit here also
anandkriti007.blogspot.com
that will be my pleasure
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