"कन्यादान" ............एक सामाजिक कुरीति
"कन्यादान" सुनने में तो बहुत अच्छा लगता है मगर यदि गौर से देखा जाये तो ये भी एक सामाजिक कुरीति है जिसने स्त्री की दशा को
दयनीय बनाने में अहम् भूमिका निभाई . आज कन्यादान जैसी कुरीतियों ने
स्त्री को वस्तु बना दिया या कहिये गाय ,बकरी बना दिया जिसे जैसे चाहे
प्रयोग किया जा सकता है , जिसे जब तक जरूरत हो प्रयोग करो और उसके बाद चाहो
तो दूसरे को दे दो या फेंक दो उसी तरह का व्यवहार चलन में आ गया जिसके
लिए कुछ हद तक हमारे ऐतिहासिक पात्र भी जिम्मेदार हैं जिन्होंने अपनी बेटी
की विदाई के वक्त ये कह दिया कि ये तुम्हारे घर की दासी है इसे अपने
चरणों में जगह देना .........आखिर क्यों ? क्या विवाह दो इंसानों में नहीं
होता ? क्या एक खरीदार होता है और दूसरा विक्रेता ? क्या सन्देश दे रहे हैं
हमारे ऐतिहासिक पात्र ? और जो परम्पराएं बड़े घरों से चलती हैं वो ही
समाज में गहरे जडें जमा लेती हैं जिनका दूरगामी परिणाम बेहद दुष्कर होता
है जिसका उदाहरण आज की स्त्री की दुर्दशा है .
पहले के पात्रों में देखो सीता की विदाई में यही दृश्य उपस्थित हुआ
तभी तो सीता का प्रयोग एक वस्तु की तरह हुआ . जिसने कदम कदम पर अपने पति का
साथ देकर पत्नीधर्म निभाया उसे ही गर्भावस्था में एक धोबी के कहने पर
त्यागना क्या उदाहरण पेश करता है समाज के सामने कि वो एक वस्तु ही है जिसे
जैसे चाहे प्रयोग करो और जरूरत न हो तो फेंक दो ,त्याग दो और उसे राजधर्म
का नाम दे दो ............क्या वो उनकी प्रजा में नहीं आती थी ? राम
को भगवान की दृष्टि से न देखकर यदि साधारण इन्सान की दृष्टि से देखा जाये
तो ये प्रश्न उठना लाजिमी है और देखिये इस कुप्रथा का दुष्परिणाम पांडवों
ने भी तो यही किया अपनी पत्नी को वस्तु की तरह प्रयोग किया ,पहले तो माँ के
कहने पर आपस में बाँट लिया और उसके बाद द्युत क्रीडा में दांव पर लगा
दिया , ये कहाँ का न्याय हुआ ? उसकी मर्ज़ी का कोई महत्त्व नहीं , उसे जो
चाहे जीत ले और जैसे चाहे उपयोग करे , इन्ही कुप्रथाओं ने तो आज के मनुष्य
को ये कहने का हक़ दे दिया कि क्या हुआ अगर मैंने ऐसा किया पहले भी तो ऐसा
होता था .........और वो ही सब आज भी चला आ रहा है . आज भी हम कन्यादान
करते हैं और गंगा नहाते हैं ...........आखिर क्यों?
क्या बिगाड़ा है कन्या ने जो उसे दान किया जाए और कौन सा खुदा होता है दामाद
जो उसे पूजा जाये ?क्यों उसके पैर छुए जायें ? क्या वो हमसे बड़ा है या
खुदा है ? अरे वो भी तो बच्चा ही है जैसे हमारी बेटी वैसे ही उसे भी बेटा
माना जाये तो क्या कुछ फर्क आ जायेगा ?
हम क्यों ये नहीं सोचते कि जैसे हमारे बेटा है वैसे ही बेटी भी है .
दोनों को हमने ही तो जन्म दिया है तो कैसे उनमे भेदभाव कर सकते हैं और कैसे
अपनी बेटी को वस्तु के समान दान कर सकते हैं . अगर हम ऐसा करेंगे तो सामने
वाले को तो मौका मिल जाता है कि तुम्हारे पिता ने तुम्हें दान किया है न
कि विवाह . विवाह में तो बराबरी होती है दोनों पक्षों की .
अब सोचने वाली बात है जैसे हमारे लिए बेटी वैसे ही तो दामाद होना चाहिए
और जिस घर वो जाये उनके लिए बहू का भी वो ही स्थान होना चाहिए लेकिन ऐसा
नहीं होता . दामाद को तो भगवान बना देते हैं और बहू को दासी
..........आखिर क्यों नहीं उसे भी उसी तरह का सम्मान दिया जाता अगर बराबरी
का रिश्ता है तो ? अगर दामाद पूज्य है तो बहू को भी पूज्य माना जाये और अगर
ऐसा नहीं है तो उन दोनों से ही अपने बच्चों की तरह ही व्यवहार किया जाये
न कि उन्हें पूजा जाये और अपने घर परिवार में बराबर का सम्मान दिया जाये
तो क्या इससे समाज में कोई अंतर आ जायेगा या रिश्ते में अंतर आ जायेगा ?
ऐसा कुछ नहीं होगा . होगा तो सिर्फ इतना कि दोनों परिवारों में , उनमे
रहने वालों की सोच में एक दूसरे के लिए मान सम्मान पैदा होगा जिससे एक
स्वस्थ समाज का निर्माण होगा और यदि हम पुरानी परिपाटियों पर ही चलते रहे
तो हमारी बेटियां यूँ ही कुचली मसली जाएँगी या जला दी जाएँगी मगर वो सम्मान
नहीं पाएंगी जिसकी वो हक़दार हैं .
कभी उन्हें सामान्य इन्सान नहीं माना गया . या तो देवी बनाकर पूजा गया वो भी सिर्फ नौ दिन और
या फिर दुत्कारा गया मगर कभी आम इन्सान की तरह नहीं देखा गया . एक जानकार
कहते हैं मैं बेटियों से झूठे बर्तन नहीं उठवाता दूसरी तरफ बेटे बेटी को
बराबर मानता हूँ तो ये कैसी बराबरी हुई पूछने पर कहने लगे अरे मर्यादा भी
तो कोई चीज होती है और बेटी तो बेटी होती है . जब हमारे पढ़े लिखे समाज की
ऐसी सोच होगी तो कैसे उसमे सुधार संभव है जहाँ एक तरफ बराबरी की बात हो और
दूसरी तरफ उसे देवी बना दो। बराबरी भी देनी है तो हर स्तर पर देनी चाहिए न
की सिर्फ कथनी में बल्कि करनी में भी .
हमें इसी जड़ता को बदलना है और इसे बदलने के लिए पहल तो हमें अपने घर से ,
अपनी बेटियों के जीवन से ही करनी होगी तभी समाज और देश में उनकी दशा में
सुधार आएगा बेशक ये प्रथाएँ बदलने में वक्त लगे मगर फिर भी आज का समझदार
युवा तो कम से कम इस बात को समझेगा और उसे अपने जीवन में स्थान देगा और
शादी से पहले यदि ये कहेगा कि मैं कन्यादान जैसी रस्म का बहिष्कार करता
हूँ/करती हूँ तो भी इस दिशा में ये एक क्रांतिकारी व आशान्वित कदम होगा .
आज क्या होता है कि कुछ सामाजिक संगठन गरीब कन्याओं के विवाह के नाम पर
"कन्यादान" का लालच देते हैं और कन्यादान को मोहरे की तरह प्रयोग करते हैं
जो कि किसी भी तरह उचित नहीं है . यदि गरीब कन्याओं का विवाह ही कराना है
तो उसे कन्यादान का नाम क्यों दिया जाए और उनकी भावनाओं से क्यों खेला जाये
. करना क्या है सिर्फ इतना ही कन्यादान शब्द और इस रीती का प्रयोग बंद
किया जाये बाकि सारे कार्य किये जायें तो इससे गरीब कन्याओं के विवाह में
या उनके लिए सहयोग देने वालों में तो फर्क नहीं आएगा और साथ ही समाज में
भी स्वस्थ सन्देश जायेगा ऊंचे तबसे से लेकर निचले तबके तक कि कन्या दान की
वस्तु नहीं है . वो भी एक जीती जागती इंसान है और उसे भी समाज में बराबरी
से रहने का हक़ है और उसे भी समाज में एक इन्सान की तरह स्थान मिले .
अब ये हम पर है कि हम अपनी बेटियों को क्या देना चाहते हैं .
बेशक किसी समाजसुधारक का ध्यान आज तक इस तरफ नहीं गया मगर कन्यादान भी
किसी कुरीति से कम नहीं जिसने समाज में स्त्री के दर्जे को दोयम बनाने में
कोई कसर नहीं छोड़ी . यदि नयी पीढ़ी और हम सब मिलकर ऐसी कुरीतियों का प्रतिकार करें और
फिर चाहे बेटे की शादी हो या बेटी की इस कुप्रथा का बहिष्कार करें तो जरूर
समाज की सोच में बदलाव आएगा और ऐसी कुप्रथाएं जड़ से समाप्त हो जाएँगी और बेटियों को उनका सम्मान व उचित स्थान मिल जायेगा।
अंत में एक बार फिर से यही कहूँगी………
कन्यादान या अभिशाप
दान करने के नाम पर
कहो तो .........ओ ठेकेदारों
जिसे इतने नाजों से पाला पोसा
फिर अत्याचारों का सिलसिला
तो कभी लड़की जन्मने के नाम पर
कभी ज़िन्दा जलाया जाता है
तो कभी बच्चा जनते जनते ही
बेटी को हर अधिकार से वंचित कर दिया
अगर ऐसा तुम्हारे साथ होने लगे
जो रस्मे जज्बातों से खेलती हों
जिनसे कोई सही शिक्षा ना मिलती हो
जो विकास में बाधक बनती हों
उन रस्मों को , उन परिपाटियों को
कन्यादान को अभिशाप ना बनने देना होगा