इक सौंदर्य का
बीज रोपा
धरती के सीने में
जग नियंता ने
और सौंदर्य
की महकती फसल
लहलहा उठी
फिर उसने
मानव नाम का
प्राणी धरती
पर उतारा
और चाहा ये
उसकी फुलवारी को
और निखारे
उसकी बगिया के
हर फूल को
गुलज़ार करे
मगर मानव के
स्वार्थ ने
बनाने वाले को
दगा दे दिया
उसकी कृति का
दुरूपयोग किया
सौंदर्य को
कुरूपता में
बदल दिया
अब पछता रहा था
जगनियंता
पालनहारा
जगसृष्टा
हाय !ये मैंने क्या किया?
ये मैंने क्या किया………
क्यूँ मानव का अविष्कार किया ?
39 टिप्पणियां:
वर्षों पहले कादम्बिनी में पढ़े कहानी " ब्रह्मा का अभिशाप " याद आ गयी ...
ईश्वर रोता रहा ही होगा अपनी इस कृति को देखकर ... संतुलन के लिए ही अच्छे लोगो को भी तो बनाया है ...!
कमाल कि अभिव्यक्ति, बहुत सुन्दर!
बहुत सुन्दर लिखा है आपने ! उम्दा प्रस्तुती!
मित्रता दिवस की हार्दिक बधाइयाँ एवं शुभकामनाएँ!
बहुत सुन्दर रचना है वंदना जी ...इस रचना पर मैं सिर्फ इतना ही कह सकता हूँ की एक हाथ की पाँचो उंगलियाँ बराबर नहीं होती....सारे मानव भी एक जैसे नहीं होते....कुछ ऐसे भी हैं जिन पर परमपिता परमेश्वर भी गर्व करता होगा |
ईश्वर हम सबको सदबुद्धि दे........
हाय !ये मैंने क्या किया?
ये मैंने क्या किया………
क्यूँ मानव का अविष्कार किया ?
कभी कभी तो जरूर आते होंगे ऐसे ख्याल मन में....मन को झकझोरने वाली कविता...
मुझे तो लगता है कि अगर कहीं कोई है सृष्टि का नियंता तो वह बिलकुल नहीं पछता रहा होगा। क्योंकि उसी का किया धरा तो है सबकुछ। इस पर भी विचार करिए कि अगर मानव स्वार्थी न हो तो क्या हो। मानव को अगर इस दुनिया में रहना है तो स्वार्थी होना ही पड़ेगा। यानी अपना पेट भरने के लिए कुछ न कुछ तो करना ही पड़ेगा। पेट भरना भी तो स्वार्थ है न। इसलिए निश्चिंत रहिए। जिस तरह से दुनिया बनाने वाला है।
Chintansheel rachna..
Manav hi vidhata hi sabse sundar, budhimaan krati hai parntu aaj jab manav khud apne vinash ke saajo saaman ka avishkar karta hai to sach mein wah yahi sochta hoga ki.
हाय !ये मैंने क्या किया?
ये मैंने क्या किया………
क्यूँ मानव का अविष्कार किया ?
रचना तो बहुत ही प्रश्नवाचक लगाई है!
--
भगवान का ही स्पष्टीकरण मांग लिया आपने तो!
--
रचना करें तो क्यों करें,
करके क्यों पछताय?
बोया पेड़ बबूल का,
तो आम कहाँ से खाय?
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नाइस पोस्ट!
vandna ji sprem nmskar
brhma ji ki rchna me aap bi hain aap jase aap ke mitr bhi hainkuchh poojneey bhi hain kuchh shrdhey bhi hain
jo is soochi me nhi hain un ka kya hai chhod den
aap ishvr jeev ansh avinashi hain
anytha mt lena
kaag aur shyaron ke bahkave me mt aana ve to apne jaise hi dhoondhte rhte hain aur aap jaise bhole jno ko apne jal me fansate rhte hain
kbhi smprk ho to sukhd lgega aap ka ek krj mere upr hai
dr. ved vyathit
email -dr.vedvyathit@gmail.com
bahut sundar abhivyakti.
बहुत प्रभावी रचना ....सच है इंसान से इस धरती को नाश के कगार तक पहुंचा दिया है ...
मंगलवार 3 अगस्त को आपकी रचना ... चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर ली गयी है .कृपया वहाँ आ कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ .... आभार
http://charchamanch.blogspot.com/
@वेद जी,
आपकी टिप्पणी मिली बहुत अच्छा लगा आपके विचार जानकर मगर मेरा कहना ये है कि आज कुछ लोगों ने अपने स्वार्थ कि पूर्ति के लिए उसकी बनायीं इस सृष्टि का किस तरह दोहन किया है कि हर तरफ कंक्रीट का जंगल ही नज़र आता है ........वो हमारा पालनहारा जिसने हमें बनाया क्या उसका दिल नहीं दुखता होगा? वो भी तो व्यथित होता होगा कि मानव किस हद तक जा सकता है ? हर चीज़ का दोहन वो भी अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिए कहाँ तक उचित है ? और इक बात बताऊँ हम सब भी कुछ हद तक उसके लिए जिम्मेदार हैं . इक छोटा सा उदहारण देती हूँ ..........पहले कपडे के थैले चला करते थे जो सामान आता था सिर्फ कपडे के थैलों में ही लाया जाता था अब प्लास्टिक के थैलों में आने लगा जो प्रकृति और स्वास्थ्य दोनों के लिए हानिकारक है मगर फिर भी ना तो उनका बनना बंद हुआ है और ना ही हमारा प्रयोग करना . आज हमें कपडे के थैले हाथ में लेते शर्म आती है सिर्फ इसलिए हम उनका इस्तेमाल करते हैं और उसकी रचाई सृष्टि को बर्बाद करते हैं क्यूँकि प्लास्टिक कि चीजों से किस किस को क्या क्या नुकसान पहुचता है ये तो सभी जानते हैं मगर फिर भी इस्तेमाल करना बंद नहीं करते.ये तो सिर्फ इक छोटा सा उदाहरण दिया है और अगर आप व्यापक रूप से देखेंगे तो आज मानव ने सिर्फ अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए प्रकृति का दुरूपयोग ही किया है कोई नव निर्माण नही किया ...........और उसका ठीकरा हम भगवान के सिर पर फोड़ देते हैं कि जो बुरा होता है उसने किया और अच्छा हमने .तो कहिये ऐसे में वो नहीं सोचता होगा कि ये कैसा प्राणी मैंने बना दिया जो अपना ही दुश्मन बन बैठा .
आपकी अत्यंत आभारी हूँ आपने अपने विचार व्यक्त किये ताकि ये सन्देश सब तक पहुच सके.
और आपका ये कहना समझ नहीं आया कि मेरा कोई कर्ज है आप पर .........मैंने तो कभी ऐसा कुछ किया नहीं तो इक बार बताइयेगा जरूर .
मानव के
स्वार्थ ने
बनाने वाले को
दगा दे दिया
उसकी कृति का
दुरूपयोग किया
सौंदर्य को
कुरूपता में
बदल दिया
सच, स्वार्थ लोलुपता में हम प्रकृति का विनाश करने से बाज़ नहीं आ रहे। कवयित्री की चिंता जायज़ है।
मानव का ताण्डव देख अब तो शिवजी भी छिप कर बैठे होंगे।
बहुत ही प्रभावी रचना.
रामराम.
एक उमदा कृति!
कविता को पढ़कर यह भी ख्याल आता है"
खुदा भी आसमाँ से जब ज़मीं पर देखता होगा
मेरे महबूब को किसने बनाया सोचता होगा !
पढ़ें वरिष्ठ पत्रकार-लेखक गिरीश पंकज को : बाज़ार में मीडिया
http://hamzabaan.blogspot.com/2010/08/blog-post.html
सोचने पर मजबूर करती है आपकी कविता..बेहतरीन भाव..बधाई.
जानदार रचना... निश्चित रूप से इंसान का प्रकृति के साथ खिलवाड़ कुल्हाड़ी पर पैर मारने जैसा है..
"खुदाया! मेरे ऐसा किया होता,
दिल देता, दिमाग न दिया होता."
अज्ञानी मन में उहापोह है कि इश्वर "सृजनकर्ता" करता है या "आविष्कारकर्ता"?
@ हबीब साहब
आपने तो रचना को पूरा कर दिया…………अत्यंत आभारी हूँ।
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...
इन्सान भी पछता रहा है । लेकिन इन्सान बचे ही कितने हैं ।
बहुत संवेदनशील विषय है । बढ़िया लिखा है ।
उम्दा अभिव्यक्ति बेहतरीन रचना ...!!
एक बेहद उम्दा पोस्ट के लिए आपको बहुत बहुत बधाइयाँ और शुभकामनाएं !
आपकी पोस्ट की चर्चा ब्लाग4वार्ता पर है यहां भी आएं !
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति|
बहुत अच्छा लिखा आपने...इस प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई.
कभी 'डाकिया डाक लाया' पर भी आयें...
बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति ........सच कहा भगवन को अपने अविष्कार पर पछतावा अवश्य हो रहा होगा!!
आपने सही लिखा है ... लाखों सालों में दूसरे जानवर धरती का उतना नुक्सान नहीं किये होंगे जितना कि कुछ हज़ार सालों में इंसान ने किया है ..
awesome..vandna ji..
..................
वंदना जी,
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति !
वंदना जी अपने सच ही लिखा है, अब तो पता नहीं परमात्मा को कुछ सोचने की मोहलत भी मिलती होगी या नहीं.
नही..मानव ने अपना अविष्कार खुद किया है और अपना अंत भी वही करेगा । किसीको दोष क्यो दे
sahi kaha aapane
ab pachhtata hoga , jaroor
sahi kaha aapane
ab pachhtata hoga , jaroor
सच है ... ऊपर वाला आज भी पछता रहा होगा मानव बना कर ... पर अब वो क्या करे उसकी कृति है उसे ही ठीक करना पड़ेगा ....
हमारे पाश्विक प्रवित्ति पर ख़ूबसूरत कविता के माध्यम से मुस्तक़िल प्रहार। बधाई।
वाह शानदार रचना........
अशेष शुभकामनायें प्रेषित है स्वीकार करें !!
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