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शुक्रवार, 30 अक्टूबर 2009

स्वीकार करूँ मैं भी तुमको

अंगीकार किया जब तुमने
क्यूँ नही चाहा तब
स्वीकार करूँ मैं भी तुमको
जब बांधा इस बंधन को
गठजोड़ लगा था हृदयों का
फिर क्यूँ नही चाहा तुमने
अंगीकार करूँ मैं भी तुमको
दान लिया था जब तुमने
तब क्यूँ नही चाहा तुमने
वस्तु बना कर
कोई तुम्हें भी दान करे
सिन्दूर भरा था जब माँग में
वादे किए थे जब जन्मों के
तब क्यूँ नही चाहा तुमने
मेरी उम्र भी दराज़ हो
तुम भी बंधो उसी बंधन में
जिसका सिला चाहा मुझसे
अर्धांगिनी बनाया जब मुझको
तब क्यूँ नही चाहा तुमने
तुम भी अर्धनारीश्वर बनो
अपूर्णता को अपनी
सम्पूर्णता में पूर्ण करो
इक तरफा स्वीकारोक्ति तुम्हारी
क्यूँ तुम्हें आंदोलित नही कर पाती है
मेरी स्वीकारोक्ति क्या तुम्हारे
पौरुष पर आघात तो नही
जब तक मैं न अंगीकार करूँ
जब तक मैं न तुम्हें स्वीकार करूँ
अपना वजूद कहाँ तुम पाओगे
फिर क्यूँ नही चाहा तुमने
अपना वजूद पाना मुझमें
फिर क्यूँ नही चाहा तुमने
स्वीकार करूँ में भी तुमको
स्वीकार करूँ मैं .......................

31 टिप्‍पणियां:

अजय कुमार ने कहा…

पीडा और उलाहना , क्या बात है

अजित गुप्ता का कोना ने कहा…

प्रत्‍येक पुरुष नारी के वजूद को अपरोक्ष रूप से स्‍वीकारता है बस जब उस पर आपत्ति आती है तभी वह परोक्ष रूप से स्‍वीकार करता है। लेकिन अब युग बदल रहा है। आज का युवा एक दूसरे को स्‍वीकार करने लगे हैं। आपकी कविता सशक्‍त है।

सदा ने कहा…

व्‍यथित मन की सुन्‍दर शब्‍द रचना ।

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) ने कहा…

अपना वजूद पाना मुझमें
फिर क्यूँ नही चाहा तुमने
स्वीकार करूँ में भी तुमको
स्वीकार करूँ मैं .......................



bahut hi khoobsoorti se shabdon ko piroya hai .....aapne.....

uprokt panktiyon ne dil chhooo liya....

अनिल कान्त ने कहा…

बहुत ही सशक्‍त कविता है

Dr. Zakir Ali Rajnish ने कहा…

मन के जज्बों की सुंदर अभिव्यक्ति।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }

BAD FAITH ने कहा…

उलाहना , वो भी किसी अपने से. सुन्दर भाव.

रानी पात्रिक ने कहा…

जब तक मैं न अंगीकार करूँ
जब तक मैं न तुम्हें स्वीकार करूँ
अपना वजूद कहाँ तुम पाओगे

सही कहा आपने। कुछ तो समझते हैं, सभी समझ पाएंगे क्या। कविता सुन्दर लगी।

रंजू भाटिया ने कहा…

मन की भावनाओं को बताती के सुन्दर रचना ..पसंद आई यह .

Apanatva ने कहा…

bahut hee sashakt aur yatharth se judee rachana hai aapakee Badhai

ओम आर्य ने कहा…

bahut hi sundarta se aapane rachana ko apani purn abhiwaykti di hai ..............

kshama ने कहा…

Shayad ek Bharteey naree jitna samparan aur koyi nahi kar sakta..

Dr. Amarjeet Kaunke ने कहा…

bahut pyari kavita....

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

मेरी स्वीकारोक्ति क्या तुम्हारे
पौरुष पर आघात तो नही
जब तक मैं न अंगीकार करूँ
जब तक मैं न तुम्हें स्वीकार करूँ
अपना वजूद कहाँ तुम पाओगे

बहुत सुन्दर रचना।
आपने वाकई में दिल से लिखी है।
बधाई!

रश्मि प्रभा... ने कहा…

क्या कहूँ.......अद्भुत भावनाओं का संयोजन है

Yogesh Verma Swapn ने कहा…

bahut jaandaar/jordaar shikayat hai. badhaai.

मनोज कुमार ने कहा…

अर्धांगिनी बनाया जब मुझको
तब क्यूँ नही चाहा तुमने
तुम भी अर्धनारीश्वर बनो
कुछ अलग हटके शब्दों का प्रयोग और दिल से कही गई बातों का अद्भुत संगम रचना की विशेषता है। बधाई।

M VERMA ने कहा…

जब बांधा इस बंधन को
गठजोड़ लगा था हृदयों का
गठजोडो से लगा के होड जीवन को प्रेम का नाम दे डाला.
उलाहने और भी है सुनकर जाना यहाँ से

रंजना ने कहा…

Nari aur purush ki mansik aur sharirik bhinnata hi hai iska karan...

Sundar sashakt kavita...

Arvind Mishra ने कहा…

क्या प्रश्न उत्तरित हुए ,या हो भी पायेगें ?
रचनाशीलता की संभावनाओं के प्रति आश्वस्त करती एक सशक्त रचना !

हें प्रभु यह तेरापंथ ने कहा…

★☆★☆★☆★☆★☆★☆★☆★
जय ब्लोगिग-विजय ब्लोगिग
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वन्दनाजी!!!

अंगीकार किया जब तुमने
क्यूँ नही चाहा तब
स्वीकार करूँ मैं भी तुमको

इक तरफा स्वीकारोक्ति तुम्हारी
क्यूँ तुम्हें आंदोलित नही कर पाती है
मेरी स्वीकारोक्ति क्या तुम्हारे
पौरुष पर आघात तो नही
जब तक मैं न अंगीकार करूँ
जब तक मैं न तुम्हें स्वीकार करूँ
अपना वजूद कहाँ तुम पाओगे
फिर क्यूँ नही चाहा तुमने
अपना वजूद पाना मुझमें
फिर क्यूँ नही चाहा तुमने
स्वीकार करूँ में भी तुमको

सुन्दर, सशक्‍त, सुन्‍दर शब्‍द, सुंदर अभिव्यक्ति,अद्भुत, अद्भुत संगम, वन्दनाजी! इन्ही शब्दो मे आपकी रचना के लिऍ मेरे भाव है। किन्तु इससे आगे भी मै कुछ कहना चाहता हू -
"यू आर ग्रेट!"
आपकी कविता सरचनाओ मे एक एक शब्द हमसे बाते करते है।
हम उनसे बातियाते है- बस आपकी कलम से शब्द फुटते है और आपकी आत्मा-उन शब्दो की प्राण-प्रतिष्ठा करते है।
अति सुन्दर तालमेल।
आपकी लिखी कविताओ मे
समन्दर सी गहराई,
आकाश सी ऊचाई है।
लिखते रहे....

♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥

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कविता रावत ने कहा…

Antrik peeda ko bayan karti bhavpurn rachana ke liye badhai.

Mishra Pankaj ने कहा…

बहुत सुन्दर बधाई

आनन्द वर्धन ओझा ने कहा…

वंदनाजी,
आपके पीड़ित प्रश्नों के उत्तर काल-चक्र ने अब देने शुरू किये हैं ! बेटियाँ पूछने लगी हैं कि 'मुझे बेटों से बढ़कर क्यों कहते हो ?' ऐसे मासूम और यक्ष-प्रश्नों के उत्तर भी इस युग को देने होंगे ! ये आश्वस्ति दबे पांवों सम्मुख आने लगी है ! आपके घर की बेटियाँ न सही, उनकी बेटियाँ ज़रूर इन सवालों के उत्तर इस निर्मोही समाज के मुख से निकलवा लेंगी... मैं आश्वस्त हूँ ! आप अपनी ऐसी ही कविताओं से इन सवालों को जीवंत बनाए रखिये !!
साभिवादन--आ.

Preeti tailor ने कहा…

सच ये अनुभूति होने के बावजूद औरत हमेशा झुकती रही है ...
सुन्दर रचना

Udan Tashtari ने कहा…

बहुत करीने से भावाव्यक्ति है...यही उम्दा तरीका है.

कडुवासच ने कहा…

... sundar rachanaa !!!!

Dr. Amarjeet Kaunke ने कहा…

itna dukh kio jhelte ho dost.....?

दिगम्बर नासवा ने कहा…

AAPKE MAN MEIN UTHTE HUVE BHAAV STRI KE SWALAMBAN KI KAHAANI KAR RAHE HAIN ..... SACH MEIN JAB BANDHAN BAANDHA HAI TO NA SIRF KHUD KO SWIKAR KARNA CHAHIYE ..... DOOSRE KO BHI YE KAHNA JAROORI HAI KI VO BHI SWIKAAR KARE ........

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

हर लफ्ज़ जहाँ
महबूब का ही
अक्स बन गया हो
मुझे इंतज़ार है
उस एक ख़त का
जो किसी ने कभी
लिखा ही नही
किसी ने कभी.........


बहुत सुन्दर!!!बढिया रचना।

Saagar ने कहा…

कविता नए रंग लिए हुए है... अच्छे सवाल करती हुई...
मेरी स्वीकारोक्ति क्या तुम्हारे
पौरुष पर आघात तो नही

सुन्दर पंग्तियाँ... धन्यवाद...