अंगीकार किया जब तुमने
क्यूँ नही चाहा तब
स्वीकार करूँ मैं भी तुमको
जब बांधा इस बंधन को
गठजोड़ लगा था हृदयों का
फिर क्यूँ नही चाहा तुमने
अंगीकार करूँ मैं भी तुमको
दान लिया था जब तुमने
तब क्यूँ नही चाहा तुमने
वस्तु बना कर
कोई तुम्हें भी दान करे
सिन्दूर भरा था जब माँग में
वादे किए थे जब जन्मों के
तब क्यूँ नही चाहा तुमने
मेरी उम्र भी दराज़ हो
तुम भी बंधो उसी बंधन में
जिसका सिला चाहा मुझसे
अर्धांगिनी बनाया जब मुझको
तब क्यूँ नही चाहा तुमने
तुम भी अर्धनारीश्वर बनो
अपूर्णता को अपनी
सम्पूर्णता में पूर्ण करो
इक तरफा स्वीकारोक्ति तुम्हारी
क्यूँ तुम्हें आंदोलित नही कर पाती है
मेरी स्वीकारोक्ति क्या तुम्हारे
पौरुष पर आघात तो नही
जब तक मैं न अंगीकार करूँ
जब तक मैं न तुम्हें स्वीकार करूँ
अपना वजूद कहाँ तुम पाओगे
फिर क्यूँ नही चाहा तुमने
अपना वजूद पाना मुझमें
फिर क्यूँ नही चाहा तुमने
स्वीकार करूँ में भी तुमको
स्वीकार करूँ मैं .......................
पीडा और उलाहना , क्या बात है
जवाब देंहटाएंप्रत्येक पुरुष नारी के वजूद को अपरोक्ष रूप से स्वीकारता है बस जब उस पर आपत्ति आती है तभी वह परोक्ष रूप से स्वीकार करता है। लेकिन अब युग बदल रहा है। आज का युवा एक दूसरे को स्वीकार करने लगे हैं। आपकी कविता सशक्त है।
जवाब देंहटाएंव्यथित मन की सुन्दर शब्द रचना ।
जवाब देंहटाएंअपना वजूद पाना मुझमें
जवाब देंहटाएंफिर क्यूँ नही चाहा तुमने
स्वीकार करूँ में भी तुमको
स्वीकार करूँ मैं .......................
bahut hi khoobsoorti se shabdon ko piroya hai .....aapne.....
uprokt panktiyon ne dil chhooo liya....
बहुत ही सशक्त कविता है
जवाब देंहटाएंमन के जज्बों की सुंदर अभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएं-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
उलाहना , वो भी किसी अपने से. सुन्दर भाव.
जवाब देंहटाएंजब तक मैं न अंगीकार करूँ
जवाब देंहटाएंजब तक मैं न तुम्हें स्वीकार करूँ
अपना वजूद कहाँ तुम पाओगे
सही कहा आपने। कुछ तो समझते हैं, सभी समझ पाएंगे क्या। कविता सुन्दर लगी।
मन की भावनाओं को बताती के सुन्दर रचना ..पसंद आई यह .
जवाब देंहटाएंbahut hee sashakt aur yatharth se judee rachana hai aapakee Badhai
जवाब देंहटाएंbahut hi sundarta se aapane rachana ko apani purn abhiwaykti di hai ..............
जवाब देंहटाएंShayad ek Bharteey naree jitna samparan aur koyi nahi kar sakta..
जवाब देंहटाएंbahut pyari kavita....
जवाब देंहटाएंमेरी स्वीकारोक्ति क्या तुम्हारे
जवाब देंहटाएंपौरुष पर आघात तो नही
जब तक मैं न अंगीकार करूँ
जब तक मैं न तुम्हें स्वीकार करूँ
अपना वजूद कहाँ तुम पाओगे
बहुत सुन्दर रचना।
आपने वाकई में दिल से लिखी है।
बधाई!
क्या कहूँ.......अद्भुत भावनाओं का संयोजन है
जवाब देंहटाएंbahut jaandaar/jordaar shikayat hai. badhaai.
जवाब देंहटाएंअर्धांगिनी बनाया जब मुझको
जवाब देंहटाएंतब क्यूँ नही चाहा तुमने
तुम भी अर्धनारीश्वर बनो
कुछ अलग हटके शब्दों का प्रयोग और दिल से कही गई बातों का अद्भुत संगम रचना की विशेषता है। बधाई।
जब बांधा इस बंधन को
जवाब देंहटाएंगठजोड़ लगा था हृदयों का
गठजोडो से लगा के होड जीवन को प्रेम का नाम दे डाला.
उलाहने और भी है सुनकर जाना यहाँ से
Nari aur purush ki mansik aur sharirik bhinnata hi hai iska karan...
जवाब देंहटाएंSundar sashakt kavita...
क्या प्रश्न उत्तरित हुए ,या हो भी पायेगें ?
जवाब देंहटाएंरचनाशीलता की संभावनाओं के प्रति आश्वस्त करती एक सशक्त रचना !
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जवाब देंहटाएंजय ब्लोगिग-विजय ब्लोगिग
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वन्दनाजी!!!
अंगीकार किया जब तुमने
क्यूँ नही चाहा तब
स्वीकार करूँ मैं भी तुमको
इक तरफा स्वीकारोक्ति तुम्हारी
क्यूँ तुम्हें आंदोलित नही कर पाती है
मेरी स्वीकारोक्ति क्या तुम्हारे
पौरुष पर आघात तो नही
जब तक मैं न अंगीकार करूँ
जब तक मैं न तुम्हें स्वीकार करूँ
अपना वजूद कहाँ तुम पाओगे
फिर क्यूँ नही चाहा तुमने
अपना वजूद पाना मुझमें
फिर क्यूँ नही चाहा तुमने
स्वीकार करूँ में भी तुमको
सुन्दर, सशक्त, सुन्दर शब्द, सुंदर अभिव्यक्ति,अद्भुत, अद्भुत संगम, वन्दनाजी! इन्ही शब्दो मे आपकी रचना के लिऍ मेरे भाव है। किन्तु इससे आगे भी मै कुछ कहना चाहता हू -
"यू आर ग्रेट!"
आपकी कविता सरचनाओ मे एक एक शब्द हमसे बाते करते है।
हम उनसे बातियाते है- बस आपकी कलम से शब्द फुटते है और आपकी आत्मा-उन शब्दो की प्राण-प्रतिष्ठा करते है।
अति सुन्दर तालमेल।
आपकी लिखी कविताओ मे
समन्दर सी गहराई,
आकाश सी ऊचाई है।
लिखते रहे....
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महावीर बी सेमलानी द्वारा मगलभावनाओ सहीत
मुम्बई-टाईगर
SELECTION & COLLECTION
Antrik peeda ko bayan karti bhavpurn rachana ke liye badhai.
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर बधाई
जवाब देंहटाएंवंदनाजी,
जवाब देंहटाएंआपके पीड़ित प्रश्नों के उत्तर काल-चक्र ने अब देने शुरू किये हैं ! बेटियाँ पूछने लगी हैं कि 'मुझे बेटों से बढ़कर क्यों कहते हो ?' ऐसे मासूम और यक्ष-प्रश्नों के उत्तर भी इस युग को देने होंगे ! ये आश्वस्ति दबे पांवों सम्मुख आने लगी है ! आपके घर की बेटियाँ न सही, उनकी बेटियाँ ज़रूर इन सवालों के उत्तर इस निर्मोही समाज के मुख से निकलवा लेंगी... मैं आश्वस्त हूँ ! आप अपनी ऐसी ही कविताओं से इन सवालों को जीवंत बनाए रखिये !!
साभिवादन--आ.
सच ये अनुभूति होने के बावजूद औरत हमेशा झुकती रही है ...
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना
बहुत करीने से भावाव्यक्ति है...यही उम्दा तरीका है.
जवाब देंहटाएं... sundar rachanaa !!!!
जवाब देंहटाएंitna dukh kio jhelte ho dost.....?
जवाब देंहटाएंAAPKE MAN MEIN UTHTE HUVE BHAAV STRI KE SWALAMBAN KI KAHAANI KAR RAHE HAIN ..... SACH MEIN JAB BANDHAN BAANDHA HAI TO NA SIRF KHUD KO SWIKAR KARNA CHAHIYE ..... DOOSRE KO BHI YE KAHNA JAROORI HAI KI VO BHI SWIKAAR KARE ........
जवाब देंहटाएंहर लफ्ज़ जहाँ
जवाब देंहटाएंमहबूब का ही
अक्स बन गया हो
मुझे इंतज़ार है
उस एक ख़त का
जो किसी ने कभी
लिखा ही नही
किसी ने कभी.........
बहुत सुन्दर!!!बढिया रचना।
कविता नए रंग लिए हुए है... अच्छे सवाल करती हुई...
जवाब देंहटाएंमेरी स्वीकारोक्ति क्या तुम्हारे
पौरुष पर आघात तो नही
सुन्दर पंग्तियाँ... धन्यवाद...