वक्त की आवाज़ कितनी पथरीली नुकीली कंटीली
तुम जान नहीं पाओगे
कल तक जो तुम सहेजते थे
धरोहरों के बीज
परंपराओं की ओढ़ते थे चादर
धार्मिक कृत्यों
स्वर्ग नरक
पाप पुण्य की अवधारणा से थे बंधे
एक क्षण में हो गए निर्वासित
समस्त कृत्यों से
केवल आँख बंद होने भर से
ये वर्तमान का चेहरा है
जिसमें बेटी हो या बेटा
समय की सुइयों से बंधा
नहीं दे सकता तुम्हें
तुम्हारे मुताबिक श्रद्धांजलि
क्या औचित्य जीवन भर के कर्मकांड का
विचारो ज़रा
ओ जाने वाले
और वो भी जो पीछे बचे हैं
अर्थात समस्त संसार
जिसने जीवन रूपी वैतरणी पार करने को
पकड़ रखी है रूढ़ियों परंपराओं की पूँछ
वास्तव में
यही है समय विचार करने योग्य
न कुछ साथ जाना है न कभी गया
जो करोगे यहीं छोड़ जाओगे
फिर किसलिए इतनी उठापटक?
क्यों कर्मकांड की खेती में खुद को झोंका
क्यों मृत्यु के बाद के कर्मकांडों बिना मुक्ति नहीं
की अवधारणा को पोसते रहे
अब तुम्हें कौन बताए
तुम तो चले गए
आज समय का चेहरा धुँधला गया है
और समयाभाव ने सोख ली हैं तमाम संवेदनाएं
तेरह दिन को फटककर समय के सूप में
एक दिन में सिमटना कोई क्रांति है न भ्रांति
यथार्थ की पगडण्डी पर चलकर ही मिलेंगे जीवन और मृत्यु के वास्तविक अर्थ
क्योंकि
न तेरह दिन में मुक्ति का उद्घोष कोई कृष्ण करता है
और न ही एक दिन में
बस मन का बच्चा ही है
जो बहलता है
कभी एक दिन में तो कभी तेरह दिन में
साधो मन को ओ मनुज!
5 टिप्पणियां:
सामाजिक व्यवस्था हमारी सहूलियत के लिए होनी चाहिए न कि बेवजह के आडंबरों को पोषित करने के लिए।
बेहतरीन अभिव्यक्ति।
सादर।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना मंगलवार १७ अक्टूबर२०२३ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
सुन्दर प्रस्तुति
चिंतन परक सोच, रूढ़ि या परम्पराएं सहज ही नहीं छूटती।
मुक्ति के बारे में सारगर्भित कथ्य।
सुंदर सृजन।
सुन्दर
यथार्थ परक सार्थक प्रस्तुति
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