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सोमवार, 5 अक्टूबर 2015

अंधेरों की सरसों

अंधेरों के पीछे के अँधेरे भी
उतने ही घनेरे होते हैं
ये जानकर होने लगता है अहसास
भविष्य की कछुआ चाल का
जिसमे न गति होगी न रिदम न संगीत
न सुर न लय न ताल
तब भविष्यदृष्टा नहीं तो भी
छटी इंद्री जरूर करती है सचेत
आने वाली काली गहराती परछाइयों से
और जब आशंकाएं अक्सर सच हो जाया करती हैं 
ऐसे में संभव ही नहीं
कोई दूसरा जुगाड़ बाहर आने का
तब छोड़कर हर जद्दोजहद
मान लेना चाहिए

ये गहराते अंधेरों से इश्क करने का ही मौसम है

तो क़ुबूल है क़ुबूल है क़ुबूल है
कह
करना ही पड़ता है निकाह

किस किस से , कैसे और कब तक बचूँ
क्या बचना संभव है मेरा ?

जबकि
मेरे चारों तरफ लहलहा रही अंधेरों की सरसों बेइंतेहा

4 टिप्‍पणियां:

yashoda Agrawal ने कहा…

आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" मंगलवार 06 अक्टूबर 2015 को लिंक की जाएगी............... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!

बेनामी ने कहा…

अंधेरों की सरसों

मन के - मनके ने कहा…

जीवन—चुनाव नहीं हो सकता है
जीवन—स्वीकार-भाव है.अतः अंधेरों से गुरेज क्यों,
अंधेरों के साथ-साथ उजाले भी होते हैं.

Madan Mohan Saxena ने कहा…

बहुत खूब ,