सोचती हूँ कभी - कभी
ना जाने क्यों छोडा उसने
क्या कमी थी?
खुद की तो पसन्द थी
रूप रंग पर तो जैसे
भोर की उजास छलकती थी
आईने भी शर्माते थे
जब रूप लावण्य दमकता था
ना केवल सूरत
बल्कि सीरत में भी
ना कहीं कम थी
फिर ऐसा क्या हुआ?
क्यों तूने वो कदम उठाया?
क्या सिर्फ़ इसलिये
कि मै मर्यादा पसन्द थी
और ठुकरा दिया तुम्हारा नेह आमन्त्रण
जिसे तुमने मेरा गुरूर समझा
और चल दिया अपना तुरुप का पत्ता
खुद को काबिल बना
भेज प्रस्ताव अंकशायिनी बना लिया
मगर तब तक थी अन्जान
तुम्हारे वीभत्स चेहरे से ना थी पहचान
तुम तो इंसान थे ही नहीं
पाशविक प्रवृत्ति ने जैसे सिर उठाया
तो धरा का भी रोम रोम थर्राया
बलात शारीरिक मानसिक अत्याचार
उस पर भी ना उफ़ किया मैने
कहो तो ………कौन सा गुनाह किया मैने?
और एक दिन डोर टूट ही गयी
जो बंधी थी अविश्वास के कच्चे तारों से
उसे तो टूटना ही था
मगर अब
सोचती हूँ ………
इक उम्र उस गुनाह की सज़ा
भुगतती रही
जो ना कभी की मैने
फिर मेरे साथ क्यों ऐसा हुआ?
क्या प्रेम का प्रतिकार प्रेम से देना ही जरूरी होता है?
क्या पुरुष का अहम इतना अहम होता है
कि किसी की उम्र तबाह कर दे
और खुद उफ़ भी ना करे?
और सबसे बडी बात
जो संस्कारों में घोट कर पिलाई जाती है
मर्यादा……मर्यादा………मर्यादा
तो क्या मेरा मर्यादा में रहना गुनाह हो गया?
उम्र भर वो ज़ख्म सींया जो हमेशा हरा ही रहा ………
और
इधर आज भी आईना कहता है
क्या फ़र्क पडता है उम्र के बीतने से
बैठ मेरे पास तुझे देखता रहूँ …………
ये खडी फ़सलों पर ही ओलावृष्टि क्यों होती है ………नहीं समझ पायी आज तलक!!!
18 टिप्पणियां:
कुछ प्रश्न हमारी समझ से परे होते हैं शायद....
ईश्वर भी शायद power display में यकीन रखता हो..पुरुष की तरह !!!(खडी फसल पर ओलावृष्टि की वजह..)
सस्नेह
अनु
कहो तो ………कौन सा गुनाह किया मैने?
सुन्दर अभिव्यक्ति
सादर
प्रेम है, प्रतिकार कैसा,
बह चले, आकार कैसा?
.भावात्मक अभिव्यक्ति ह्रदय को छू गयीआभार नवसंवत्सर की बहुत बहुत शुभकामनायें नरेन्द्र से नारीन्द्र तक .महिला ब्लोगर्स के लिए एक नयी सौगात आज ही जुड़ें WOMAN ABOUT MANजाने संविधान में कैसे है संपत्ति का अधिकार-1
अनुत्तरतीत सवाल ....
जिसके जबाब कभी नहीं मिलेगें .......
बहुत सुन्दर और प्रभावी प्रस्तुति...
बहुत बढ़िया तरीके से मन की भड़ास निकाली है आपने।
सुन्दर प्रस्तुति!
--
नवरात्री के दुसरे दिन आप सभी पर माँ अम्बे गौरी का आशीर्वाद बना रहे... जय जय माँ दुर्गा....
जिन्दगी ......एक खामोश सफ़र । और जो खामोशियों की आवाज़ सुन सको तो ही मेरे हमसफ़र ।
आपकी पंक्तियों में एक टीस , एक कसक , का भाव अक्सर देखा पढा और महसूस किया है मैंने । दिल से निकले शब्द जब कागज़ों में बिखरते हैं तो वो इंद्रधनुष कुछ यूं ही दिखता है ।
धोके तो दुनिया के हर कोने में टकराएंगे पर ठोकर खाकर चोट को संभालने की अपेक्षा ठोकर देने वाले को भूलना कहीं अधिक अच्छा रहेगा। सवालों में उलझ कर गिरने की अपेक्षा सवालों का उत्तर ढूंढना जरूरी होता है। पुरानी घटनाओं का बार-बार जिक्र कर जख्मों को कुरेदेंगे तो जख्म हरे रहेंगी ही। पर जिसने जख्म दिए उस पर अगर मिट्टी डाल कर उसके सामने बेहतर जिंदगी जिएंगे तो जख्म देने वाला पापड जैसा चूरा बनेगा। कभी-कभार ऐसा करके देखे तो धोका देने वाले ईमानदार बनेंगे।
वाह!!! बहुत बढ़िया | आनंदमय | आभार
कभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
Tamasha-E-Zindagi
Tamashaezindagi FB Page
मन की कसक की उम्दा प्रस्तुति,आभार,,,
Recent Post : अमन के लिए.
बहुत सुन्दर भावाभिव्यक्ति! प्रश्न जायज हैं लेकिन उत्तर कौन दे?
इस सुंदर रचना के लिए बधाई स्वीकारें।
हमारे प्रश्नों के उत्तर हम नही न दे सकते ।
बहुत सुंदर लिखा है ।
बल्ले बल्ले जी बढ़िया
प्रभावी रचना
बहुत सुन्दर....बेहतरीन रचना
पधारें "आँसुओं के मोती"
कितने गहरे ज़ख़्म.... :(
क्या भर सकेंगे कभी....???
~सादर!!!
मर्यादा का पालन सभी को करना चाहिये. सुंदर विचार सुंदर प्रस्तुति.
नवसंवत्सर की शुभकामनाएँ.
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