चाहे शोषित करे कोई
चाहे उपेक्षित भी होती हूँ
मगर मन के धरातल पर
डटकर खडी रहती हूँ
संस्कारों की वेणी में जकड़ी
मन से तो मैं आज भी वही
पुरातन भारतीय नारी हूँ
चाहे मानक रोज नए बनाती हूँ
अपनी सत्ता का आभास कराती हूँ
मगर मन की अतल गहराइयों से तो
आज भी १८वीं सदी की नारी हूँ
चाहे आसमां को छू आऊँ
अन्तरिक्ष में उड़ान भर आऊँ
पर पैर जमीन पर ही रखती हूँ
अपने मूल्यों की थाती को
ना ताक पर रखती हूँ
चाहे विचारों में समरसता हो
चाहे भावों में एकरसता हो
मित्रता के आयाम बनाती हूँ
पर पुरुष मन में उठे भावों की
गंध पहचानती हूँ इसीलिए
पर पुरुष की छाया का
ख्वाबों में भी प्रवेश वर्जित है
मैं ऐसी संस्कारों में जकड़ी नारी हूँ
चाहे कितनी आधुनिक कहलाती हूँ
अधिकारों के लिए दुनिया से लड़ जाती हूँ
उन्मुक्तता , स्वतंत्रता मेरे अधिकार हैं
स्वच्छंद हवा में विचरण करना मेरी नियति है
मगर उसका दुरूपयोग कभी ना करती हूँ
अधिकारों के साथ अपने कर्तव्यों
को भी खूब समझती हूँ
तभी तो मन से आज भी
अपनी जड़ों से जुडी नारी हूँ
वक्त पड़ने पर
दृढ संकल्प शक्ति
की बदौलत
चाहे दुर्गा बन जाऊँ
काली सा संहार करूँ
लक्ष्मीबाई सी लड़ जाऊँ
मगर फिर भी मुझमें बसती
वो ही पुरातन नारी है
जो बीज रोपित किये थे सदियों ने
उन्ही से पोषित होती हूँ
इसीलिए कभी भी अपनी
संस्कारों की ज़मीन नहीं खोती हूँ
मैं आज भी संस्कारों के
बीज रोपती हूँ और
संस्कारों की फसल उगाती हूँ
क्योंकि आज भी मन से तो मैं
वो ही पुरातन भारतीय नारी हूँ
57 टिप्पणियां:
"संस्कारों की फसल उगाती, क्या बात है सुंदर रचना बधाई
अधिकारों के साथ अपने कर्तव्यों
को भी खूब समझती हूँ
तभी तो मन से आज भी
अपनी जड़ों से जुडी नारी हूँ
इस कविता का हर एक लफ्ज नए आयाम स्थापित करता है ...नारी मन की स्थिति को बखूबी अभिव्यक्त किया है ..नारी के मन में उठने वाले है हर एक भाव को सुंदर तरीके सामने रखा है , कुल मिलाकर पूरी कविता नारी केन्द्रित है, और खुद को १८ वीं सदी का कहना थोडा अटपटा लगा ..क्यूंकि तब की और अब की नारी की स्थिति में बहुत अंतर है हर एक स्तर पर ..कुछ अपवादों को छोड़ कर ...शुभकामनायें
आपके लेखन ने इसे जानदार और शानदार बना दिया है....
माला के मोती की तरह गुथे हुए विचारों से बनी कविता अक ही रौ में लिखी गई है। रचना और उसके प्रभाव को अक्षुण्ण रखना आपको विशिष्ट कवियों की श्रेणी में ला खड़ा करता है। कविता में संवेदना का विस्तार व्यापक रूप से परखा जा सकता है। बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
फ़ुरसत में .... सामा-चकेवा
विचार-शिक्षा
भारतीय संस्कृति और सभ्यता को साथ लेकर चलना भारतीयता के लक्षण है और भारत की नारी अगर इस विचार पर अटल रहे तो पश्चिम की सभ्यता कभी भारत पर हावी नही हो सकती है...बेहद उम्दा रचना लिखी है आपने...इस सुंदर विचार से परिपूर्ण भावपूर्ण रचना के लिए बहुत बहुत बधाई
भारतीय नारी का सटीक चित्रण
सुन्दर कविता
.
पर पैर जमीन पर ही रखती हूँ....
बेहतरीन रचना वंदना जी, आभार।
.
वन्दना जी,
बहुत ही सुन्दर रचना...वाह...आधुनिकता की अंधी दौड़ में खोये हुए संसार को ये बताया है आपने की संस्कारों का मूल्य क्या होता है......ये पंक्तियाँ बहुत अच्छी बन पड़ी हैं......उम्मीद है की आज की लड़कियां इन से कुछ सिख सकें.....शुभकामनायें....
"चाहे कितनी आधुनिक कहलाती हूँ
अधिकारों के लिए दुनिया से लड़ जाती हूँ
उन्मुक्तता , स्वतंत्रता मेरे अधिकार हैं
स्वच्छंद हवा में विचरण करना मेरी नियति है
मगर उसका दुरूपयोग कभी ना करती हूँ
अधिकारों के साथ अपने कर्तव्यों
को भी खूब समझती हूँ
तभी तो मन से आज भी
अपनी जड़ों से जुडी नारी हूँ"
बहुत खूबसूरती से भारतीय नारी की परम्पराओं को कह दिया है ....बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति
सच बदलाव भले ही आये हों पर आज भी कुछ बातें नहीं बदली हैं.....बहुत सुंदर और प्रासंगिक पंक्तियाँ .....
संस्कारित होना पुरातनता तो नहीं होना.
और अगर है तो पुरातन होना ही श्रेयस्कर है ..
सुन्दर अभिव्यक्ति दी है आपने
Ek lambe arse se chali aa rahi bharatiya nari ka swarup samay ke sath kuchh badala badala sa lagata hai kintu Aaj bhi har nari ko bahartiya nari ke rup mein hi dekha jata hai.Chhayavadi kavi swargiy Jaishankar prasad ji ne likha hai-
Nari tum keval shradha ho,
vishwas rajat nag pag tal mein,
piyush shrot si baha karo
Jivan ke suadar samatal mein. Badhai.Plz. visit my blog.
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Nari tum keval shradha ho,
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Nari tum keval shradha ho,
vishwas rajat nag pag tal mein,
piyush shrot si baha karo
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aapne ne likha hai nari par jo hamare aas paas har rup mai aapne kavita mai har rupo ka chitrad kiya hai behad shandaar
bahut shandaar prastuti
माफ करें वंदना जी। बहुत उलझे हुए विचार हैं। लगता है आप तय ही नहीं कर पा रही हैं कि आप किस युग की नारी हैं। अपने आपको 18 वीं सदी की नारी कहना सचमुच में अटपटा लगता है। सच तो यह कि आप चाहकर भी 18 वीं सदी की नहीं बन सकतीं।
अपनी पूरी कविता को पढ़ें और फिर से सोचें कि आप कहना क्या चाहती हैं।
सुन्दर भाव वाली कविता . प्रथम पंक्ति में "शोषित करे कोई " की जगह शायद शोषण होना चहिये . आभार सुन्दर कविता के लिए .
वंदना जी,
नारी की सच्चाई यही है, वह अपनी जमीन से हमशा जुड़ी रहती है. वह सीता भी है तो दुर्गा भी है. अगर उसके दोनों रूप न होते तो ये सृष्टि रसातल में चली गयी होती . नारी में बसे संस्कार और गरिमा कब की ख़त्म हो गयी होती या फिर उसके अस्तित्व को ख़त्म कर दिया गया होता. इन सभी गुणों के समावेश से जो नारी है वही प्रशंसनीय है.
बहुत खूब लिखा है आपने.
आज ऐसी ही बारतीय नारी की अपेक्षा है समाज को ... बहुत अछा लिखा है ....
धुरंधर नारीवादी रूष्ट हो सकते हैं...
kya kahen! aapka lekhan nari man ki kahin to vedna hai to wahin doosri aor nari shakti ka chitrankan karta hua ek bahuayami
aandolan .
samarth lekhni aur sarthak lekhan
dono sarahniy hain.
बहुत सुंदर भाव। बधाई।
---------
मैं अभी तक तो स्वयं को शाकाहारी मानता रहा था, पर इस लेख को पढ़कर मेरी चूलें हिल गयी हैं।
... prasanshaneey rachanaa ... badhaai !!!
good poem
अधिकारों के साथ अपने कर्तव्यों
को भी खूब समझती हूँ
तभी तो मन से आज भी
अपनी जड़ों से जुडी नारी हूँ
इन पंक्तियों ने बेहद प्रभावित किया........
हमेशा की तरह सार्थक एवं प्रभावी रचना के लिए बधाई |
ऐसी नारियों को मेरा सत-सत नमन.
बहुत सुन्दर वन्दना जी ! रचना की कुछ लायिने कोट करना चाह्ता था मगर आपका ब्लोग प्रमिट नही करता !
संस्कार में पुरातन, श्रेष्ठता में गार्गीसम।
पुरातन होने को नया सन्दर्भ और अर्थ देती कविता... पुरातन होने को सांस्कृतिक महत्व दे रही है आपकी कविता.. आधुनिक नारी भी पुरातन हो सकती है और पुरातन नारी भी आधुनिक.. आपकी कविता एक नई समझ दे रही है...
यही तो खासियत है,
भारतीय नारी आधुनिक भी है और पारंपरिक भी :)
शोषित भी होती हूँ
उपेक्षित भी होती हूँ
मगर मन के धरातल पर
डटकर खडी रहती हूँ
संस्कारों की वेणी में जकड़ी
मन से तो मैं आज भी वही
पुरातन भारतीय नारी हूँ
--
यही तो विशेषता है
कल की अबला आज की साहसी
भारतीय नारी की!
अति सुन्दर............
Sanskaron kee fasal ugane waali naaree hee to shaktishaalee hai!
Vandana bahut sundar rachana hai!
यही सच सदा भारतीय नारी के साथ जुडा रहेगा.
सुंदर रचना.
कार्तिक पूर्णिमा एवं प्रकाश उत्सव की आपको बहुत बहुत बधाई !
bahut sunder rachna
www.deepti09sharma.blogspot.com
Bahut Khubsurat rachna
खूबसूरत रचना वंदना जी ... आज चाहेई महिलाएं आधुनिक हो गयी है .. पर अपने संस्कार नहीं त्यागने चाहिए ...
आपकी बात बहुत पसंद आई -
बहुत सुंदर कविता -
सबला की कहानी कहती हुई कविता -
अनेक शुभकामनाएं .
इस पुरातन पर अच्छा विमर्श है ।
आज पहली बार आपके ब्लॉग पर आया हूँ बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति ........
आज पहली बार आपके ब्लॉग पर आया हूँ बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति ........
चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी रचना मंगलवार 23 -11-2010
को ली गयी है ...
कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया ..
http://charchamanch.blogspot.com/
सत्य कहा...
सत्संस्कार तो नारीत्व की गरिमा है,पहचान है..जो इसको छोड़ दिया तो बचा ही क्या...
प्रभावशाली सुन्दर अभिव्यक्ति !!!
बहुत खूबसूरत अभिव्यक्ति ...
5.5/10
एक कविता के रूप में मुझे यह रचना जमी नहीं. किन्तु विचारों और भावों के रूप में महत्वपूर्ण लगी और विचारणीय भी. तमाम उहापोह और क्रांतिकारी परिवर्तनों के बावजूद भी नारी अपनी जड़ों से, अपने संस्कारों से दूर नहीं जा पायी है.
जमीन से जुड़ना और संस्कारों को न छोड़ना अच्छी बात है मगर आज भी रूढ़िवादी मानसिकता, अंधविश्वास, धर्म-जाति के नाम पर भेदभाव, लिंग-भेद आदि अनेकों बुराइयों से भारतीय नारी ही नहीं पुरूष भी जकड़े हुए हैं। संस्कार और संस्कृति के नाम पर हम अपनी मानसिकता बदलने की हिम्मत ही नहीं जुटा पाते।
आज भी नारी नारी ही है |आपने बहुत गहराई से सोच को उभारती कविता लिखी है बहुत बहुत बधाई |
आशा
सुश्री वंदना जी,
आप उत्कृष्ट रचनाकार हो। बधाई।
डॉ. ओम प्रकाश अलसी चेतना यात्रा
नारी का यह रूप शायद सभी भारतीय नारी में है। आधुनिकता की लय में बाह्य थिरकन केवल समय के संग औपचारिकता निभाना ही कहा जाएगा। एक भव्य प्रस्तुति।
भारतीय नारी का यह रूप अधिकांश भारतीय नारियों में है। जिन संस्कारों को कविता मुखर कर रही है उस क्षण को धन्यवाद।
अधिकारों के साथ अपने कर्तव्यों
को भी खूब समझती हूँ
तभी तो मन से आज भी
अपनी जड़ों से जुडी नारी हूँ
बहुत सुन्दर अपने संस्कारों से जुडे रहने से बडी एक नारी के लिये और क्या चीज़ हो सकती है। सुन्दर कविता। बधाई।
विचारपूर्ण रचना...!
एक भारतीय नारी की मानसिकता और उसकी प्रवृत्तियों की बड़ी सूक्ष्मता के साथ पड़ताल की है आपने ! वास्तव में भारतीय नारी बिल्कुल वैसी ही है जैसी आपने परिभाषित की है ! बहुत सुन्दर प्रस्तुति !
वंदना जी आपने सच ही लिखा है....कितनी भी उचाइयो में नए ज़माने की दौड के साथ चले पर दिल से तो आज भी नारी अंदर अंदर अपने संस्कारों को पाले हुवे है... और वाही तो है अपने संस्कारों को आगे तक ले जाने वाली... शुभकामनयें..
उन्मुक्तता , स्वतंत्रता मेरे अधिकार हैं
स्वच्छंद हवा में विचरण करना मेरी नियति है
मगर उसका दुरूपयोग कभी ना करती हूँ
अधिकारों के साथ अपने कर्तव्यों
को भी खूब समझती हूँ
तभी तो मन से आज भी
अपनी जड़ों से जुडी नारी हूँ...
आधुनिक होती नारी अपनी जड़ों से आज भी ऐसे ही जुडी है ...
इतनी खूबसूरत कविता देर से पढ़ पायी ...
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