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शनिवार, 30 अक्टूबर 2010

घर से ऑफिस के बीच

घर से ऑफिस 
के लिए जब 
निकलता है आदमी
जाने कितनी चीजें 
भूलता है आदमी
घर से ऑफिस 
तक के सफ़र में
दिनचर्या बना 
लेता है आदमी
कौन से 
जरूरी काम 
पहले करने हैं
कौन सी फाइल 
पहले निपटानी है
किसका लोन 
पास करना है
किसका काम 
रोक कर रखना है
सारे मानक तय 
कर लेता है
साथ ही आज 
वापसी में
कौन से सपने
लेकर जाने  हैं
बीवी बच्चों के 
कामों की 
फेहरिस्त भी 
बना लेता है
आदमी
किसकी फीस 
जमा करवानी है
किसे डॉक्टर के 
लेकर जाना है
बेटी के लिए
लड़का ढूंढना है 
बेटे का एड्मीशन
करवाना है
किसे रिश्वत 
देकर काम 
निकलवाना है
हर काम के
मापदंड तय 
कर लेता है
आदमी
मगर इसी बीच
कुछ पल वो
भविष्य के भी
संजो लेता है 
कुछ पल अपनी
कल्पनाओं की
उडान को भी 
देता है आदमी
जब देखता है
किसी गाडी में 
सवार किसी 
परिवार के 
चेहरे पर 
खिलती 
मुस्कान को
या किसी 
आलिशान
मकान को 
या शौपिंग माल 
या मूवी देखने 
जाते किसी 
परिवार को 
तब वो भी
उसी जीवन की
आस संजो 
लेता है आदमी
खुशहाली का
एक बीज
अपने अंतस में
रोप लेता है 
आदमी
दुनिया की हर 
ख़ुशी की चाह में
कुछ सपने
सींच लेता है 
आदमी
बेशक पूरे 
हों ना हों
मगर फिर भी
वो सुबह कभी
तो आएगी 
इस चाह में 
एक जीवन 
जी लेता है 
आदमी
घर परिवार को
ख़ुशी देने की
चाह में
ख्वाबों की
उड़ान भर
लेता है आदमी 
उम्मीद की 
इस किरण पर
आस का दीपक 
जला लेता है 
आदमी
घर से ऑफिस 
के बीच 
ज़िन्दगी की 
जद्दोजहद से 
कुछ पल
स्वयं के लिए
चुरा लेता है
आदमी

30 टिप्‍पणियां:

सम्पादक, अपनी माटी ने कहा…

वन्दना जी विचार अच्छा है मगर ये कविता गध्यनुमा लगती है.जिसे तुकडे करके लंबा किया गया है. बोलने में कुछ तो पद्यनुमा लगना चाहिए.

Deepak Saini ने कहा…

घर परिवार को
ख़ुशी देने की
चाह में
ख्वाबों की
उड़ान भर
लेता है आदमी

इन पक्तियों मे आदमी की सारा जीवन सिमटा हुआ है,
हर आदमी घर परिवार के लिए सब कुछ करता है यहाँ तक कि अपने ख्वाब, आरजू आदि सब कि बली देकर भी, परिवार के इच्छाओ की पूर्ति का ख्वाब सजोता है

बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति

Arvind Mishra ने कहा…

यह तो नौकरी शुदा है आदमी !

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

दिनचर्या को बताते हुए कुछ सपनों को बुनना ...अच्छी तरह निभाया है इस रचना में /

Girish Kumar Billore ने कहा…

अनोखी बात कह दी वाह
ताज़ा-पोस्ट ब्लाग4वार्ता
एक नज़र इधर भी मिसफ़िट:सीधी बात
बच्चन जी कृति मधुबाला पर संक्षिप्त चर्चा

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

घर से ऑफिस
के बीच
ज़िन्दगी की
जद्दोजहद से
कुछ पल
स्वयं के लिए
चुरा लेता है
आदमी
---
आपने तो इस रचना में जिन्दगी का पूरा लेखा-जोखा ही सामने रख दिया!
सचमुच ऐसा ही तो है आदमी!

Aashu ने कहा…

apnimaati.com के एडिटर साहब से पूर्णतया सहमत हूँ. एक पद्य को बार बार बिना मतलब का लाइन बदलकर गद्य बनाने की कोशिश सी लगती है. विचार बहुत सही हैं. एक आम मध्यवर्गीय आदमी के जद्दोजहद के बारे में सही कहा है आपने, पर इसे कविता का रूप देने में पूरी तरह असफल रही हैं आप..........इसे पद्य में लिख दिया होता तो शायद पसंद आ जाती ये रचना! धन्यवाद!

रश्मि प्रभा... ने कहा…

ek halki si umeed per khwaabon ki udaan ... itna hi to jeeta hai aadmi

उस्ताद जी ने कहा…

5.5/10

कहानी की तरह पढ़ी जाने वाली सुन्दर रचना.
इतने अच्छे भाव हैं ..जिस तरह भी लिखिए अच्छा लगेगा ... कविता की ही जिद क्यूँ ?

रंजना ने कहा…

सच है,

सपने और आशाएं ही हो व्यक्ति को उर्जा देती हैं...

ZEAL ने कहा…

.


अद्भुत अभिव्यक्ति । इस सशक्त रचना के लिए बधाई एवं आभार ।

.

राज भाटिय़ा ने कहा…

बेचारा आदमी!!! तब भी पिसता हे यह आदमी.
बहुत सुंदर लगी आप की यह रचना. धन्यवाद

महेन्‍द्र वर्मा ने कहा…

ज़िंदगी की जद्दोजहद से
कुछ पल
स्वयं के लिए
चुरा लेता है
आदमी


एकदम नए भावों से युक्त कविता...अच्छी लगी।

ताऊ रामपुरिया ने कहा…

मुझे तो हकीकत जैसा ही लग रहा है.

रामराम

उम्मतें ने कहा…

बड़े काम की चोरी बताई है आपने ! यही सत्य है जीवन का !

palash ने कहा…

घर से आदमी आफिस जाता है , मगर टिफिन के साथ जिम्मेदारियों को , अधूरे कामों की लिस्ट को , कुछ सपनों उम्मीदों को भी ले कर निकला है , बहुत अच्छा लगा पढ कर

अरुण चन्द्र रॉय ने कहा…

जिंदगी को कितनी सहजता से अभिव्यक्त कर रही हैं आप.. आदमी वास्तव में कई भागों में बटा होता है और कई भूमिका में होता है.. सुंदर कविता...

अरुण चन्द्र रॉय ने कहा…

इतनी गंभीर रचना पढवाई कि मन उद्विग्न हो उठा.. एक अनुभव है.. अलग सा.. बहुत सुन्दर!

मनोज कुमार ने कहा…

एक दम अपनी दिनचर्या पाता हूं इसमें।

संगीता पुरी ने कहा…

बहुत बढिया .. हकीकत बयान की है आपने इस रचना में !!

Mahendra Arya's Hindi Poetry ने कहा…

आम आदमी का आम दिन . सपनों की फेहरिस्त, जिम्मेवारियों का बोझ और इन सब के बीच कुछ सही गलत फैसले - यही तो है जिंदगी . अच्छी माला पिरो दी आपने इन सब की .

अनुपमा पाठक ने कहा…

chand palon ka awkaash khud ki khatir churata rahe aadmi ...
jindagi ka safar aasani se tay ho jayega tamaam muskilon ke bawjood!
sundar rachna!

दिगम्बर नासवा ने कहा…

घर परिवार को
ख़ुशी देने की
चाह में
ख्वाबों की
उड़ान भर
लेता है आदमी ...


रोज़ के सफ़र क़ि सुनहरी दास्ताँ लिख दी है ... ख्वाब बुनना बहुत जरूरी है इस जीवन में ...

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

घर से ऑफिस के बीच की यात्रा बड़ी रोचक होती है, कविता द्वारा सुन्दर निरूपण।

Aruna Kapoor ने कहा…

वाह वंदनाजी!...ओफिस जैसी उबाउ जगह को आपने एक सुंदर और रोचक स्थान बना दिया!...उत्तम कृति, धन्यवाद!

विनोद कुमार पांडेय ने कहा…

badhiya hai..ek aam adami ki rojmarra kahani..badhiya vyankt kiya aapne..badhai

Dorothy ने कहा…

सपनों के बिना तो जीने की कल्पना भी नहीं की जा सकती. सपने हमारे बेरंग उदास जीवन में खुशियों के रंग बिखेर देते हैं और जीवन को जीने लायक बना देते हैं. सहज साधारण जीवन में भी सब कुछ के बीच उन्हें किसी तरह बचाए रखने कोशिश उस जीवन को भी असाधारण बना देती है. खूबसूरत अभिव्यक्ति. आभार.
सादर
डोरोथी.

अनामिका की सदायें ...... ने कहा…

एक नौकरीपेशा पुरुष की जद्दोजहद को भरपूर शब्द दिए हैं. हकीकत से रु-ब-रु कराती रचना.

shikha varshney ने कहा…

बेहतरीन भावों से सजी रचना ..बहुत सुन्दर.

Dr Xitija Singh ने कहा…

bahut achha likha hai vandana ji ... deri ke liye maafi chahungi ...

aapne sach kaha aadmi ko apne liye hi wakt nikalna mushkil ho jaat hai ... agar do pal bhi naseeb ho jaein to ganeemat hai ... aabhaar